जैसे जैसे उम्र गुज़र रही है,
मुझमें मैं कम हो रही हूंँ,
माँ तू बढ़ रही है ।
सुबह सवेरे बालों की अब,
चोटी बनाना भूल गई हूंँ,
तेरी ही तरह अधखुला जूड़ा बनाए,
बच्चों के पीछे दौड़ रही हूंँ।
मेरे चेहरे पर तुम्हारे चेहरे की
लकीरें उभरने लगी हैं,
मेरी आंखें भी बिल्कुल
तुम्हारी आंखो जैसी,
दिखने लगी हैं,
कभी अचानक जब,
यूँही शीशा दिख जाता
चौंक उठती हूंँ मैं,
माँ, तेरा अक्स़ नज़र आता है।
दो अंगुलियों पर गालों को टिकाए,
ना जाने कहां टकटकी लगाए,
अक्सर खो जाती हूँ,
बिल्कुल जैसे तुम बैठी हो,
फिर तुम ही आती हो कहीं से,
मुझे हिलाकर ये पूछने,
कि ऐसे क्यों बैठी हो?
क्या सोच रही हो?
सम्हल जाती हूंँ अंगुलियों को हटाते हुए,
मुकर जाती हूँ सिर को हिलाते हुए,
कि जैसे मैं तुम नहीं हूँ!
कि जैसे मैं तुम नहीं हूँ!
लेकिन, सच तो यही है कि,
जैसे- जैसे उम्र गुज़र रही है,
मुझमें मैं कम हो रही हूँ,
माँ, तू बढ़ रही है,
माँ,तू बढ़ रही है।