मेरे पिताजी का आदर्श सूत्र था हर परिस्थितियों में
पारिवारिक और सामाजिक समरसता बनी रहनी चाहिए....!
मेरे पिताजी श्री आचार्य प्रतापादित्य एक गृहस्थ सन्यासी थे।वे धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप में आस्था रखते थे।उनका कहना था कि यह मानव शरीर चाहे किसी भी जाति,धर्म का हो , आठ चक्र और नौ द्वारों वाली देवताओं की पुरी है।जब संपूर्ण द्वन्द्वों से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है तो वह शांति की स्वर्ग भूमि में अपनी चेतना को स्थापित कर लेता है।ऐसा प्रत्येक साधक कबीर का प्रतिनिधि हो जाता है।लड़ाई झगड़ा देखकर वह रो पड़ता है और कह उठता है," सन्तों , जग बौराना।"
धर्म के नाम पर राजनीति परोक्ष रुप से शोषण और मूलतः आर्थिक शोषण का घिनौना स्वरूप है। वे यह भी मानते थे कि धर्म की सही समझ पैदा करके सभी प्रकार के शोषणों से मुक्त समाज की सुंदर संरचना करनी पड़ेगी।
फादर्स डे पर यह बताना चाहूंगा कि हम सभी परिजन उनके बताए रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं।उनकी इस वैचारिक सोच को समाज में भी फैला रहे हैं जिससे सामाजिक और पारिवारिक समरसता प्रगाढ़ हो।
-प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, कार्यक्रम अधिकारी, आकाशवाणी(से.नि.),डी०-9,विज्ञा नपुरी, महानगर, लखनऊ।
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