अगर इश्क़ का यही दस्तूर है जी
मुझे क़त्ल होना भी मन्ज़ूर है जी
अजन्ता की मूरत लगे यार मुझको
बचाये खुदा चश्मे-बददूर है जी
तसव्वुर में बांधे उसे यार कैसे
पहुँच से मिरी वो बहुत दूर है जी
शुरू सब उसी से, फ़ना सब उसी पे
ज़मीं की धनक है, अजब नूर है जी
ज़माना उसे क्यों गुनहगार कहता
‘महावीर’ आशिक़ तो मजबूर है जी
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