हमारा भारत 6000 वर्षों की अखंडीत, दिव्य एवं भव्य संस्कृति से ओतप्रोत रहा है। यहाॅं पर ऋषी-मुनियों की अगणित पीणियों ने अविश्रांत चिंतन, मनन, अभ्यास तथा विभिन्न प्रयोग कर सुखी एवं निरामय जीवन संबंधी कुछ अनुभवसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। निरोगी जीवन जीने हेतु नियमों के साथ ही साथ रोगी-जीवनकाल अल्पकाल के लिए रहे इस हेतु से परिणामकारक उपाय योजना भी दी हैं। यह सभी नियम और उपाय एकत्र संकलित कर जो तीन शास्त्र विकसित हुए हैं वे अध्यात्म शास्त्र, आयुर्वेद शास्त्र एवं योगशास्त्र के नाम से जाने जाते हैं। भारतीय चिकित्सा शास्त्र और आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की मुमुक्षु तुलना करने पर एक मौलिक अंतर दिखाई पड़ता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र (डवकमतद डमकपबंस ैबपमदबमे) में प्रमुखता से रोग होने के बाद की चिकित्सा (उपाय योजना) विस्तृत रूप से दिखती है। जबकी हमारे चिकित्सा शास्त्र में सर्वप्रथम रोग हो ही नहीं इस संबंध में नियम मिमांसा विस्तृत रूप में दी गई है और उसके उपरान्त भी अगर यदाकदा कोई रोग हुआ तो उसकी चिकित्सा का विवरण आया हुआ दिखता है। इस एकमेव विधान से ही हमारे भारतीय चिकित्सा शास्त्र का महत्व सिद्ध हो जाता है।
श्लोक के सम शब्द का अर्थ ’उचित प्रमाण’ है। यह शब्द ऋषि-मुनियों को अत्यधिक प्रिय रहा है। ’समत्व योग उच्चते’ इन शब्दों में योग कि व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में दी गई है। त्रीदोष, जठराग्नि, सप्तधातु तथा मल ये सभी शब्द शारिरिक निरोगत्व से जुड़े हुए हैं अतः श्लोक की पहली पंक्ति संपूर्ण रूप से शरीर स्वास्थ्य को समर्पित है। परंतु उसी समय श्लोक की दूसरी पंक्ति में ऋषिमुनि हमारा ध्यान आत्मा, मन व इन्द्रिय की प्रसन्नता से उत्पन्न निरोगत्व की ओर आकृष्ट करते हैं। आत्मा का संबंध अध्यात्म से मन का संबंध योगशास्त्र से एवं इन्द्रियों का संबंध शरीर से जोडकर आध्यात्मिक, मानसिक और शारिरिक निरोगत्व कि यह सर्वांग परिपूर्ण विलक्षण व्याख्या भारतीय चिकित्सा शास्त्र के अलावा कहीं किसी ओर दिखाई नहीं पड़ती। आहार और निरोगत्व का रिश्ता इस श्लोक से हमें ज्ञात होता है। मन, आत्मा एवं इन्द्रियों का समावेश किया हुआ यह श्लोक और उसमें दिये हुए आहार के महत्व को जानने के उपरान्त आहार का संबंध अध्यात्म, योगशास्त्र तथा आयुर्वेदशास्त्र से है यह हमें पता चलता है। सारांश में कहें तो अध्यात्म, आयुर्वेद एवं योग ये शास्त्र एक दूसरे के पूरक हैं। ये शास्त्र केवल भारतभूमि की पवित्र धरोहर ही नहीं अपितू भारत में अखिल विश्व को दी हुई एक अमूल्य देन है।
योग और आहार
अथर्ववेद के प्रणेता अथर्वागिरस मुनि ने शांडिल्य उपनिषद् में अष्टांगयोग का जो वर्णन किया है उसमें दस यम और दस नियम बताए हैं। ’मिताहार’ (संयमपूर्ण प्रमाणबद्ध भोजन) यह यम का 9 वां उपांग है ऐसा मुनि कहते हैं। महामुनि पतंजली के ’शौच’ इस नियम में आहार अंतर्भूत है। पतंजली के अष्टांग योग में ’व्याधि’ को साधना की 16 में से 1 ली बाधा (अंतराय) कहा गया है। मिताहार कि अवहेलना से व्याधि समुत्पन्न होती हैं। इसिलिए निसर्गतः मिताहार का पालन योग साधकों के लिए न्यूनतम पात्रता है। घेरण्डसंहिता एवं हठप्रदीपिका इन दो ग्रंथों में मिताहार (मित अर्थात मात्रावत निश्चित व सिमित) विस्तृत रूप से वर्णित है। महामुनि घेरण्ड अपनी घेरण्डसंहिता के पांचवे अध्याय में प्राणायाम की पूर्व तैयारी के बारे में बताते समय श्लोक क्रं. 2, 16 और 32 में मिताहार के बारे में विस्तृत वर्णन करते हैं। स्वामी सहजानंद के पुत्र योगिन्द्र स्वात्माराम रचित हठप्रदीपिका के प्रथम अध्याय में श्लोक कं्र. 57 से 63 में मिताहार का वर्णन करते हैं। आयुर्वेद में आहार को आयुर्वेद का विषय माना गया है। इन सभी ग्रंथों में अपथ्यकारी व पथ्यकारी पदार्थों की विस्तृत सूचि दि गई है। इन सूचि के कुछ पदार्थाें के नाम आज अनाकलनिय लगते हैं। संभवतः कालोघात के कारण वे या तो लुप्त हो गए हैं अथवा दूसरे नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इस संबंध में योगशास्त्रज्ञ, आधुनिक वनस्पती शास्त्रज्ञ एवं आहारतज्ञों ने एकत्रित रूप से संशोधन करने की आवश्यकता है। सारांश में, भारतीय आहारशास्त्र में मूलतः मिताहार का पालन, आसन व प्राणायाम इन तीनों को अपेक्षित किया गया है। अतः निरोगत्व के लिए ’मिताहार’ संकल्पना का ज्ञान अनिवार्य है। मिताहार का अनुपालन न करने पर योग के लाभ दुर्लभ हो जाते हैं। भारतीय आहार शास्त्र सुलभ होकर भी कालचक्र की कसौटी पर पूर्णतः सफलतापूर्वक खरा उतरा हुआ ’अनुभव सिद्ध’ शास्त्र है। इसमें आहार ग्रहणपूर्व, ग्रहण करते समय तथा ग्रहण करने के उपरान्त की सूचनाओं का अंतर्भाव है। इसी कारण आधुनिक चिकित्सक (अॅलोपैथी डाॅक्टर्स) भी भारत की परंपरागत आहारशैली की प्रशंसा एवं अनुशंसा करते पाये जाते हैं। योगशास्त्र में योगसाधना आत्मसात होने की दृष्टि से ही आहार का वर्णन किया गया है क्योंकि योग साधक को आयुर्वेद में वर्णित आहार संबंधी जानकारी अवगत होना अपेक्षित किया गया है। इसका अर्थ योगशास्त्र में आहार का महत्व कम आंका गया है ऐसा नहीं है। भारतीय आहारशैली में आयुर्वेद, योगशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र इन किसी भी बिन्दुओं पर विसंगती नहीं है। ’मिताहार’ का पालन श्रेष्ठ ’तप’ है अन्यथा शरीर को व्याधिरूप में ’ताप’ ही प्राप्त होता है।