मुसाफ़िर !
तान ले यदि तीर अपना मंजिल की ओर
सोंचकर उम्मीदों पर खरे उतर रहे हम ,
दुनिया तुम्हारा नाम क्यों याद रखेगी ?
बस छोड़ दे तीर यह समझकर ,
है केवल सोंच और कर्मों में दम |
प्रकृति के हो खिलौने निराले ,
खेल-खेल में हो रोशन कर दे चमन ;
टूट जाओगे समय से पहले समझते हो यही ,
समय के चक्र से अछूता है कौन ?
समय पर जीना मरना ही है प्रकृति का नियम |
मुसाफिर !
चल पड़ जिधर मंजिल है तेरी ,
मत देख नीचे कंकड़ पड़ा ,
देंगे केवल ठोकरे ना रुकेंगे तेरे बढ़ते कदम |
मंजिल गले लगा लेगी जिस दिन तुम्हें ,
मिटेगी हर क्लेष जलेगी प्यार की ज्योति मन में,
लगेगा छू लिया आसमान आंखों से बरसेगी मोती ,
जीवन का रहस्य समझ पाया ना कोई ,
बस समर्पण कर दे खुद को,
सफलता खुद चूमेगी तेरी बढ़ते कदम ||