क्या गुनाह किया है हमने जो हमारी खुशियाँ छीन लेते हो
बड़ी मेहनत से घर बनाते हैं तुम आशियाँ छीन लेते हो
कभी एक किसान का बेटा, बचपन से खेतो की मेड़ो पे मरता है
सरकारी नौकरी का सपना लेकर पल पल दीपक की लौ सा जलता है
जिसके घर न कभी रौशनी आई ,न भर पेट मिला खाना
फिर भी अपने सपनो की दुनिया पाने को हर पल आहें भरता है
ऐ आरक्षण तुम कौन हो जो उसकी सारी दुनिया छीन लेते हो
बड़ी मेहनत से घर बनाते है तुम आशियाँ छीन लेते हो.......
हर साल देश के युवा आई आई टी , upsc के खातिर जी जान लगाकर पढ़ते हैं
कुछ मध्यम तो कुछ गरीब घरो से आकर अपने सपनो को गढ़ते हैं
पर हर एक कदम पे आरक्षण की आग ने उनके सपनो को राख किया है
बाड़ लगा रही है आरक्षण की , जब हम अपनी मंजिल की खातिर बढ़ते हैं
ऐ आरक्षण तुम कौन से दुशाशन हो, जो तन का चीर छीन लेते हो
बड़ी मेहनत से घर बनाते हैं तुम आशियाँ छीन लेते हो.....
शर्म आती है इस लोकतंत्र की परिभाषा में जिसमे ‘समता’ शब्द का जिक्र हुआ
जब संसद के आगे युवा दाह हुआ, किसको माँ की ममता का फ़िक्र हुआ
चरैवेति के चारो ओर अँधेरा छाया है, हर समता के आगे आरक्षण समाया है
बिना किसी मेहनत लगन के आरक्षित यूँ बेफिक्र हुआ .
ऐ आरक्षण तुम कौन संविधान संशोधन हो, जो लोकतंत्र की नींद छीन लेते हो
बड़ी मेहनत से घर बनाते हैं तुम आशियाँ छीन लेते हो .।