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भाग-1

8 अप्रैल 2023

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अक्तूबर 1996 में एक सर्द सुबह दिल्ली पहुँचा। कंधे पर लटकानेवाले झोले में दो जोड़ी कपड़ों और कई किताबों के अलावा इर्टिंग स्टोन की 'लस्ट फॉर लाइफ' की घिसी हुई प्रति भी थी, जो मुझे लगभग मुँहजुबानी याद थी। मुझे जम्मू से लानेवाली बस लाल किले पर आकर रुकी और अचानक ही मैंने खुद को बहुत असुरक्षित-सा महसूस किया। ऐसा लगा, जैसे यह शहर मुझे अपने अंधकार से भरे पाताल में खींच लेगा; यह मुझे पूरी तरह से निगल जाएगा।

मैं उन हजारों प्रवासियों में से था, जो देश के हर कोने से प्रतिदिन भारत की राजधानी की दहलीज पर कदम रखते हैं। अधिकतर प्रवासियों की तरह मैं भी एक बेहतर जीवन की तलाश में दिल्ली आया था, मैं उसमें से कुछ वापस पाना चाहता था, जिसे मेरे परिवार ने कश्मीर घाटी से कूच के समय खो दिया था। परंतु अन्य प्रवासियों और मुझमें थोड़ा अंतर था। वे जानते थे कि त्योहारों, पारिवारिक उत्सवों या अपनी मृत्यु का समय निकट आने पर वे उस जगह वापस जा सकते थे, जहाँ से आए थे। मैं ऐसा नहीं कर सकता था। मुझे स्थायी निर्वासन मिल चुका था। मैं इस शहर में या दुनिया के किसी भी हिस्से में घर ले सकता था, पर कश्मीर घाटी में नहीं, जहाँ से मेरा परिवार आया था।

असुरक्षा की यह भावना जल्दी ही ख़त्म हो गई। कुछ दोस्त बन गए थे और मैं प्यार करने लगा था। मैं प्रेमिकाओं को अलस्सुबह तब तक चालीस-चालीस पन्नों के खत लिखता था, जब पानी की कमी से जूझ रही पंजाबी कॉलोनियों में बिजली के मोटर पंप चलाने का समय हो जाता था, उन कॉलोनियों में वे लोग रहते थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान को छोड़कर भारत आए थे। मैंने अपना पहला पिज्जा खाया, पहली व्हिस्की पी। कुछ साल बाद जब मेरे माता-पिता भी जम्मू छोड़कर मेरे पास आ गए तो मैं रात को शराब पीकर लौटता, कई बार तो आधी रात तक हो जाती। मैं अपने लिए दरवाजा खोलनेवाले पिता से अंग्रेजी में बात करता। उन्होंने इस बारे में मुझसे कभी कोई बात नहीं की, पर जब उन्हें लगा कि मेरा लहजा अजीब होता जा रहा है तो वे मेरी माँ से कहते कि मैं थोड़ा कम 'कोका-कोला' पिया करूं। वह चरण अब पूरा हो चुका है। अब मैं इसी बात पर जोर देता हूँ कि मेरे पास अपनी चाबी रहे, पर अब भी जब घर वापस आता हूँ तो कमरे के अंदर से पिता के खाँ- सने की आवाज सुनाई देती है। चाहे जितना भी समय हो जाए, मेरे वापस आने तक वे सोते नहीं हैं।

अब कोई चालीस-चालीस पन्नों के खत नहीं लिखे जाते। बस उन बीतें दिनों की याद के नाम पर प्लास्टिक का एक बैग है, जिसमें ब्रेसलेट, पिछले हिस्सों पर लिपस्टिक के निशानोंवाली तसवीरें और लस्ट फॉर लाइफ' की पुरानी प्रति रखी है। उसमें 'डेली एक्सेलशियर' अखबार की एक प्रति रखी है, जो जम्मू में हर कश्मीरी खरीदता था, क्योंकि इसमें जानकारी होती थी कि उनके समुदाय के कौन-कौन लोग निर्वासन में मर गए। मैंने उसे कभी खोलकर भी नहीं देखा। पर कई बार, जब मैं उन टी.वी. शोज को देखकर गुस्से में आ जाता हूँ, जहाँ हत्यारे ही हमारी वापसी की बात करते हैं तो मैं उस अखबार को खोलता हूँ। उसके पहले ही पन्ने पर रवि का विकृत चेहरा दिखाई देता है। उसकी नाक से बहता खून जम गया है—उस पर कलाशनिकोफ राइफल के कुंदे से वार किया गया था। उसका माथा अब भी सुंदर और साफ दिखता है और ठीक उसी तरह उसकी मूँछें भी, जब मैं जवान था तो उसी तरह की मूँछें रखना चाहता था।

तभी वे आवाजें मेरे पास वापस लौट आती है। तालियों की गड़गड़ाहट । हो-हल्ले का स्वर । तेजी से लगाए जाने वाले नारे। लाउडस्पीकर की रिरियाहट। वह शोर मेरी छाती पर बजता है, जैसे किसी ड्रम पर पागलों की तरह चोट की जा रही हो। मेरा सिर चकराने लगता है और पीठ पर ठंडा पसीना रेंगता हुआ महसूस होता है।

हम क्या चाहते—आजादी!!!

एक बार मैं कुछ गैर-कश्मीरी दोस्तों के साथ था, उनमें से एक ऐसे दृश्य की नकल उतार रहा था, जो उसने 1 की 1990 शुरुआत में कश्मीर में बनाई गई वीडियो फुटेज में देखा था— लाल चौक में भारी भीड़ चिल्ला रही थी, 'भारतीय कुत्तो, वापस जाओ!' और हम क्या चा- हते—आजादी।" यह सुनकर वे सब हँसते। इस तरह मुझे वे ठोकरें याद आ जाती हैं, जो मुझे अपने स्कूल में राष्ट्रीय गान गाने पर खानी पड़ती थीं। पर इस तरह की अड्डेबाजी में मेरे दोस्त केवल मौज-मस्ती के लिए आजादी के नारे लगाते। उनके लिए यह एक मजाक था—मु- ट्ठियाँ भींचे भीड़ का कश्मीरी लहजे में आजादी की पुकार लगाना। जब तक मैं अपने लहजे को सुधार पाता, दोस्त अच्छा-खासा मजाक बना

देते। “देखो, हमारे दोस्त को तो देखो। यह भारत में नहीं, बारत में रहता है।"

"आज रात ये अपने गर जाएगा, घर नहीं!"

मैं उनके साथ हँसते हुए मजाक करता और बदले में उनका मजाक उड़ाता, क्योंकि उनमें से कई शब्दों में नुक्ता नहीं लगा पाते थे, वही छोटा बिंदु जो जहाज को जहाज़ बना देता है। पर यह शब्द, 'आजादी', यह मुझे भयभीत करता है। उन दिनों की यादें मुझे भयावह लगती हैं। लोग सड़कों पर थे। लोग खिड़कियों से

झाँक रहे थे। लोग बसों की छतों पर, शिकारों में थे और मसजिदों में थे।

हम क्या चाहते—आजादी!!!

अब मैं राष्ट्रीय गान नहीं गाता। कुछ साल पहले एक भिखारी बच्चे ने ट्रैफिक सिग्नल पर मेरी कमीज पर देश का छोटा सा झंडा लगा दिया था। मैंने उसे अपने घर के पास ही कैफे के कचरे के डिब्बे में डाल दिया था।

यह वह दिन था, जब मुझे अहसास हुआ था कि अब मैं अपनी माँ की आवाज को याद नहीं कर पा रहा।

जब तक वे बोल सकती थीं, माँ अपने नॉर्थ स्टार स्रीकर्स पहने दिल्ली में पड़ोस के पार्क में टहलने जाती थीं। पिता उन्हें अपने पीछे चुपके से दरवाजा बंद करते देखते और जब वे चली जातीं तो वे पीछे से आवाज देते, जबकि वे जानते थे कि अब वे उन्हें सुन नहीं सकतीं।

"भगवान् के लिए, हर किसी के आगे अपने घर का किस्सा मत सुनाने लगना।"

माँ को आदत हो गई थी कि जो भी सुनने को तैयार होता, वे उसे अपने घर का किस्सा सुनाने लगतीं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि सुननेवाले को इसकी परवाह थी या नहीं। यह मानो उनका ही एक हिस्सा हो गया था, उनके व्यक्तित्व की पच्चीकारी में किसी कीमती पत्थर-सा गड़ा हुआ।

जब तक 2004 में उनकी आवाज गई, मैंने देखा कि वे इस वाक्य को और ज्यादा दोहराने लगी थीं। पर अब जब मुझे उनकी आवाज तक याद नहीं, मुझे अहसास होता है कि उनके लिए यह बात कितनी मायने रखती थी। यही बात उन्हें याद दिलाती थी कि वे क्या थीं या फिर उनका कभी-कभार दर्पण में झाँक लेना, जब उन्हें कोई नहीं देख रहा होता था। "कश्मीर में, हमारे घर में बाईस कमरे थे।'

मुझे वह दिन याद है, जब मुझे अहसास हुआ कि मुझे उनकी आवाज ही याद नहीं रही। उस दिन मैं रोज की तरह सुबह अखबार देख रहा था। मैं एकाध रिपोर्ट पढ़ता और माँ बिकने के लिए तैयार मकानों के विज्ञापनों की ओर संकेत करतीं। बहुत सारे विज्ञापन हुआ करते थे

'आज ही बुक करें, बाद में भुगतान करें।" "लकड़ी की फ्लोरिंग।'

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रचनाएँ
मेरी माँ के बाईस कमरे - कश्मीरी पंडितों के पलायन की कालजयी कथा
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मेरी माँ के बाईस कमरे' कश्मीर के दिल से निकली वह कहानी है, जिसमें इस्लामी उग्रवाद के कारण लाखों कश्मीरी पंडितों के उत्पीडऩ, हत्याओं और पलायन का दर्द छुपा है। यह एक ऐसी आपबीती है, जिसमें एक पूरा समुदाय बेघरबार होकर अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। राहुल पंडिता जब महज 14 वर्ष के थे तो उन्हें अपने परिवार सहित श्रीनगर से पलायन करना पड़ा था। वे मुस्लिम बहुल कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय के कश्मीरी पंडित थे, जहाँ अस्सी के दशक के आखिर में भारत से ‘आजादी’ को लेकर लगातार उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। राहुल पंडिता की यह कहानी झकझोर कर रख देनेवाली है और इसे बार-बार कहा जाना जरूरी है, ताकि हम इतिहास से सबक ले सकें।

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