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जम्मू, 1990

8 अप्रैल 2023

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उन्हें वह बूढ़ा अपने फटे हुए तंबू में मरा हुआ मिला, उसके दाएँ गाल के नीचे ठंडे दूध का पैकेट दबा हुआ था। वह हमारे निर्वासन का पहला जून था और सिर के पीछे लू के थपेड़े किसी हथौड़े-से महसूस होते थे। शरणार्थी शिविर में जिस पड़ोसी को पहले उसके बारे में पता चला, उसने बाद में बताया कि उस बूढ़े का स्टीवार्ट वारनर रेडियो चालू था, जिस पर एक पुराना हिंदी फिल्मी गीत आ रहा था—

आदमी मुसाफिर है

आता है, जाता है

वह बूढ़ा हमारे परिवार का जानकार था। उसका बेटा और मेरे पिता आपस में दोस्त थे। उसका जन्म कश्मीर वादी में हुआ और वह झेलम नदी के किनारे रहता था।

त्रिलोकीनाथ का जम्मू में नहर के बेजान से लगते पानी के पास ही संस्कार कर दिया गया। किसी ने कहा कि उस बूढ़े के घर का नाला भी इस नहर से बड़ा था। परिवार की स्त्रियों को उस बुजुर्ग की याद में मातम तक नहीं करने दिया गया। त्रिलोकीनाथ का बेटा जिस जगह रहता था, उस एक कमरे के मकान मालिक ने साफ जाहिर कर दिया था कि वह अपने घर में किसी तरह का मातम नहीं चाहता था। उसका कहना था कि यह उसके घर के लिए अपशकुन होगा।

बस कहने भर को कमरा था। कुछ महीने पहले तक वह गाय का तबेला हुआ करता था। अब फर्श पर सीमेंट करवाकर दीवारों पर सस्ता नीला डिस्टेंपर कर दिया गया था। मकान मालिक ने वह कमरा इसी शर्त पर किराए पर दिया था कि उस जगह परिवार के चार से अधिक सदस्य नहीं रह सकते थे। ज्यादा लोगों का मतलब था कि पानी की खपत उतनी ही बढ़ जाती। वह वृद्ध उस परिवार का पाँचवाँ सदस्य था, इसलिए उसे मजबूरन मुट्ठी शरणार्थी कैंप में रहना पड़ रहा था, जो जम्मू शहर के बाहर बनाया गया था। वह खाली जगह साँपों और बिच्छुओं का डेरा थी।

हमारा परिवार कश्मीरी पंडितों का था और हम उसी साल कश्मीर वादी में श्रीनगर को छोड़कर आए थे। हमें वह जगह छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया, जहाँ हमारे पुरखे हजारों वर्षों से रहते आए थे। हममें से अधिकतर जम्मू के मैदानी इलाके में बस गए थे, क्योंकि यह हमारी धरती के पास था। मैं हाल ही में चौदह का हुआ था और अपने परिवार के साथ सस्ते से होटल के छोटे और सीलन से भरे कमरे में रह रहा था। हम कभी-कभी किसी दोस्त या रिश्तेदार से मिलने शरणार्थी कैंप जाते थे। जब मैं पहली बार गया तो याद है, पानी के नलों या शौचालयों के बाहर बारी आने का इंतजार कर रहे लोगों की मायूसी से सामना हुआ था। नए परिवार लगातार आ रहे थे और वे शिविर के घेरे के बाहर अपना तंबू मिलने की प्रतीक्षा करते। मैंने उस असहनीय गरमी में भी एक बूढ़ी महिला को मोटा फिरन पहने देखा, वह एक पोटली पर बैठी रो रही थी। उसका बेटा पास ही बैठा, जाने अपने-आप से क्या बड़बड़ा रहा था, उसके सिर पर गीला तौलिया रखा हुआ था।

एक दोपहर मैं अपने एक दोस्त से मिलने कैंप में गया। वह उस दिन स्कूल नहीं आया था, क्योंकि सुबह उसकी दादी थकान और गरमी के मारे बेहोश हो गई थी। उन्होंने ग्लूकोज का पानी पिलाया तो दादी को राहत मिली। हम दोनों एक कोने में गए और मुँडरे पर बैठकर लड़कियों की बातें करने लगे। हमें बहुत पसीना आ रहा था, पर उस कोने में हमें देखने या सुननेवाला कोई नहीं था। बस एक गाय हमें देख सकती थी, जो उस जगह आराम से घास चर रही थी। मेरे पैरों के पास चीटियों की बाँबी थी, जहाँ चीटियाँ कड़ी मेहनत करते हुए अपने खजाने को अनाज और तितली के पंखों से भर रही थीं।

अचानक खलबली-सी मच गई और मेरा दोस्त उछलकर खड़ा हो गया, "मुझे लगता है कि राहत सामग्री देनेवाले आ गए।" वह भागा तो मैं भी उसके पीछे भाग लिया। उसने बताया कि वैसी वैन रोज आती थीं और कैंप में रहनेवालों को जरूरत का सामान दिया जाता था, जैसे -मिट्टी का तेल, बिस्कुट, मिल्क पाउडर, चावल और सब्जियाँ ।

जब तक हम कैंप के प्रवेश द्वार के पास पहुँचे, पहले ही टमाटरों से भरी गाड़ी के आगे लाइन बन चुकी थी। मैं भी लाइन में अपने दोस्त के पीछे खड़ा हो गया। दो आदमी टमाटरों के ढेर के आगे खड़े थे और उनमें से एक छोटे-छोटे टमाटर बाँट रहा था। वह लगातार कह रहा था

—'धीरे-धीरे'। कुछ लोग ढेर सारे टमाटर लेकर लौट रहे थे। मेरे दोस्त ने एक महिला को देखकर आँख दबाई, जिसने टमाटरों को अपनी

छाती से सटा लिया था। तभी आगे से कुछ गुस्सैल स्वर सुनाई दिए। टमाटर खत्म हो रहे थे और अभी बहुत से लोग इंतजार में थे। वे हर

आदमी को तीन-तीन टमाटर देने लगे। कुछ मिनटों में प्रति व्यक्ति एक-एक टमाटर दिया जाने लगा। कतार में लगे एक आदमी ने शि-

कायत की कि वहाँ एक ही परिवार के दो लोग कतार में थे। उनमें से एक ने कहा, "मुझे दस लोगों का पेट भरना है।" एक बूढ़ी औरत ने

बीच-बचाव किया और बोली, "अब क्या इन टमाटरों के पीछे आपस में लड़ेंगे?" उसके बाद खामोशी छा गई।

जब तक हमारी बारी आई, जोकि कुछ ही मिनटों में आ गई थी, यह साफ हो गया था कि सबको टमाटर नहीं मिलनेवाले थे। गाड़ी पर खड़े एक आदमी ने कुंद सा चाकू निकाला और वे टमाटर काट-काटकर देने लगे। मुझे लगा कि मैं मतिभ्रम का शिकार हो गया था या फिर उस जगह की गरम लू मेरे दिमाग को चढ़ गई थी। मुझे श्रीनगर में अपने घर में बनी बगिया याद आई और वे सभी टमाटर याद आए, जिन्हें मैंने बरबाद किया था। मैं उन्हें पकने से पहले ही तोड़ लेता और अपने बैट से उनके छक्के उड़ाया करता था और आज किसी ने मेरे हाथ में आधा कटा टमाटर थमा दिया था। कतार में खड़े दूसरे लोगों ने भी मेरी तरह टमाटर ले लिये और अब वे अपने तंबुओं की ओर लौट रहे थे। मैंने अपने दोस्त को देखा। कहने को कुछ नहीं था। हम अपनी उसी जगह वापस आए और वे आधे कटे टमाटर गाय के आगे डाल दिए। हम चौदह साल के हो चुके थे। मैं अकसर उस पल को याद करता हूँ। हो सकता है कि अगर हम बड़े और अपने परिवारों के लिए जिम्मेदार होते तो हम भी उन आधे टमाटरों के साथ चुपचाप वापस आते। चौदह साल की उम्र में हम यह तो जानते थे कि हम शरणार्थी थे, पर हमें इसका कोई अहसास नहीं था कि परिवार क्या होता है। और मुझे नहीं लगता कि तब तक हमें यह अहसास हुआ होगा कि हमें अब कभी अपना घर नहीं मिलेगा।

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रचनाएँ
मेरी माँ के बाईस कमरे - कश्मीरी पंडितों के पलायन की कालजयी कथा
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मेरी माँ के बाईस कमरे' कश्मीर के दिल से निकली वह कहानी है, जिसमें इस्लामी उग्रवाद के कारण लाखों कश्मीरी पंडितों के उत्पीडऩ, हत्याओं और पलायन का दर्द छुपा है। यह एक ऐसी आपबीती है, जिसमें एक पूरा समुदाय बेघरबार होकर अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। राहुल पंडिता जब महज 14 वर्ष के थे तो उन्हें अपने परिवार सहित श्रीनगर से पलायन करना पड़ा था। वे मुस्लिम बहुल कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय के कश्मीरी पंडित थे, जहाँ अस्सी के दशक के आखिर में भारत से ‘आजादी’ को लेकर लगातार उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। राहुल पंडिता की यह कहानी झकझोर कर रख देनेवाली है और इसे बार-बार कहा जाना जरूरी है, ताकि हम इतिहास से सबक ले सकें।

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