ये बरसता हुआ सावन ये काली घटाए
कुछ कह रही हों वक्त की फ़िजाए
मौसम का थिरकना बारिश की बूंदों पर
जो बहा देती हैं रेत की शिलायें
छेड़ दिया है राग किसी ने धीरे से गुनगुनाकर
मन में ठेसें उभर आई है धीरे से मुस्कुराकर
आ गई अब धुन भी मेरे होंठों पर
पर अफ़सोस निकलती नहीं हैं सदाएं
एक भीनी खुसबू क्यूँ छाई है
क्या लौट कर के फिर बहार आई है
देना न जख्म फिर तू दोबारा मुझको
इनको भरने की मुझको आती नहीं अदाएं