चौबे चले छब्बे बनने , दुबे बन कर लौटे
जब से ई मुआ कोरोना आया है तब से चौबाइन बड़ी परेशान है। चौबाइन अपने घर के अंदर से कोरोना को गरियाते हुये बाहर निकली तो कुछ लौंडे लपारिए निहायत ही निठल्ले से उसके घर के सामने मटरगश्ती करते नजर आए। अब चौबाइन का माथा गरम हो गया ,तन बदन में आग भभक उठी। उसने उन लौंडो की जम कर खबर ली , खूब गरियाने लगी , खरी खोटी सुनाने लगी। चौबाइन के इस अप्रत्याशित हमले और कोरोना के बीच अचानक आए इस आपदा से उन लौंडों की तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी , घिग्घी बंध गयी। वे सब लौंडे चौबाइन के हमले से बच बचाकर गिरते पड़ते उस गली से भाग निकले। अब चौबाइन फिर से कोरोना को गरियाने लगी। ई मुआ कोरोना तो कही बैठने लायक भी नहीं छोड़ा , न घर से निकल सकते है , न किसी के यहाँ जा सकते है , न किसी से गप्पें लड़ा सकते है , न किसी से जी भर के लड़ सकते है और न ही किसी की चुगली कर सकते है। अब चौबाइन के पेट मे आदतन दर्द उठने लगा और जी भर के चीन को गरियाने लगी। सत्यानाश हो जाए इन चीन वालों का जो कीड़ा-पिल्लू, साँप-छुछुंदर, ऑक्टोपस –चमगादड़ सब को जिंदा गटक जाते है। इसी से कोरोना आया और चौबाइन को अपनी सारी अरमानों की तिलांजलि देनी पड़ी। भुनभुनाती हुयी मन मसोस कर चौबाइन घर के भीतर गयी।
घर के अंदर चौबे जी टांग पसार कर अखबार में कोई खास खबर ढूंढ रहे थे। जैसे ही चौबाइन ने ये दृश्य देखा तो उसका पारा तुरंत गरम हो गया , गुस्सा सांतवें आसमान पे जा पहुँचा। बाज की फुर्ती से अखबार पर झपट्टा मारते हुये चौबाइन ज़ोर से चिल्लाई- “ बर्तन कौन साफ करेगा , घर की साफ सफाई भी अभी बाकी है , कपड़े भी धोने है , गेहूँ भी छत पर सुखाने है , पौधों में पानी कौन देगा। मेरे तो करम ही फूटे है जो इनसे पाला पड़ा।“ अचानक आई इस विपदा से चौबे जी हक्के बक्के रह गए , अंदर तक हिल गए , चाय और खैनी की तलब को तिलांजलि देते हुये चौबाइन को मन में ही भला बुरा कहने लगे और चौबाइन की तुलना रामायण की ताड़का व शूर्पनखा एवं श्रीकृष्णा के पूतना से करने लगे क्यूंकि चौबाइन के आगे उनकी एक न चलती थी। मन का भड़ास निकालने के लिए वे चौबाइन को कुछ बोलने ही वाले थे की मिसाईल की तरह दनदनाती हुयी झाड़ू ठीक उनके सामने आ कर गिरी। वे चौबाइन को मन ही मन कोसते हुये अश्रुपूरित नेत्रों के साथ मन मसोस कर उठे और अपनी सभी इच्छाओं की तिलांजलि देते हुये कोरोना को दिल की गहराइओं से गरियाते हुए आधे मन से घर की साफ सफाई मे जुट गए। उनके आंखों के आगे उनके ऑफिस में उनके रुतवे का सम्पूर्ण चक्र घूमने लगा। वो शान से चाय पीते हुये गप्पे हांकना , वो शहँशाह की तरह कुर्सी पर पैर फैला कर बैठना , वो चपरासी का उनके सामने थर्राना , बॉस का इज्जत के साथ पेश आना , सारे सहयोगियों द्वारा इज्जत देना, सारे दृश्य एक एक कर चलचित्र की भांति उनके मन में चलने लगा। चौबे जी लगभग रोने रोने को आ गए परंतु चौबाइन के आगे उनकी एक न चलती थी। वे सोचने लगे ,सारी दुनिया उनकी इज्जत करती है पर घर में ही इज्जत की वाट लगी रहती है।
किसी तरह चौबे जी सुबह से दोपहर , दोपहर से शाम की। परंतु आज चौबे जी का खैनी का स्टॉक लॉक डाउन के समय के बढ्ने के कारण समाप्त हो चुका था। उन्हें बड़े जोरों से खैनी की तलब हो रही थी , मन बेचैन था , दिल घबरा रहा था , साँसे मानो थम सी रही थी , पाँव लड़खड़ा रहे थे , आंखों की पुतलियाँ कथक कर रही थी ,दिमाग सुन्न होने की अवस्था में पहुँच पाता इससे पहले चौबे जी ने एक कठोर निर्णय लिया। लॉक डाउन में घर से बाहर निकलने का। कानून का उल्लंघन तो था और पुलिस से पीटे जाने का खतरा भी था और सबसे ज़्यादा खतरा तो कोरोना से था। शाम का वक़्त था , मन को कठोर कर भुनभुनाए की आज तो हर हाल में किसी न किसी तरह खैनी का जुगाड़ कर ही लेना है। वे चौबाइन को बिना बताए चुपके से निकल आए घर से और लक्ष्य प्राप्ति हेतु खुद को बचते बचाते आशंकित मन से चल पड़े चौक की तरफ। अभी वो चौक की तरफ सधे व सतर्क कदमों से कुछ ही दूर बढ़े थे की सामने का दृश्य देख उनके रोंगटे खड़े हो गए , उनका पूरा शरीर डर से सिहर उठा। सामने कुछ पुलिस वाले वेवजह घूमने आए लौंडे लपाड़ियों को जबरदस्त सोंट रहे थे , किसी से उठक बैठक करवा रहे थे तो किसी को मुर्गा बनाए हुये थे। ये दृश्य देख वो बच के निकलने हेतु वापस मुड़ने ही वाले थे की एक पुलिस वाला उनके सामने यमदूत की तरह अचानक प्रकट हो गया। उसकी मोटर साइकल साक्षात भैंसा और हाथ में पकड़ी लाठी साक्षात गदा प्रतीत हो रही थी। अचानक आई इस विपदा से चौबे जी हड्बड़ा गए , उनकी घिग्घी बंद गयी , आवाज हलक में ही अटक गयी। टीवी पर उन्होंने पिटाई देख व सुन रखी थी , वे दबी जुबान से कुछ बोलना चाह ही रहे थे की मिसाइल की गति से भी तेज दनदनाती हुयी लाठियाँ उनकी तशरीफ पर बरसने लगी। वे जब तक कुछ सोच पाते , कुछ बोल पाते , कुछ कर पाते तब तक तो आठ दस डंडे उनकी तशरीफ की सेवा में समर्पित हो उन्हें लाल कर चुकी थी। उनके होशो हवास गुम हो गए थे , दिमाग लगभग अचेतन अवस्था में जाने ही वाला था की वो अपनी सारी शक्ति को समेट दर्द की बिना परवाह किए आव न देखा ताव, बिना पीछे देखे सरपट घर की तरफ दौड़ लगा दी।
घर पहुँच उन्होंने राहत की सांस ली , अपने तशरीफ को सहलाते उन पर हाथों को फेरते हुये घर के अंदर प्रवेश करने ही वाले थे की सामने दरवाजे पर भृकुटी ताने चौबाइन खड़ी मिली। चौबाइन अपने पूरे रौद्र रूप मे अवतरित माँ चंडी प्रतीत हो रही थी , आंखों में अग्नि की ज्वाला , चेहरे पर क्रोध का तांडव , जिह्वा पर साक्षात शेषनाग एवं पूरा शरीर गुस्से से काँप रहा था। इस अकल्पनीय दृश्य को देख चौबे जी की आत्मा तक सिहर उठी। उनकी जबान को जैसे ताला लग गया हो , बोलना चाह रहे थे परंतु जिह्वा साथ नहीं दे रही थी। भूखी शेरनी जैसी चौबाइन दहाड़ते हुये चौबे जी से पूछी –‘ कहाँ गए थे बिना पूछे, बिना बताए। कहीं कोरोना लाने तो नहीं गए थे बाहर ?’ चौबे जी घोर असमंजस में पड़ गए , सोचने लगे – कैसे बताऊँ , किस मुँह से बताऊँ। चौबे जी को न उगलते बन रहा था न निगलते बन रहा था। चौबाइन के ताबड़तोड़ प्रश्नों के बौछार के बीच वो अपनी तशरीफ के दर्द को भूल गए थे। उनकी सिट्टी पिट्टी गुम हो चुकी थी , चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगी।
उनकी इस मनोदशा को चौबाइन झट से भांप गयी। भौंहे टेढ़ी कर गरजते हुये पूछा – ‘बाहर खैनी लाने के लिए ही गए थे न ?’ क्या हुआ , कुछ बताओगे भी ? अब चौबे जी को तो जैसे काटो तो खून ही नहीं , उनकी चोरी जो पकड़ी गयी। चौबे जी ने शरम से सारी आपबीती चौबाइन को सुनाई। सारी बातों को सुन कर मानो चौबाइन का गुस्सा काफ़ूर ही हो गया। वो बड़ी जोरों से हँस पड़ी, चौबे जी झेंप गए। हँसते हुये चौबाइन उनसे बोली – ‘ अच्छा हुआ , और निकलो लॉक डाउन में घर से बाहर , जनाब को खैनी की तलब लगी थी , कम से कम पचास लाठियाँ पड्नी चाहिए थी तुम पर। बड़े चले थे शेर बनने, आ गए न औकात में। चौबाइन ने चौबे जी की जम कर फटकार लगाई। चौबे जी अपनी तशरीफ को सहलाये जा रहे थे , वे अत्यंत ही पीड़ा में थे , अब उन्हें दर्द महसूस होने लगी थी।
चौबे जी लूटे पीटे युद्ध में पराजित किसी रियासत के राजा की तरह व्यथित और कुंठित मन से घर के अंदर गए और सोचने लगे की अब पूरे लॉक डाउन के दौरान अपनी गृहस्वामिनी यानि चौबाइन की बातों का अनुसरण करूँगा क्यूंकि ये भी तो मेरी बॉस ही है – घर की। ये प्रण कर वो अपनी सूजी हुयी तशरीफ को गरम पानी से सेंकने लगे। दर्द की अनुभूति तो हो रही थी पर शर्म के मारे बयां नहीं कर पा रहे थे।
© तरुण आनंद
साहित्य सृजन की विधा :- कविता , लघुकथा, नाटक, लेख, हास्य व्यंग, सटायर, संस्मरण , जीवनी, आत्मकथा आदि । शिक्षा:- M.Sc. (Bot.), B.Ed., MLIS, CIC. संप्रति :- शोधकर्ता (वनस्पति शास्त्र) मगध विश्वविद्यालय, वर्तमान बिहार सरकार अंतर्गत विज्ञान शिक्षक के रूप मे कार्यरत । Mob/WA:- 9709090199, Fb:- tarunanand32, Twitter:- tarunmagadh, Instagram:- tarunmagadh, Linkedin:- tarunanand32, About.me:- tarunanand
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हास्य-व्यंग्य : चौबे चले छब्बे बनने , दुबे बन कर लौटे - तरुण आनंद - रचनाकार