शब्दनगरी
के सभी मान्यवरों को प्रणाम!
२०१३
की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव
आज भी
प्रासंगिक
हैं|
उन
अनुभवों
को
आपके
सामने
प्रस्तुत
कर
रहा
हूँ|
धन्यवाद|
|
ग्राम घरूडी़ के खुशीऔर हसीं के अविष्कार |
|
आते समय यही 'पुलिया' चुटकी में पार हो गईं!! |
|
गोरी गंगा नदी और उसका रौद्र ताण्डव |
. . . घरूडी़ में आपदा प्रभावित गाँवों का दर्द भीतर से देखने में आया।
पहाड़ का जीवन कितना कठोर होता है, इसकी झलक मात्र मिली। मन में घरूडी़
गाँव से वापस लौटते समय उसी झरने और नदी के उपर के रास्ते का डर भी था।
लेकिन एक बात तय कर ली, कि वापस जाते समय राह में सोचना नही है। जैसा भी
रास्ता हो, चलना है। एक दिन घरूडी़ में बिताने से वहाँ पुष्करजी और
गम्भीरजी से अच्छी दोस्ती भी हो गई थी। गाँव में सुबह ग्रामीणों ने आकर टीम
लीडर सर से कुछ बात की। कुछ परेशानियाँ और कुछ शिकायतें बतायी। कुछ लोग
ऐसे समय पर आक्रमक रूप से बात करते है। ऐसे ही मनकोट के एक ग्रामीण ने अपनी
परेशानी बतायी और कुछ सुझाव दिए- गाँव में मीटिंग करनी चाहिए थी, सबको
पूछना चाहिए था आदि। घरूडी के ग्रामीण भी थे। आगे के काम को ले कर बातचीत
हुईं। ‘मैत्री’ और ‘अर्पण’ के सदस्यों ने आगे का कार्यक्रम बताया- कुछ हि
दिनों में यहाँ राशन बांटना है। और डॉक्टर लोग तो आज ही आ रहे हैं। नदी पर
पुलिया बनाने का विकल्प भी सामने है, पर वह काफी कठिन भी है। बातचीत में यह
भी पता चला कि, घरूडी़ एवम् मनकोट से पुलिया न होने के कारण बच्चे स्कूल
में नही जा पा रहे हैं। इसलिए अब कुछ बच्चे किराए पर लुमती में रह रहे हैं
और स्कूल जा रहे हैं। एक पूलिया टूटने से इतना फर्क हो गया! गाँव में किराए
से बच्चों का रहना आश्चर्यजनक है। यह बात भी पता चली कि, घरूडी़ गाँव में
बिजली की आपूर्ति करने में ग्रामीणों की ही बडी़ भुमिका है। उन्होने स्वयं
मेहनत की इसके लिए।
निकलते ही पता चला कि बरसात से रास्ता गिला हुआ है। फिर भी निकल पडें। और
बिना रुके जल्दी चलते गए। बस हर कदम रखते समय अच्छे से देखना पड रहा है।
जिस प्रकार हम बडी सडक पर वाहन चलाते समय निरंतर रास्ते पर आंखें बनाए रखते
हैं, बिलकुल उसी प्रकार एक एक कदम रखना पड रहा है। एक मजे की बात ध्यान
में आयी। यहाँ पर तो कोई भी वाहन नही चल सकता। चाहे कितना भी बडा और ताकतवर
क्यों ना हो। यहाँ तो सिर्फ पैदल यात्रा ही सम्भव है। अर्थात् स्थिति
बदलने पर हमें बडी बडी कारें- न जाने उन्हे क्या क्या नाम से पुकारते है-
फोक्स वॅगन, तवेरा, होंडा सिटी और तत्सम- ये सब वाहन त्याग कर पैदल ही आना
पडेगा। जैसे ‘यहाँ न हाथी न घोडा है, बस पैदल ही जाना है!’ दूसरी
बात यह थी, कि जो आधुनिक तकनीक से रास्ते बनाए गए थे- पक्की सडक और लोहे की
पुलिया आदि- वे तो टूट गए। पर जो उसके पहले से प्रचलित थे- पगडण्डीवाले
रास्ते- वे अब भी बने है। वरन् ऐसे पैदल रास्तों का होना अब बडा किमती
सिद्ध हो रहा हैं. . .
आते समय करीब डेढ घण्टे में हुड़की गाँव में पहुँच गए। हुड़की पहुँचने पर
काफी सुकून का अनुभव हुआ। अब आगे की राह धरती के साथ जो थी! यहाँ कुछ
ग्रामीणों से फिर बातचीत की। पीडितों की कुछ जानकारी ले ली। राशन के बारे
में पूछा। हुड़की की पुलिया आज भी ठीक है। रेत का रास्ता थोडा क्षतिग्रस्त
जरूर है। पर पुलिया से जौलजिबी- मुन्सियारी सड़क तक जाने का पैदल मार्ग
बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। उसका कुछ हिस्सा टूटा है। जाहिर है, यह रास्ता भी
कभी भी बन्द हो सकता है. . .
|
हुड़की से जुडी़ कालिका (चामी) की पुलिया |
|
पैदल रास्ते की स्थिति! |
सड़क पर डॉक्टरों की टिम मिली। मन में संभ्रम निर्माण हुआ, कि क्या उनको
कठिन राह के लिए प्रोत्साहित करें या फिर राह की दिक्कतें बता कर चौकन्ना
करें? संक्षेप में उनको रास्ते की दास्तां सुना दी। शब्दों के बजाय चेहरा
अधिक बोल गया। उन्होंने बताया कि उनका कल का रास्ता भी दुर्गम था। पहाड़
में गाँव के दो हिस्से होते है। तल्ला और मल्ला। तल्ला नीचला हिस्सा होता
है (तल जैसा) और मल्ला उपर का हिस्सा होता है। डॉक्टर और उनके सहयोगी कल
चामी और लुमती परिसर के गाँव के मल्ले में गए थे। तल्ला तो सड़क से जुडा
होता है। पर मल्ला जाने के लिए उपर चढाई करनी पड़ती है। डॉक्टर और उनके
साथी तो चिकित्सा शिविर के लिए कुछ सामान और दवाईयाँ भी ले गए थे। आज भी
उन्हे ऐसी ही कठिन राह चलनी है। सहायता के लिए अर्पण सदस्य और कुछ ग्रामीण
भी है। थोडी देर बात कर के उनसे विदा लिया।
पुलिया सड़क से जहाँ जुडी़ है, वही स्थान पर अर्पण के सदस्यों द्वारा कपडें
बांटें गए। अर्पण के दिदी लोगों का ग्रामीणों से अच्छा परिचय है। हर किसी
की आवश्यकता ध्यान में रखते हुए और वे सभी तरह के कपडें बांट रही है। सही
सूचना के लिए उन्होने मिनी आँगनबाडी़ और एएनएम से सम्पर्क किया है। कपडें
लेनेवालों में अधिकतर घरूडी़, हुड़की और मनकोट के ही लोग हैँ यहाँ। कुछ लोग
तथा कथित ऊँची जाति के कारण कपडें नही भी ले रहें हैं। टीम के कुछ सदस्य
कपडें बांटने में सहायता कर रहें है और कुछ सदस्य ग्रामीणों से बातचीत कर
रहें है। उनकी मुसीबतों को समझ रहे हैं। आवश्यकताओं का आंकलन कर
प्राधान्यक्रम बना रहे हैं। वैसे अर्पण और मैत्री टीम का प्राधान्यक्रम
चिकित्सकीय सेवा और राशन है। फिर भी कुछ जगह कुछ लोगों को तिरपाल या टेंट
भी दिए गए है और आगे दिए जाएंगे। और भी कई व्यक्तियों से बातचीत चल रही
हैं। जितनी हो सके उतनी सहायता दी जाएगी। और वह भी सीधे ग्रामीणों को ही दी
जाएगी।
|
कपडे बांटे जा रहे हैं। |
|
नदी का कहर साफ देखा जा सकता है। |
दोपहर में चामी से आगे लुमती गए। वहाँ एक जगह गम्भीरजी बता रहे है। वहाँ
नदी का फैलाव थोडा कम है। वहाँ रस्सी डालने पर चर्चा हुई। एक जगह विद्युत
विभाग द्वारा लगायी गई तार भी दिख रही है। यह वही रास्ता है, जो कल घरूडी़
में नदी पार से दिखाई दे रहा था. . . यहाँ की सड़क है पर काफी क्षतिग्रस्त
है। जगह जगह बी.आर.ओ. काम कर रही हैं। बीच बीच में रुकना पड़ रहा है।
मुन्सियारी मार्ग की यह सड़क बस लुमती तक ही शुरू हो पाई है। उसके आगे टूटी
है। मुन्सियारी से भी इस तरफ टूटी है। मुन्सियारी मात्र थल के रास्ते से
ही पिथौरागढ़ से जुडा है। यह रास्ता फिर से बनने के लिए काफी समय लगेगा. . .
जब लुमती में रुके थे, तब वहाँ की स्कूल छूटी। जब कपडें बांटे गए थे, तब
वहाँ के एक परिवार से सम्बन्धित एक अनाथ लड़का यहीं की स्कूल में क्लास में
था। दिदी लोगों नें इस बात का ठीक ख्याल रखा और उसे तुरन्त अच्छे कपडें
दिए। ये सभी कपडें पहनने योग्य है, यह पहले देखा गया था। लुमती में चाय
पिते समय सामने स्कूल के छात्र घर लौट रहे थे। एक नन्ही सी परी का फोटो
खींचने से नही रहा गया। प्रकृति के जितना निकट जाते है, उतना कई उपहार
मिलना शुरू होता है। खूबसुरती शायद उन्ही उपहारों में से एक है। यहाँ यह भी
देखा कि, कितना छोटा लड़का भी क्यों न हो, उसे अपना रास्ता खुद चलना पडता
है। स्कूल से घर जा रहा यह बच्चा शायद पहली कक्षा का ही होगा। पर वह अकेला
दूर के घर की तरफ निकला है। एक- दो किलोमीटर से अधिक ही दूरी है। और घर
सम्भवत: पहाड़ में ही है। लेकिन किसी को दिक्कत नही। ना ही उसके माता- पिता
को और ना ही उस बच्चे को। पहाड़ की मिट्टी ही ऐसी कुछ खास है. . .
|
एक तार पार गई है। |
|
नन्ही परी और पहाड़ का बेटा |
|
"हाँ यही रस्ता है तेरा..... तूने अब जाना है....." |
|
तबाही की छाति पर निर्माण कार्य! |
पर्ते दर पर्ते उघड़ रही हैं. . . अब धीरे धीरे आपदा की धरातल की स्थिति
पता चल रही हैं। हालांकि यह आपदा का ‘तल्ला’ है; सामने से पता लगनेवाला
हिस्सा। आपदा का ‘मल्ला’ अर्थात् अन्दरूनी दास्तां तो बी.आर.ओ. और
आर्मीवाले जाँबाज ही जानते होंगे. . . रास्ता बन भी जाता है, तो मुसीबतों
का अन्त नही। रास्ता कभी भी टूट सकता है। वरन् कभी ना कभी टूटेगा। ग्रामीण
यह बात जानते हैं। उन्हे पता है शायद आनेवाले समय में उन्हे अपने आवास के
स्थान छोड़ने पडेंगे। खेती छूट जानेवाली है। जवाब या विकल्प कुछ भी नही है।
कौन दे भी सकता है? चलिए, सड़कें तो कुछ दिनों में खुल जाएगी। पुलिया भी
बनेगी। पर जो खेती गईं, जो लोग गए, उन्हे कैसे वापस लाया जा सकता हैं?
पहाड़ में वैसे ही उपजीविका के साधनों की कमीं है। अब तो वें बहुत ही कम हो
गए हैं। अब ज्यादा तो निर्माण कार्य से ही पैदा होंगे। यात्रा और पर्यटन
बुरी तरह प्रभावित है। निर्माण कार्य ही एक तगडा़ विकल्प है। उसके लिए भी
सरकार की इच्छा शक्ति चाहिए। पर बहुत बडा सवाल यह है- निर्माण की जानेवाली
इमारतें, सड़कें और घर क्या बरकरार रहेंगे, या फिर ठीक सवाल शायद यह होगा-
की वे कब तक बने रहेंगे?? और पहाड़ तोड़ कर जो सड़क बनायी जा रही है, वह तो
बनते बनते ही उसके टूटने की तैयारी जैसे चल रही है। क्यों कि सड़क बनाने
के लिए भी तो पहाड़ को बुरी तरह तोड़ना पड़ रहा है और तोड़ने से पहाड़
अस्थिर हो रहा है। उसकी घनता घट रही है. . . कई स्थानों पर लैंड़ स्लाईड़
की सम्भावना दिख रही है. . . एक तरह से यह आपदा एक माध्यम है, जिसके जरिए
पहाड़ हमे चेता रहा है, कि अब जागो। होश में आओ। यही प्रकृति की चेतावनी
है।
|
तबाही के बीच प्राकृतिक सौंदर्य |
|
नदी का बदलता हुआ प्रवाह और नदी ने काटा हुआ ज़्मीन का हिस्सा |
|
पहाड़ का भविष्य |
. . . लौटते समय कुछ देर जौलजिबी रूके। यहाँ कालीगंगा के पार सीधा नेपाल
दिखाई दे रहा है। सीमाएँ- चाहिए जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय या
अंतर्राष्ट्रीय हो- वे मात्र लकिरें है, रेखाएँ है; यह महसूस हो रहा था। आप
देखने पर फर्क नही कर सकते, कहाँ भारत है और कहाँ नेपाल। सब कुछ एक जैसा।
वही पहाड़, वही पेड़ और वही प्रकृति।
रास्ते में अर्पण के दिदी लोगों से काफी बातचीत हुईं। अब तक उनसे दोस्ती हो
गईं। इतने बिकट राह पर उन्होने ही तो मार्गदर्शन किया है! हमारे टीम लीड़र
सर उनकी आयु, उनका अनुभव और उनके तजुर्बे को बीच में लाए बिना सबके साथ
हसीं मजाक कर रहे है। ऐसे वातावरण में ही तो टीम वर्क होता है। सबका प्रयास
एक हो जाता है। कोई अलग- थलग नही रहता। अर्पण के दिदी लोग भी काफी वर्षों
से इस क्षेत्र में कार्यरत है। उनका कार्य क्षेत्र हालाँकि महिला सक्षमीकरण
है, फिर भी उनकी अन्य विषयों की जानकारी भी अच्छी है। लोगों से इनका जुडाव
बहुत सराहनीय है। सभी दिदी- लोग- महिलाएँ और बहनें पहाड़ से जुडी हैं।
पहाड़ जैसी मजबूत हैं।
हेल्पिया पहुँचने पर अर्पण के कार्यालय के अन्य साथीयों से मिले। ‘मैत्री’
संस्था और हम लोग उनसे अलग लग ही नही रहे हैं। सब आपस में मिल घुल गए है।
कुछ समय परिसर में रुकने के पश्चात ओगला होते हुए मेर्थी गए। मेर्थी में
आय.टी.बी.पी. का एक प्रशिक्षण केन्द्र है और इसलिए यहाँ का एटीम मशीन
कार्यरत होने की उम्मीद थी। जौलजिबी और अस्कोट में तो मशीन बन्द था। मेर्थी
के पास शाम के समय में युवा बच्चे सड़क पर दौड़ते नजर आए। यहाँ सौभाग्य से
टीव्ही और अन्य शहरी मायाजाल कम होने के कारण लोग अब भी पुराने ढंग से
सोचते है और जीते हैं। मिलिटरी का बडा आकर्षण है लोगों में। और यहाँ के
गाँवों में एक्स- सर्विसमैन भी बहुत हैं। शायद इसी कारण जिन ग्रामीणों से
मुलाकात हुई थी, उनकी सोच काफी बडी थी।
मेर्थी का एटीएम मशीन भी बन्द मिला। अब तो डीडी़हाट या फिर पिथौरागढ़ जाना
पडेगा। वहाँ शायद यह भी हो सकता है कि एटीएम चालू हो, पर उसमें इस कार्य के
लिए जितनी राशी निकालनी हो, उतनी उपलब्ध न हो। क्यों कि पहाड़ निपट
ग्रामीण ढंग का है। यहाँ लोग एटीएम से पैसे ज्यादा निकालते नही होंगे।
इसीलिए शायद एटीएम बन्द हैं और उनमें राशि भी पर्याप्त नही है। हमारे सर ने
इसके लिए एक विकल्प यह ढूँढा कि अस्कोट में एसबीआय में एक खाता खोला जाए,
इसके द्वारा राशि लायी और निकाली जा सकती है। यह भी एक आपदाग्रस्त क्षेत्र
में राहत कार्य करते समय आनेवाली समस्या है।
|
सच्चा तीर्थ स्थान |
|
विध्वंस. . . |
. . . गाँव में बाँटने के लिए करीब तेरह टन राशन ट्रक के द्वारा पुणे से
भेजा जा चुका है। अब कुछ यहाँ खरीदना है। उसी के लिए बात चल रही है। अलग
अलग लोगों से दाम पूछे जा रहे है। अच्छी गुणवत्ता का राशन कम दाम में अधिक
से अधिक लोगों तक पहुँचाना है। अस्कोट में, पिथौरागढ़ में और अन्य स्थान पर
भी दाम पूछे जा रहे हैं। कुछ लोगों ने बताया कि टनकपूर जैसे नीचले स्थान
से भी सस्ते में राशन आ सकता है क्यों कि आता तो सब राशन मुख्य रूप से वहीं
से हैं और वहाँ बडी मिल्स भी हैं। सभी विकल्प देखे जा रहे हैं।
स्थानीय साथी भी इसमें अहम भुमिका निभा रहे हैं। पहाड़ की एक और विशेषता
दिखाई देती है। जहाँ जहाँ भी हम जाते- अस्कोट, जौलजिबी, बरम, ओगला, मेर्थी
और अब मेर्थी के बाद सिंगाली- वहाँ वहाँ हमारे चालक और अन्य अर्पण साथीयों
के पहचान के लोग मिल ही जाते। पहाड़ का स्वभाव एक छोटे कस्बे जैसा है। हर
किसी का एक दूसरे के साथ अच्छा जुडा़व है। हर कोई एक दूसरे को जानता है।
सिंगाली में राशन के दाम पूछे। दुकान के मालिक कई टन राशि लेने के सम्बन्ध
में भी दाम बहुत घटाने के लिए राज़ी न थे। शायद अब आपदा के कारण बजार में
तेज़ी है और इसलिए वे उसका लाभ उठाना चाहते हैं। खैर, कई सूत्रों के साथ
राशन खरिदने पर बातचीत चल रही हैं, जल्द ही उचित दाम और सही गुणवत्ता का
राशन मिल जाएगा। यह सब तो ठीक है। पर असली सवाल है पहाड़ और लोगों को कैसे
बनाए रखना. . .
|
आशा की किरण- पेड एवम् हरियाली |
क्रमश: