शब्दनगरी के सभी मान्यवरों को प्रणाम! २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव आज भी
प्रासंगिक हैं| उन अनुभवों को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ| धन्यवाद|
चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव १
|
अस्कोट में अर्पण संस्था का रमणीय परिसर |
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बरसात में पहाडी़ सड़क |
२९
जुलाई को सुबह हेल्पिया से
निकले। अस्कोट होते हुए जौलजिबी
के पूल पर पहुँचे। रास्ते में
बरसात से सड़क का हाल बुरा है।
कई स्थानों पर पत्थर और पहाड़
का हिस्सा गिरने से मुख्य सड़क
कट गई है और बी.आर.ओ.
द्वारा
कच्चा रास्ता बनाया गया है।
जौलजिबी के ब्रिज पर कुछ देर
रुके। यहाँ काली गंगा एवम्
धौली गंगा (जिसे
गोरी गंगा कहा जाता है)
का संगम है।
जौलजिबी शहर में भी बाढ़ से
कुछ तबाही हुई है, ऐसी
सूचना मिली। आज का हमारा कार्य
जौलजिबी- मुन्सयारी
रोड के पास के कटे हुए गाँवों
में तबाही का अन्वेषण करना
है। डॉक्टरों की टीम भी ऐसे
ही एक गाँव में जाने की लिए
तैयार है।
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जौलजिबी का गोरी गंगा का पूल |
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अंग्रेजी ग्रीफ (दर्द) को दूर करनेवाली ग्रीफ |
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इस संकट की घडी में रक्षण करनेवाले महारथी |
जैसे
जौलजिबी से आगे बढे, गोरी
गंगा का रौद्र रूप सामने आया।
नदी पूरे उफान पर है। नदी के
तट से जुडी़ जमीन टूटी हुई साफ
दिखाई दे रही है। आसपास के सटे
हुए इलाके को नदी ने बुरी तरह
ध्वस्त किया है। सड़क भी इससे
बची नहीं। सड़क भी अत्यधिक
क्षतिग्रस्त है। जगह जगह
बी.आर.ओ.
के समूह
कार्यरत हैं। रास्ते में
घट्टाबगड़ नाम का एक पूरा गाँव
ध्वस्त हुआ देखा। उस गाँव के
लगभग सभी परिवार अब टेंट में
रह रहे हैं या रिश्तेदारों
के पास गए हैं। उस गाँव में
कुछ देर रूके। अर्पण संस्था
के सदस्य साथ में हैं,
उनके परिचय
के कुछ व्यक्तियों से बातचीत
हुईं। टेंट में रहने के बाद
भी लोग निष्क्रिय नही होंगे,
इसका संकेत
अन्दर रखे सिलाई मशीन से मिल
रहा है। लोगों ने अपने साथ
पशुओं को भी रखा है। इस आपदा
में पशुधन की भी बडी क्षति हुई
है। लोग उन्हे अपने परिवार
का ही हिस्सा मान कर अपने पास
रख रहे हैं। लोग दिन में जोखिम
ले कर नदी के करीब बचे हुए उनके
घरों के खण्डहरों में भी जाते
हैं और जरूरी चीजें ढूँढ कर
लाते है, ऐसा
सुनने में आया. . .
|
बी.आर.ओ. को प्रणाम! |
नदी ने काटा हुआ क्षेत्र |
आगे
जाने पर रास्ता और भी बिगड़
गया है। अब तो मुश्किल से पक्की
सड़क मिलती हैं। सड़क पर बीच
बीच में पहाड़ से तीव्र गति
से आता हुआ पानी भी है। कई
स्थानों पर ऐसे पानी का बहाव
तेज भी है। बरम नामक गाँव में
मिलिटरी का एक पडाव है। वहाँ
से सड़क कुछ किलोमीटर तक पूरी
ही टूटी है और इसलिए पहाड़ तोड
कर अलग ही सड़क बनायी गयी है।
जगह जगह रुकना भी पड़ रहा है।
क्यों कि निरंतर गिरनेवाले
पत्थर हटाने का काम जो बी.आर.ओ.
कर रही है।
बरम में एक मोटी रस्सी लेनी
है, पर
कहीं मिली नहीं। बिना रस्सी
लिए ही जाना होगा। रास्ते में
रस्सी की जरूरत पड़ सकती
है।
बरम
से कुछ दूरी पर आगे काफी समय
रुकना पडा। बी.आर.ओ.
सड़क साफ
कर रही है। बडे जे.सी.बी.
और अन्य
उपकरण सड़क पर गिरे मलबे को
हटा रहे हैं। उनका काम होने
के बाद ही यातायात शुरू हो
गयी। चामी गाँव के पहले हम
कालिका नाम के स्थान पर रूक
गए। यहाँ से हमारी दो टीमें
बनी। एक डॉक्टरों की टीम है।
उसमें दो डॉक्टर और दो अन्य
सदस्य जीप से आगे चले गए। वे
आगे के गाँवों में शिविर लेंगे।
उनके साथ अर्पण के भी दो सदस्य
हैं। हम बाकी लोग टीम लीडर सर
के साथ नदी के पार जाने के लिए
निकले। इस टीम में भी अर्पण
के सदस्य एवम् स्थानीय लोग
भी हैं। चामी गाँव से पहले
कालिका नाम के स्थान पर गोरी
गंगा में एक लोहे का पूल है।
और वह अब भी सुरक्षित है!
उसमें से
जाने के लिए निकले। अब पक्की
सड़क का साथ छोडा। अब गोरी
गंगा की गर्जना के साथ पैदल
ही चलना है। इस पूल के पहले
धारचुला तहसील थी और अब पूल
के पार जाने के बाद डीडीहाट
तहसील शुरू हुईं। और अगले गाँव
के पश्चात् मुन्सियारी तहसील
भी शुरू होनेवाली है। तीन
तहसीलों के किनारे के इन गाँवों
में सरकारी कार्य में तकनिकी
बाधाएँ आना आम बात होगी। पैदल
रास्ता रेत में से जा रहा है।
नदी का पानी बिल्कुल पास में।
जब जल स्तर चरम सीमा पर होगा,
तब निश्चित
ही यह पैदल रास्ता पानी के
काफी अन्दर होगा। नदी की लहरों
के पास से चलते गए।
पहला
गाँव आया- हुड़की।
इसमें भी कई मकान तबाह हो गए।
बहुत से लोगों के खेती गईं।
कुछ लोगों के घर उपर हैं,
वे बच गए।
नदी के तट के पास होनेवाले
मकानों के अब अवशेष ही बचे है।
एक ऐसे ही खण्डहरनुमा घर में
एक वृद्ध बाबाजी बैठे हुए अपने
जीविका को जारी रखने की कोशिश
कर रहे हैं। उनका व्यवसाय बजरी
बेचना था और वह ठेकेदारी में
जाते है। पास ही घर में छत टूट
गया है। मकान के लिए तिरपाल
(टर्पोलिन)
की आवश्यकता
है। उनके पास पैदल रास्ता होने
से कुछ राशन भी है। उन्होने
दर्दभरी वाणि से नदी की बाढ़
की आँखों- देखी
सुनाई। नदी ने उन्हे बिलकुल
विवश बना दिया है। उनसे कुछ
देर बात कर के निकल पडे। जाते
समय हमारे टीम लीडर सर ने कैमरे
से बाबाजी का फोटो खींचा और
उन्हे दिखाया। उनके चेहरे पर
अपना फोटो देख के सरल मुस्कान
आयी। दु:ख
के समय में भी कुछ ना कुछ तरिके
से और किसी ना किसी रूप में
पॉजिटिव स्ट्रोक देना जरूरी
होता है।
|
विरान मकान |
गाँव
छोटा ही था। अगले गाँव जानेवाली
एक महिला भी हमारे साथ चलने
लगी। अर्पण के तीन महिला सदस्य-
तीन दीदीयाँ
हमारे साथ हैं। रास्ता गाँव
में से जा कर फिर नदी के पास आ
गया। जैसे ही हुड़की गाँव
समाप्त हुआ, रास्ता
नदी के बिलकुल करीब से जाने
लगा। गोरी गंगा का रौद्र ताण्डव
सामने ही हो रहा था। धीरे धीरे
सामान्य रास्ता एक कठिन चढा़ई
में रुपांतरित हो गया। अब तो
पैर रखना भी कठिन हुआ। स्थानीय
महिला मार्गदर्शिका बन गईं।
उनके पीछे पीछे जाने लगे।
रास्ता धीरे धीरे अंगडाई लेते
हुए नदी के ठीक उपर स्थित चढाई
से जाने लगा। गाँव की दीदी ने
सामने एक तेज बहता झरना दिखाया
और बताया की, हमें
उसे पार करना है! पर
यह भी बताया की, उस
पर अब पूलिया बन गईं है।
आसमान
में बादल है। मौसम बिल्कुल
गरम है। ठण्ड का नामोनिशान
तक नही। इससे थकान महसूस होने
लगी। रास्ता निरंतर बिकट होता
चला गया। तेज चढान के बाद थोडा
रूक कर चलने लगे। अब पैदल रास्ते
का जैसे घाट शुरू हुआ। वहाँ
रास्ता एक ईंट की पगडण्डी में
रुपांतरित हुआ और यह ईंट का
मार्ग ठीक नदी के उपर से और
पहाड़ के बीच से गुजर रहा है!
यहाँ पर
काफी डर लगने लगा। साथी हौसला
बढा रहे थे। थकान भी हो रही
थी। कुछ देर सामान भी एक दीदी
ने ले लिया। स्थानीय लोग बडी
सरलता से जा रहे थे। मैत्री
टीम के लीडर सर तो १९७८ से
निरंतर पहाड में घूम रहे है।
उनके लिए भी कोई समस्या नही
है वरन् यह तो सरलतम ट्रैक है।
टीम के अन्य सदस्य मित्र को
भी समस्या नही है। समस्या है
तो सिर्फ एक ही व्यक्ति को.
. . पैदल घाट
के ‘टॉप’ के स्थान पर बैठ कर
गुजरना है। जैसे तैसे मित्र
का हाथ पकड़ते हुए उसमें से
गुजर गए। नीचे देखने पर इतना
डर लग रहा है कि वहाँ झाँकने
की हिम्मत ही नही बन रही है।
बीच
में रास्ता कुछ ठीक लगा। अब
वह झरना बिल्कुल सामने दिखाई
पड़ रहा है। कुछ पत्थरों से
रास्ता जाता है। जहाँ जहाँ
रुकने के लिए ‘सुरक्षित’ जमीं
मिली, वहाँ
कदम रूकते ही जा रहे है। अब
थकान वाकई अधिक हो रही है। नदी
की गर्जना अब थोडी कम हुई है-
नदी से थोडा
अन्दर की तरफ जो आए है। पर अब
सामने डरावना झरना या युँ
कहिए- पहाडी़
प्रपात है। अब इसे पार करना
है। जैसा स्थानीय महिला ने
बताया था, उस
पर एक पुलिया भी है। हाँ,
है तो जरूर।
पर वह मात्र दो लकडियोँ की ही
बनी है। उस पर और कुछ भी नही
है। लेकिन सभी लोग जा रहे है,
डर मात्र
एक व्यक्ति को ही है. . .
कुछ
देर विश्राम किया और आगे बढे।
थकान देख कर अर्पण की दीदी ने
बॅग उठा ली। मन तो मना कर रहा
था, पर
शरीर ने एक न सुनी। पर्वत से
आ रहे ठण्डे पानी की धारा से
ताज़गी प्राप्त करने की कोशिश
की और चलें। अब वह लकडी़ की
पुलिया. . . स्थानीय
लोग और अर्पण की के दीदी-
लोग भी चले
गए। मैत्री के सदस्य मित्र
को भी कोई दिक्कत नही आईं।
उन्हे डर नही लगा, हालाँकि
वे बैठ कर उसे पार कर गए। अब
इस थके शरीर और डरे मन की बारी
है। लकडी की बेचारी पूलिया
के पास आ कर पैर थम गए। चलना
मुश्किल लग रहा था। पानी के
उपर से मुश्किल से पाँच कदम
चलने थे। लेकिन पानी का बहाव
और रौद्र रूप ऐसा था कि कदम उठ
ही नही रहे थे। और बैठ कर जाना
भी मुश्किल लगा। अर्पण संस्था
की एक दीदी सहायता के लिए वापिस
इस तरफ आयी और उन्होने हाथ का
सहारा दिया। उनके हाथ के सहारे
से मन ने डर को मात दी। आँखों
ने अपना देखने का काम रोक दिया।
फिर पैर पाँच कदम चल ही गए।
जैसे ही लकडी़ की पुलिया पार
हुईं, काफी
राहत मिली। ऐसे ही स्थानों
पर धरती मैया की कृपा का अनुभव
होता है. . .
|
"कोई दिक्कत नही, अब तो पूल भी है!" |
जैसे
ही यह पानी का बहाव पार किया,
मुन्सियारी
तहसील शुरू हुई। पर इस समय उस
बात का बिल्कुल बोध नही है।
और किसी बात का भी बोध नही है।
फोटो खींचने तक की फुर्सत नही
है। आगे रास्ता चढाई वाला ही
है। पर इतना ‘खतरनाक’ नही है।
वैसे, यह
‘सुरक्षित’ तथा ‘खतरनाक’
अवधारणाएँ काफी व्यक्ति
सापेक्ष है। जो किसी के लिए
अति सरल हो, वह
किसी के लिए ‘खतरनाक’ है.
. .
स्थानीय
महिला रास्ता बताती गईं और
आगे चलते गए। थकान बहुत ज्यादा
हो रही है। वह महिला बता रही
है कि उनकी सांत बेटियाँ हैं।
बेटा एक भी नही है, इसका
उन्हे दुख था। अर्पण के दीदी
लोग उन्हे समझा रहे थे की,
बेटी भी
बेटे जैसे ही तो होती है। पैर
थकते भी गए और चलते भी गए। वह
महिला नदी को अर्थात् पानी
को कोस रही थी। पानी ही सब
मुसीबत की जड़ है, ऐसा
उनका कहना था। बातचीत से यह
भी पता चला कि, जहाँ
खाली हाथ चलना अति कठिन लग रहा
है, वहाँ
घरूडी़ और आगे के गाँवों के
लोग पच्चीस किलो- तीस
किलो सामान पीठ पर लाद कर ले
जाते हैं.....
आखिर
कर करीब दोपहर के एक बजे घरूडी़
ग्राम आ गया। गाँव में बीस के
करीब घर है। बीच बीच में खेती
भी है। लोगभाग भी आ- जा
रहे है। नदी समीप ही है। उसकी
गर्जना निरंतर जारी है। गोरी
गंगा नाम की इस नदी के कारण मन
बार बार कह रहा है ‘गोरी तेरा
गाँव बडा प्यारा, मै
तो गया मारा, आ
के यहाँ रे. . .’
मार्गदर्शक
महिला के घर में पानी पी कर
आगे निकल पडें। घरूडी में
अर्पण के दीदी लोगों ने बात
करी है। वहीं मीटिंग करनी है।
ग्रामीण आ भी गए हैं। अर्थात्
पहुँचने पर पहले थोडा विश्राम
और भोजन हुआ। यहीं गाँव के
लोगों के साथ बातचीत हुई। गाँव
में पहले लोहे की पूलिया थी।
वह गाँव के करीब से होते हुए
सीधा जौलजिबी- मुन्सियारी
सड़क से जुडी थी। लेकिन अब वह
रास्ता बन्द होने से यहाँ
हुड़की के मुकाबले दिक्कत
ज्यादा है।
लोग
नदी के उपर रस्सी से सामान की
आवाजाही करने की चेष्टा भी
कर रहे हैं। पर अभी तक सफल नही
हुए है। और जाहीर है, पानी
से नुकसान भी बडा हुआ है। नदी
के तट के पास होनेवाले मकान
टूट गए हैं। खेती को भारी क्षति
पहुँची है। गाँव पर हम लोगों
के खाने का बोझ न हो इसलिए हमने
साथ में मैगी रखी थी। यहाँ पर
राशन की कमीं तो है, पर
कुछ दिनों का राशन है। गाँव
में ही अनाज और चांवल होता
हैं। कुछ इकठ्ठा कर के भी रखते
हैं। बीच बीच में लोग जान पर
खेल कर राशन ला भी रहे है। यहीं
से कुछ किलोमीटर दूर बंगापानी
में हेलिकॉप्टर के जरिए राशन
दिया जा रहा है, ऐसा
सुनायी दिया। रस्सी से सामग्री
लाने के विकल्प पर भी काफी
चर्चा हुईं। ग्रामीणों ने
उनके द्वारा किए गए प्रयासों
की जानकारी दी। नदी के पात्र
का विस्तार करीब १४० मीटर है।
पार जाने के लिए लोहे की रस्सी
चाहिए, पर
वह सामग्री के घर्षण से गर्म
हो जाएगी। अभी इसका कोई समाधान
नही निकलता दिखाई दे रहा
हैं।
लोगों
से बातचीत खतम होने के बाद
अगले गाँव में जाने के लिए टीम
लीडर और अन्य लोग निकले। मन
कितना भी करें, शरीर
थक गया है। सर ने भी कहा,
की थकान के
कारण एक व्यक्ति की वजह से सभी
लोगों को धीरे जाना होगा,
इसलिए आराम
ही करो। मन विरोध कर रहा है,
पर शरीर में
थकान काफी है। और भोजन करने
के बाद भी चलने की स्थिति महसूस
नही हो रही है। उत्तराखण्ड
आने के पहले कुछ सायकलिंग के
द्वारा थोडा अभ्यास किया है,
पर वह पर्याप्त
साबित नही हो रहा है। और इस
तरह के पहाडी़ ट्रैकिंग के
लिए थोडा़ अभ्यास बिलकुल भी
मददगार नही है। हिमालय में
शायद पहली बार आनेवाले मेरे
मित्र भी इतनी तकलीफ महसूस
नही कर रहे हैं, क्यों
कि उन्हे ट्रैकिंग का काफी
अच्छा अनुभव है, चाहे
महाराष्ट्र का भी क्यों न हो।
इसलिए उनका शरीर और मन भी उसके
लिए अभ्यस्त है। शरीर के साथ
मन का भी अभ्यास जरूरी है। और
मात्र श्रम नही, खतरे
को भी अभ्यस्त होना जरूरी है।
यदि कभी भी आपने जोखिम ले कर
यात्रा न की हो, कभी
किसी खाई के किनारे से न चले
हो, तो
आपकी आँखें और आपका अपना मन
भी दिक्कतें खडी कर देगा.
. .
थकान
इतनी अधिक है कि, ठीक
से आराम भी न हो पा रहा है।
बुद्धि ने समझाने पर भी मन
स्वयं को कोस रहा है। पीडितों
की सेवा करने के लिए आने पर भी
हालत यह बनी। लोगों को सामान
उठा कर मदद करनी पड रही है।
घरूडी गाँव के बिलकुल सामने
पक्की सड़क दिखाई दे रही हैं।
वाहन भी दिख रहे हैं। पर बीच
में १४० मीटर चौडी प्रलंयकारी
गोरी गंगा भी है. . . मन
खुद को कोसता ही गया। साथ ही
मीडिया से प्राप्त सूचनाएँ
और धरातल की दास्ताँ के बीच
की दूरी भी स्पष्ट होती गईं।
यहाँ सब कुछ अलग हैं। लोग भी
बडे अलग हैं। इतनी बडी आपदा
के बाद भी माहौल सामान्य सा
ही था। कहीं कोई निराशा नही,
रोना-
धोना नही।
लोग मुसीबत में तो हैं,
पर खाली
बैठे बिल्कुल नही हैं। स्वयं
कडी मेहनत कर रहें है। वह लकडी
की पुलिया- वह
पुलिया घरूडी़ के ग्रामीणों
ने ही तो बनायीं है और वे ही
उसका रखरखाव कर रहे हैं। पूरे
पैदल रास्ते की निगरानी कर
रहे हैं। उनका हौसला बुलन्द
हैं। बच्चे स्कूल में जा रहे
हैं, अध्यापक
भी आ रहे हैं।
|
हरे भरे इस खेत में बडी़ पीडा छिपी है. . . |
विश्राम
के पश्चात् जिनके घर रुकना
हुआ है उनसे बातचीत की। एक बार
गाँव का चक्कर लगाया। गाँव
में काफी क्षेत्र प्रभावित
हैं। खास कर नदी के तट के पास
रहनेवाले लोग। और ऐसे लोग
हमेशा तथाकथित निम्न जाति के
होते हैं। यहीं भी वही हाल है।
जो खा- पी
कर ठीक निर्वाह करनेवाले लोग
हैं, उनकी
बात तो ठीक है। पर जिनका घर या
खेत नही हैं, उनका
हाल बुरा हैं। ऐसे ही परिवारों
की पहचान करने के लिए गाँवों
में यह असेसमेंट की जा रही थी।
यहीं पर कल दो डॉक्टर स्वास्थ्य
शिविर लेंगे। आगे गए साथी
मनकोट ग्राम में भी असेसमेंट
करेंगे और डॉक्टरों के आने
की खबर करेंगे।
जिनके
घर रुका था, उन्होने-
पुष्करजी
ने- गाँव
के बारे में काफी जानकारी दी।
यहाँ का समाज मूल रूप से रजपूत
है। और ये वो लोग है, जो
जोहार के पश्चात् राजस्थान
से पलायन कर देश के दूसरे
हिस्सों में बसें थे। बाद में
पता चला कि, ये
ठीक रजपूत तो नही है, पर
उनसे जुडे समाज है जो जोहार
के पश्चात् रजपूत परिवारों
के साथ सुरक्षित स्थान की खोज
में दूर दूर तक बिखर गए हैं।
एकदम दूरदराज हो कर भी हुड़की,
घरूडी़ जैसे
गाँव उतने पीछडे़ नही लग रहे
हैं। गाँव में लगभग हर घर में
शौचालय और स्नानगृह हैं। खाना
खाने के पहले भी लोग साबुन से
हाथ धोते हैं। लोगों को बाहरी
और शहरी दुनिया की अच्छी जानकारी
है। अपने भूगोल की भी अच्छी
जानकारी है। पुष्करजी ने काफी
कुछ पढा है। तिब्बत के बारे
में भी उनकी जानकारी अच्छी
है। उनके बोलने में चीन का
प्रभाव भी महसूस हुआ। चीन का
डर कुछ स्तर तक लोगों के बोलने
में आ रहा है। बातचीत में यह
भी पता करने की कोशिश की की,
यहाँ से
जाने के लिए क्या दूसरा रास्ता
भी है? पता
चला की रास्ता है। एक रास्ता
यहाँ से सीधा डीडीहाट निकलता
है। पर उसके लिए मात्र दो दिन
सीधे पहाड़ और जंगल के बीच
चलना पडेगा। रास्ता बिलकुल
सुनसान है और रास्ते में मात्र
एक वन विभाग का कार्यालय है।
और कोई भी समस्या नही है.
. .
. . . ग्रामीण
बार बार यहीं कह रहे है,
कि एक बार
पार रास्ता बन जाए, हम
अपनी व्यवस्था स्वयं कर लेंगे।
नदी पर रास्ता बन पाना,
यही बडी
दिक्कत है। यहाँ के टूटी पुलिया
का मूल्यांकन किया गया है और
प्रशासन ने नई पुलिया बनाने
के लिए सहमती भी दी है,
पर जाहिर
है; उसे
काफी समय लगेगा। तब तक ग्रामीणों
को जान पर खेल दुर्गम राह से
राशन ढोना पडेगा। तब तक यातायात
बुरी तरह प्रभावित रहेगा। और
वाहन तो वैसे भी यहाँ पर आता
ही नही है। क्यों कि वह लोहे
की पुलिया पैदल ही थी। और लोगों
को भी वाहन की कमीं बिलकुल
खलती नहीं है। बस यातायात जारी
रहें, यही
उनकी इच्छा है। और जहाँ से भी
मदद मिले, राहत
मिले, मिलती
रहें। यहाँ राशन बाँटने में
भी बहुत दिक्कत आनेवाली है।
क्यों कि पचास किलो के पैकेट
यहाँ पर लाना बिल्कुल भी आसान
नही रहेगा. . .
धीरे
धीरे शाम हुईं। आगे गए सदस्य
लौटे नहीं। पहाड़ के बीचोबीच
दिए लग गए। पर उन्हे देर हो
रही है। रात होने पर भी वे
रास्ते में ही हैं। तब लालटेन
ले कर दो जन निकले- उन्हे
रास्ता दिखाने के लिए। फिर
लगभग साडे आठ बजे अन्धेरे में
सब लौटे। रास्ता आगे भी कठिन
था और उन्हे भी बहुत थकान हुईं।
मित्र मिलने पर कुछ सुकून
मिला। उन्होने मनकोट की स्थिति
बतायीं। वह भी ऐसे ही कटा है।
रास्ता और दिक्कत का है। वहाँ
भी क्षति हुईं है। उन्हे कुछ
रुग्ण भी मिले। वहाँ की राशन
की आवश्यकताओं का आंकलन किया।
नदी पर रस्सी द्वारा राशन लाने
का विकल्प भी जाँचा। मेरे
मित्र ने बताया कि, वहाँ
एक जगह रस्सी लग भी गईं है और
उसमें से एक आदमी भी पार गया।
गाँव
के संयुक्त परिवार में खाने
का आनन्द और ही था। पर एक तरफ
मन भी स्वयं को कोस रहा था-
तू मदद करने
के लिए आया है, तुझे
ही मदद करनी पडे, यह
दुर्दशा है। खैर, वह
दिन बित गया। मेरे एक मित्र
नीरज जी ने उनके ब्लॉग पर
उत्तराखण्ड के बारे में कहा
है, कि
जब कोई बीमार होता है,
तो उसे मदद
तो की जानी चाहिए ही, पर
उसको देखने भी जाना चाहिए।
दवा के साथ दुआं भी आवश्यक
होती है। शायद यही हमारा काम
है। त्रासदी इतनी बडी है,
आपदा इतनी
व्यापक है, कि
उसमें लोगों को सहायता करना
शायद ही किसी के बस में होगा।
हम एक ही काम कर सकते है-
लोगों के
पास जा कर उनका थोडा सा साथ दे
सकते हैं। बस प्रतिक के तौर
पर कुछ सहायता कर सकते हैं.
. .
मन
में इतनी भीषण स्थिति देखने
के बावजूद स्वार्थ नही जा रहा
है- कल
इसी रास्ते (?) से
वापस भी लौटना है। स्वार्थी
मन यहीं कह रहा था कि कहाँ फंस
गए। मुश्किल से उसे समझाना
पड रहा था कि, तू
अकेला नही है। तेरे साथ इतने
दृढविश्वासवाले लोग हैं,
मित्र हैं।
ग्रामीण भी नैय्या ‘पार कराने
का’ भरोसा दिला रहे हैं।
क्रमश: