shabd-logo

चेतावनी प्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ६

10 अक्टूबर 2016

301 बार देखा गया 301
featured image

शब्दनगरी के सभी मान्यवरों को प्रणाम! २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव आज भी

प्रासंगिक हैं| उन अनुभवों को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ| धन्यवाद|


चेतावनीप्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव१

चेतावनीप्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव२

चेतावनीप्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव३

चेतावनीप्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव४

चेतावनीप्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव

चेतावनी प्रकृति की:


. . . १ अगस्त की रात मैत्री और अर्पण की टीम खेल ा और गरगुवा गाँवों में रूकी हैं। गरगुवा में रात को मीटिंग हुई, उसमें काफी बातें चर्चा में आयीं। गाँव की राजनीति भी देखने में आई। लोग खुद ज्यादा श्रम किए बिना गाँव में सब सामान लाना चाहते हैं। यह मानवी स्वभाव है। इस गाँव का भी असेसमेंट किया जा रहा है और फिर सब मिल के तय करेंगे कि यहाँ क्या करना है। डॉक्टर लोग तो कल यहाँ आ ही जाएंगे। उसके अलावा अन्य सहायता के बारे में भी सोचना है। हेलिकॉप्टर का विकल्प इतना सम्भव नही लगता। उसमें सामग्री के भार की सीमा भी बहुत कम है। जो हेलिकॉप्टर्स आपदा प्रभावित इलाकों में कार्यरत हैं, वे एक बार में लगभग ५ क्विंटल याने ५०० किलोग्रॅम राशन ही ला सकते हैं। जब की योजना ऐसे गाँव के हर जरूरतमंद परिवार को करीब ३० किलोग्रॅम की बोरी देने की है। ऐसे में हेलिकॉप्टर भी बौना साबित होगा। शायद सबसे बेहतर विकल्प यही होगा कि सामग्री को तवा घाट या उसके पहले जहाँ तक सडक बनती है- एलागाड़- में लाया जाए और उसके पश्चात् ग्रामीण उसे स्वयं ले आए। क्यों कि नीचे से उपर सामग्री लाने के लिए मजदूर लगेंगे और आपात्काल की स्थिति में उनके दाम भी बहुत बढे हैं।


टीम के कार्य के सम्बन्ध में भी सर ने कहा कि अब जल्द ही पुणे से ट्रक द्वारा भेजी गयी राहत सामग्री रुद्रपूर पहुँचेगा। १३ टन से अधिक सब तरह की सामग्री आ रही है। पुणे से आ रहा ट्रक उस सामग्री को रूद्रपूर के आगे नही ला सकता है। इसलिए या तो दो लोगों को रूद्रपूर जा कर नए ट्रक में उसे लाद कर लाना पडे़गा या फिर किसी तरह दूसरी किसी एजन्सी को वह काम सौंपना पडे़गा। सर इसके सम्बन्ध में हर विकल्प पर विचार कर रहे हैं। वे चाहते है कि किसी प्रकार कोई ट्रक की एजन्सी उसे वहीं से उठाएं और पिथौरागढ़ या अस्कोट तक ले आए; इससे दो व्हॉलंटीअर्स का समय अन्य अधिक आवश्यक कार्य में लगाया जा सकेगा। अभी तय नही हो पा रहा है। सर ने यह भी कहा कि वे टीम की आवश्यकता और हर सदस्य की क्षमता के अनुसार हर एक सदस्य या समूह को काम देने का प्रयास कर रहे हैं। और अब तक वे निश्चित ही हर एक की क्षमता और कौन कहाँ सही होगा यह समझ गए हैं। इसीलिए उन्होने मुझे उनके साथ वापस चलने के लिए कहा है। बाकी सदस्य आगे के गाँवों में शिविर और अन्य सहायता के लिए जाएँगे। मै, सर और अर्पण के दीदी लोग गरगुवा से वापस अस्कोट- हेल्पिया के बेस कँप पर जाएंगे और आनेवाली सामग्री के लिए स्टोअर की व्यवस्था करेंगे। और भी इस तरह के दूसरे तकनिकी काम है। मन में प्रतिक्रिया आयी कि एक तरह से यह पहाड़ से पीछे लौटना है। हाँ है। पर क्या करे, जब शरीर और फिटनेस इतना अच्छा न हो। और आगे डॉक्टर जहाँ जाएंगे वहाँ और भी चढाईभरा रास्ता है। सीधा चढते जाना होगा। जा तो मै भी सकूँगा; पर उसमें समय लगेगा; दिक्कत आएगी। इसके बजाय दूसरा काम करना अधिक बेहतर हो सकता है। स्टोअर की भी तैयारी करनी है। वहाँ और कुछ सामग्री खरीदनी है। उस तरह के काम है। और सर के साथ भी कोई होना चाहिए। इस प्रकार काम का बंटवारा हुआ।


. . . जैसे रात ढली और सूरज के किरणों का आगमन हुआ, बरसात अपने आप रूक गई। उसका समय का अनुपालन वाकई अद्भुत है। सर ने कहाँ भी कि बारीश हमारा पुरजोर साथ दे रही है। अब यहाँ से पहले खेला में जाना है। फिर वहाँ से नीचे उतर कर धारचुला जाएंगे। दो साथी भी धारचुला तक वापस आएंगे; क्यों कि डॉक्टरों के पास दवाईयाँ कम बची है। तो धारचुला से दवाईयाँ खरीद कर वे दोनो वापस जाएँगे। डॉक्टर लोग और उनके साथ और दो साथी आज खेला में शिविर लेंगे और फिर जैसे सम्भव होता है अगले गाँव जाएंगे।


गरगुवा से खेला का रास्ता अब बिलकुल सरल लग रहा है। दो दिन पहले तक डरावना लगनेवाला दृश्य अब इतना सामान्य सा प्रतीत हो रहा है; आँखे और मन उसके आदि हो गए हैं। अब तक कहीं भी उतनी ठण्ड नही लगी थी। लेकिन यहाँ खेला- गरगुवा के पास ठण्ड जरूर लगी। ऊँचाई भी दो हजार मीटर से अधिक है। रास्ते में ही खेला से निकले साथी मिल गए। बातचीत हो गई। उनको गरगुवा का रास्ता समझा दिया। यहाँ पहाड़ में कई सारे पैदल रास्ते हैं। इसलिए ठीक से रास्ता बताना जरूरी है। ऐसे रास्ते में अधिक लोग भी नही आते- जाते दिखाई पडते हैं। यदा कदा कोई आता है और जाता है। वाकई यह दुनिया शहर की दुनिया से और ज्ञात विश्व से काफी अलग है. . .

खेला में थोडी देर रूके। यह गाँव बडा़ न होने पर भी बडा़ ही है। इसकी पुष्टि एक पोस्टर ने की। गाँव में कोई स्पर्धा का आयोजन था। उसकी खबर देनेवाला यह पोस्टर- उसमें सहभागिता शुल्क तो है हि, इनाम राशी कई हजारों में है। और इस गाँव में इंटर कॉलेज होना भी सूचक है। खेला में जानकारी से काफी अधिक परिवार थे; इसलिए यहाँ डॉक्टरों की दवाईयाँ भी अधिक इस्तेमाल हुईं। इसके आगे खेत जैसे गाँवों में भी घरों का नुकसान हुआ है। खेला में सर ने सॅटेलाईट (नेपाली सिम के) फोन से पुणे सम्पर्क करने का प्रयास किया। लेकिन सम्पर्क नही हो पाया।


खेला से लौटते समय एक अलग रास्ता लिया। आते समय तवा घाट से सीधे दो- ढाई घण्टा उपर चढ के आए थे। अब का रास्ता तिरछा है। तिरछा वैसे कहने को है; बीच बीच में चढाई और उतराई है हि। खेला के ही एक ग्रामीण युवक- वीरेन्द्र जी साथ में थे। उनसे दोस्ती कर ली। जब भी रास्ते में दिक्कत हुईं; फिसलन के आसार लगे; उनकी सहायता ली। उन्होने बताया इस परिसर में छिपला केदार यात्रा होती है। तब यहा बहुत यात्री आते है। उन्होने यहाँ की पंचायत संरचना समझायी। यहा पंचायत राज में कुछ परिवर्तन है। ग्राम पंचायत के साथ एक न्याय पंचायत स्तर भी होता है। उन्होने बताया कि धारचुला में ५६ ग्रामसभाएँ है। उन्होने पहाड़ के बीच नारायण आश्रम जानेवाली सडक भी बतायी। डॉक्टर और उनके साथी नारायण आश्रम जाएँगे। एक बार इस वजह से जलन जरूर हुई। पर अब जो है, वह है! एक बात तो स्पष्ट है। अगर ऐसे पहाडी रास्तों पर हंसते हुए चलना है, तो उसके लिए कडी मेहनत पहले से आवश्यक है। फिटनेस अच्छा या बहुत अच्छा होना चाहिए। ऐसे ‘डरावने’ (जो वस्तुत: बहुत सापेक्ष शब्द है!) रास्तों से भी अच्छा परिचय या कहिए मुठभेड पहले से होनी चाहिए। लौटते समय मन में यही ख्याल है।


खेला से नीचे जानेवाली यह बिलखाती राह तिरछी नीचे उतरती है। और अब वह तवा घाट नही जा रही है। अब वह एलागाड़ (झिरो पॉइंट) जाएगी! इसका एक अर्थ यह हुआ की शायद वह अधिक लम्बी है। दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि तवा घाट आने के ठीक पूर्व सडक छोड कर हम जहाँ पैदल आए थे, उस खण्ड का हिस्सा छूट जाएगा। अर्थात् अब मात्र दो खण्डों पर पैदल चलना होगा। और यह भी लग रहा है कि शायद बी.आर.. वालों ने एलागाड तक भी सड़क बना ली हो। हो सकता है। नीचे जाने पर पता चलेगा। रास्ता जैसे जैसे नीचे आता गया, वैसे ढलान बढी और बीच बीच में संकरा भी होता गया। उपर से पहाड़ से बहनेवाले मनमौजी प्रपात! और यह रास्ता ऐसा है कि १०० किलोमीटर की रफ्तार से ड्रायव्हिंग करते समय जितना ध्यान सड़क पर देना पडता है, बिलकुल उतना ध्यान यहाँ हर कदम पर देना पडता है! रास्ता निरंतर अंगडाई लेता रहता है। सजग हो कर ही चलना पडता है। खाई का एक्स्पोजर भी पास ही है। लेकिन यह रास्ता पार होता गया। नीचे पक्की सड़क भी दिखने लगी और हौसला बढाने लगी। उतरते समय मन में एक ही ख्याल है- जो साथी दवाईयाँ ले कर वापस उपर जाएंगे, उनका हश्र क्या होगा. . .


कुछ दिक्कत के बाद उतर गए और सड़क पर जीप मिल गई। इस बार दाम थोडा़ अधिक लगाया। पर उतना तो चलेगा ही। ऐसे विखण्डित मार्ग पर वे यातायात सेवा जो दे रहे हैं! थोडी़ ही देर में जीप रूकी। अब वापस वही मैत्री- गिरीप्रेमी संस्था की पुलिया। उस पर जल प्रपात से ठण्डे पानी की छिंटे और तेज हवा आ रही हैं! उसे तो आसानी से पार कर लिया। लेकिन आगे एक जगह पर एक सूक्ष्म रॉक क्लाइंबिंग है। कल आते समय तो इससे आसानी से उतरना हुआ; पर अब चढना कठिन है। लेकिन फिर वीरेन्द्र जी ने हाथ दिया और जैसे तैसे उसे भी पार किया। मामुली खरोंच आयी। शरीर और मन को ऐसी राहों के लिए आदि बनाना है. . . जीप के बाद फिर थोडी पैदल यात्रा। यहाँ बी. आर. . ने ब्रिज बनाया है। थोडी देर उसके लिए रूकना पडा। अन्जाने में मन अब भी अपने को कोस रहा है।


यहीं पता चला कि तवा घाट के संगम पर जो बडा पूल था, वह नदी ने यहीं कही ला कर पटक दिया है! एक जगह उस पूल के कुछ अवशेष दिखायी भी दिए। यहाँ से धारचुला तक या फिर यहाँ से जौलजिबी तक बीच बीच में रास्ता वाकई जोखीमभरा है। क्योंकि कई जगह उसके उपर टूटे पहाड़ के हिस्से है। रास्ता बनाते समय उन्हे तोड़ कर ही तो रास्ता बनाया गया है। उनका डर है और फिर कुछ जगह पर रास्ते के नीचे का बेस टूट चूका है। युँ कहिए कि कुछ स्थानों पर रास्ता बिलकुल खोखला भी है। ट्रकवाले और अन्य लोग भी उसे देख कर अनदेखा करते हैं! शायद इसी वजह से दिल्ली- धारचुला बस अभी भी धारचुला के बजाय बलुवाकोट से ही लौट रही है। खैर।

देर सबेर दूसरी जीप ले कर धारचुला पहुँच गए। दवाईयों का एक बार सॉर्टिंग किया। डॉक्टरों ने सूचि बनायी है। उसके अनुसार अब सरकारी अस्पताल से दवाईयाँ लेनी हैं। इसी बीच कुछ साथी धारचुला आपदाग्रस्त शिविर भी गए और वहाँ कुछ कपडे बांट आए। वहाँ सप्ताह में एक दिन बच्चों के लिए दूध, हरी सब्जी, सोबायीन आदि भी देना है। बजार में जो उपलब्ध होगा वही देना पडेगा। और जो उपलब्ध नही है, उसे खरीदना है। अब अस्कोट में जा कर वही सब देखना पडेगा। धारचुला पहुँचने पर बीएसएनएल के फोन भी शुरू हुए। सबके घर पर बात हो गयी। एक साथी के परिवारवाले सम्पर्क न होने के कारण थोडे चिंतित थे; उनसे भी बात की गई। धारचुला में दवाईयों के साथ साथीयों के लिए कपडे और कुछ जरूरी सामान भी लिया गया। जाते समय उन्हे पता न था कि इतने दिन वहीं रूकना पडेगा। दवाईयाँ लेते लेते शाम हो गई। इसलिए अब वे दो साथी आज धारचुला में ही रहेंगे। क्यों कि अब वापस जाना और चढ पाना आज सम्भव नही है। वे आज विश्राम करेंगे और कल सुबह जल्दी निकलेंगे। बार बार मन उनके लिए चिंतित हो रहा है- कैसे वह इतनी चढाई चढेंगे और वह भी सामग्री ले कर?? और उनका आगे का रास्ता- खेला से पांगला, नारायण आश्रम और पांगू भी पूरा चढाई का ही है. . .


. . .शाम आते आते बाकी हम लोग धारचुला से निकल लिए। अब बस हेल्पिया पहुँचना है। रास्ते में भी सर काफी काम फोन से कर रहे हैं। ट्रक को आगे लाने के लिए बात कर रहे हैं। राशन, अनाज और अन्य सामग्री सस्ते में कहाँ मिल सकती है, इसकी भी पूछताछ चल रही हैं। सामान के स्टोअर के बारे में भी बात हो रही है। और इतने काम को आगे ले जाने के लिए धन की आवश्यकता है। तो बैंक में खाता खोला है; पर अभी तक उन्होने चेक बूक नही दिया; कह रहे हैं कि सर्वर डाउन है। तो यह सब चल रहा हैं। हर कोई अपने सम्पर्क सूत्र प्रयोग कर अपना हिस्सा काम में ले रहा हैं। देखने में आया कि इस काम में कई अलग लोग भी जुड गए है। जैसे जीप के चालक नारायण जी- वे अर्पण संस्था के नही हैं। फिर भी सब तरह के कामों में स्वेच्छा से सहयोग ले रहे हैं। ऐसा लग ही नही रहा है कि वे ‘बाहर’ के है। अब तो सब मिल कर एक ही टीम के हैं। तनिक भी भेद नही। और हर कोई अपने लेवल पर कार्यरत है।


आते समय नया बस्ती में अर्पण की दीदी लोगों ने कुछ साडियाँ बाँटी। उनकी सब जगह- यहाँ भी- अच्छी पहचान है। आगे के काम के बारे में सर काफी बातें समझा रहे हैं- जैसे कपडे बाँटना; चिकित्सा शिविर लेना; सहायता देना- ये बिलकुल उपरी कार्य है। वास्तविक महत्त्व का कार्य तो उससे अलग है। उन्होने बताया कि अब नदियाँ अपना मार्ग बदल रही हैं और सीधा प्रवाहित होने जा रही हैं। पहाड़ में अत्यधिक टूट फूट से काफी क्षेत्र असंरक्षित हो गया है। इसका जिओलॉजिकल तरिके से सर्वेक्षण होना चाहिए; उसके आधार पर कहाँ कहाँ बस्ती हो और कहाँ न हो; इसके लिए ले आउट बनाने चाहिए। सरकार से पैरवी की जानी चाहिए। अब धीरे धीरे राहत कार्य के अगले चरण भी शुरू होंगे।


इन बातों के साथ काफी मिठी नोक-झोंक भी हो रही हैं! सर का तजुर्बा और हैसियत इतनी बडी होने के बावजूद भी वे एक दोस्त जैसे सबके साथ मजाक कर रहे हैं! आयु का भेद बिलकुल भी नही! कार्य के साथ हंसी मजाक भी चल ही रहा हैं! ऐसे समय सफर कितना भी हो; छोटा लगता है।


जौलजिबी के आगे एक मोड कर कुछ वाहन खडे हैं। उतर कर देखा तो गड्ढे में एक ट्रक गिरी है। सामान्य से मोड पर दो लोग अपनी जान गंवा बैठे। शायद उसके पहले वे अपना होश शराब को गंवा बैठे होंगे। सफर आगे चलता जाता है। रूकना नही है। हेल्पिया पहुँचने तक रात हो गई। वहाँ पहुँचने पर अर्पण साथी और यहाँ तक कुतिया सीरो ने भी मुस्कान से स्वागत किया। अब कल से इस कार्य के दूसरे पहलू सामने आएंगे।


article-image

गरगुवा से खेला जाने का पैदल रास्ता!

article-image


article-image

article-image

ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर. . .

article-image

जीवन की धारा अनिवार्य रूप से मृत्यू अर्थात् उसका दूसरा छोर लाती है










article-image

धारचुला में आखिरकर तिब्बत दूर न होने का एहसास देनेवाला कुछ दिख ही गया। एक होटल भी तिब्बती दिखा।



article-image

दो बार विस्थापित हुए नया बस्ती गाँव का एक घर. . . . नदी पीछे ही है. . .


article-image


क्रमश:




निरंजन की अन्य किताबें

1

प्रकृति, पर्यावरण और हम: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा

23 मई 2016
0
2
0

p { margin-bottom: 0.25cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 10); line-height: 120%; text-align: left; }p.western { font-family: "Liberation Serif","Times New Roman",serif; font-size: 12pt; }p.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12pt; }p.ctl { font-family: "Lohit Marathi"

2

फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग

27 मई 2016
0
2
0

कई बार हम कहते हैं कि अकेला इन्सान क्या कर सकता है? जो कुछ भी परिवर्तन करना हो, वह 'अकेला' कर ही नही सकता है, यह काम तो सरकार का है; यह हमारी बहुत गहरी धारणा है| लेकिन जिन लोगों को उनकी क्षमता का एहसास होता है, वे अकेले ही बहुत कुछ कर सकते हैं| उनकी पहल शुरू तो अकेले होती है, लेकिन धीरे धीरे बड़ा क़ाफ

3

प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!

31 मई 2016
0
3
0

कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!एक बार एक सज्जन पहाडों में चढाई कर रहे थे| उनके पास उनका भारी थैला था| थके माँदे बड़ी मुश्किल से एक एक कदम चढ रहे थे| तभी उनके पास से एक छोटी लड़की गुजरी| उसने अपने छोटे भाई को कन्धे पर उठाया था और बड़ी सरलता से आगे बढ़ रही थी| इन सज्जन को बहुत आश्चर्य हुआ| कैसे यह लड़की भाई का ब

4

प्रकृति, पर्यावरण और हम ८: इस्राएल का जल- संवर्धन

6 जून 2016
0
0
0

इस्राएल! एक छोटासा लेकिन बहुत विशिष्ट देश! दुनिया के सबसे खास देशों में से एक! इस्राएल के जल संवर्धन की चर्चा करने के पहले इस्राएल देश को समझना होगा| पूरी दुनिया में फैले यहुदियों का यह देश है| एक जमाने में अमरिका से ले कर युरोप- एशिया तक यहुदी फैले थे और स्थानिय लोग उन्हे अक्सर 'बिना देश का समाज' क

5

दुनिया के प्रमुख देशों में पर्यावरण की स्थिति

13 जून 2016
0
0
0

इस्राएल की बात हमने पीछले लेख में की| इस्राएल जल संवर्धन का रोल मॉडेल हो चुका है| दुनिया में अन्य ऐसे कुछ देश है| जो देश पर्यावरण के सम्बन्ध में दुनिया के मुख्य देश हैं, उनके बारे में बात करते हैं| एनवायरनमेंटल परफार्मंस इंडेक्स ने दुनिया के १८० देशों में पर्यावरण की स्थिति की रैंकिंग की है| देशों म

6

प्रकृति, पर्यावरण और हम: कुछ कड़वे प्रश्न और कुछ कड़वे उत्तर

28 जून 2016
0
0
0

पर्यावरण के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने कई पहलू देखे| वन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संवर्धन के कई प्रयासों पर संक्षेप में चर्चा भी की| कई व्यक्ति, गाँव तथा संस्थान इस दिशा में अच्छा कार्य कर रहे हैं| लेकिन जब हम इस सारे विषय को इकठ्ठा देखते हैं, तो हमारे सामने कई अप्रिय प्रश्न उपस्थित ह

7

इन्सान ही प्रश्न और इन्सान ही उत्तर

4 जुलाई 2016
0
3
0

उत्तराखण्ड में हो रही‌ तबाही २०१३ के प्रलय की याद दिला रही है| एक तरह से वही विपदा फिर आयी है| देखा जाए तो इसमें अप्रत्याशित कुछ भी नही है| जो हो रहा है, वह बिल्कुल साधारण नही है, लेकिन पीछले छह- सात सालों में निरंतर होता जा रहा है| हर बरसात के सीजन में लैंड स्लाईडस, बादल फटना, नदियों को बाढ और जान-

8

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव १

11 जुलाई 2016
0
1
0

शब्दनगरी के सभी मान्यवरों को प्रणाम! २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव आज भी प्रासंगिक हैं| उन अनुभवों को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ| धन्यवाद|

9

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव २

14 जुलाई 2016
0
0
0

td p { margin-bottom: 0cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); }td p.western { font-family: "Liberation Serif","Times New Roman",serif; font-size: 12pt; }td p.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12pt; }td p.ctl { font-family: "Lohit Marathi"; font-size: 12pt; }h3 { dire

10

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ३

19 जुलाई 2016
0
0
0

h3 { direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); }h3.western { font-family: "Liberation Sans","Arial",sans-serif; }h3.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; }h3.ctl { font-family: "Lohit Marathi"; }p { margin-bottom: 0.25cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); line-height: 120%; }p.western

11

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ४

25 सितम्बर 2016
0
1
0

td p { margin-bottom: 0cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); }td p.western { font-family: "Liberation Serif","Times New Roman",serif; font-size: 12pt; }td p.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12pt; }td p.ctl { font-family: "Lohit Marathi"; font-size: 12pt; }h3 { dire

12

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ५

28 सितम्बर 2016
0
0
0

td p { margin-bottom: 0cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); }td p.western { font-family: "Liberation Serif","Times New Roman",serif; font-size: 12pt; }td p.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12pt; }td p.ctl { font-family: "Lohit Marathi"; font-size: 12pt; }p { margi

13

चेतावनी प्रकृति की:२०१३की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ६

10 अक्टूबर 2016
0
0
0

td p { margin-bottom: 0cm; direction: ltr; color: rgb(0, 0, 0); }td p.western { font-family: "Liberation Serif","Times New Roman",serif; font-size: 12pt; }td p.cjk { font-family: "Arial Unicode MS",sans-serif; font-size: 12pt; }td p

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए