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चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव ४

25 सितम्बर 2016

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शब्दनगरी के सभी मान्यवरों को प्रणाम! २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव आज भी

प्रासंगिक हैं| उन अनुभवों को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ| धन्यवाद|

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव १

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव

चेतावनी प्रकृति की: २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के अनुभव



. . . चरमराती सामाजिक व्यवस्थाएँ और टूटता हुआ समाज. . . आज सभी जगह अशांति और अस्वस्थता जैसे आँख दिखा रही हैं। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। केवल आर्थिक, प्रशासनिक तथा राजकीय परिप्रेक्ष्य ही नही, बल्की सामाजिक रिश्ते भी टूट रहे हैं। सच बात यह है कि इन्सान स्वयं से दूर जा रहा है। इन सब अस्वस्थ करनेवाले हालातों के बीच उत्तराखण्ड कार्य के चौथे दिन के बारे में बात करते हैं।


३१ जुलाई के दिन धारचुला जाना है। दो दिन हुडकी, घरूडी और मनकोट जैसे गाँवों में काफी चलना पडा। हमारे सर की योजना हर दो दिनों बाद एक कम थकान वाला दिन हो, ऐसी है। इसलिए आज थोडी देर से निकलना है। और एक तरह से शारीरिक कार्य अधिक नही है। अनाज और राशन के दामों के बारे में निरंतर बातचीत चल रही है। अनाज और सब्जियों के दाम कुछ बढे हुए है। बैंक का खाता भी खोलना है। यह ‘मैत्री’ की ओर से सहायता करने आयी यह चौथी टीम है। आगे के दिनों का नियोजन भी है। इसलिए धन की आवश्यकता तो है हि। और यदि एटीएम काम नही कर रहे है, तो बैंक में खाता खोल कर वहाँ पैसे ट्रान्सफर किए जा सकते हैं। पर यह विकल्प भी उतना कारगर नही सिद्ध हो रहा है। अस्कोट में बैंक खाता खोलने में दिक्कत आयी। उनका सर्वर भी डाउन है। तो खाता सक्रिय होने में और वक़्त लगेगा।


अस्कोट से जौलजिबी तक पहुँचे। डॉक्टरों की टीम कल घरूडी़ रूकी। वहाँ उन्होने शिविर लिया। अब आज वे मनकोट जाएँगे। वहाँ शिविर ले कर उन्हे कई घण्टों का सफर कर वापस आना है। उन्हे आज भी आराम नही मिलेगा। जौलजिबी में गोरी गंगा एवम् काली गंगा का संगम होता है। जाहिर है, यहाँ भी तबाही हुई है। जौलजिबी वैसे थोडा़ बडा़ कस्बा है। यह पहले मानस सरोवर यात्रा का पहला पडा़व हुआ करता था। अब (या कहिए, इस साल की यात्रा रोकी जाने तक) धारचुला पहला मुख्य पडा़व है। जौलजिबी से जैसे ही आगे गए, रास्ते पर निर्वासित लोगों के टेंटस दिखे। वहाँ भी ‘अर्पण’ के दिदी लोगों के पहचान के लोग थे। बीच बीच में उनसे बात भी हुईं। उनकी जरूरतों का आंकलन भी किया गया। रोड की हालत बुरी है। दिल्ली धारचुला बस दिखी। धारचुला तक रास्ता खुल गया है। लेकिन तब भी वह बस धारचुला के कुछ पहले बलुआकोट तक ही जा रही है। जाहिर है, हालात अभी पूरे सामान्य नही बने हैं।


रास्ते में सर और अन्य साथीयों से बातचीत हुईं। ‘मैत्री’ की पहली टीम जब असेसमेंट के लिए आयी थी, तो उन्हे पूरा रास्ता चलना पडा़ था। क्यों कि तब यह रास्ता भी पूरा टूटा था। अब तो रास्ते बन रहे है और कुछ हद तक बन भी गए हैं। तब जौलजिबी के आगे पैदल ही जाना पडा था और वह रास्ता सामान्य बिलकुल भी नही था। नदी के उपर से और पहाड़ के बीच रेंगते हुए जानेवाला रास्ता। ऐसा रास्ता, जिसके बारे में हम शहर में सोच भी नही सकते हैं। ऐसे रास्तों पर चल कर पहली टीम ने सर्वेक्षण किया और काम शुरू किया। सर ने बताया कि उस समय का अनुभव और भी गहरा और विलक्षण था। अब तो रास्ते बन गए है। हालांकि धारचुला से आगे दोबाट से सडक टूटी हुई है और हमें भी ऐसे रास्तों पर कुछ अन्तर तो चलना है। लेकिन पहली टीम का अनुभव नि:संदेह अलग होगा।


बातचीत में और एक बात सामने आयीं और वह यह कि यहाँ दूसरे क्षेत्रों से आए स्वयंसेवकों की तुलना में स्थानीय ग्रामीण स्वयंसेवक अधिक असरदार हो सकते हैं। क्यों कि पहाड़ पर चलना उनके लिए बाए हाथ का खेल है। लेकिन ऐसे स्वयंसेवक अधिक संख्या में नही मिल रहे हैं। दिक्कत सिर्फ यही नही है। प्राकृतिक रूप से भी है। पहाड़- हिमालय समुद्र के तल की मिट्टी से बना है तो वह इतना मजबूत है नही। इसलिए संतुलन बिगड जाने पर वह टूट जाता है। उसके पत्थर भी टूटते है। हाथ से तोडे जा सकते हैं। इतने वे नाज़ुक हैं। ऐसे में निर्माण का कार्य पुख़्ता होने में दिक्कतें अनेक है. . .


बी.आर.. और ग्रीफ के कार्य को देखना अद्भुत है। बडे बडे मशीनों से वे पहाड़ काट कर और सब मलबा हटा कर रास्ता बनाते है। रास्ते को साफ कर यातायात खुली करते हैं। जब भी वे सामने से गुजरते है, तब अपने आप ‘जय हिंद साब जी’ आवाज मुँह से निकल जाती हैं। इस रोड पर मिलिटरी के स्थानों का भी बडा नुकसान हुआ है। आय.टी.बी.पी. का एक युनिट पूरा बह गया। अब मात्र कुछ चिन्ह बचे हैं, जो दर्शाते हैं, कभी यहाँ एक दूसरी दुनिया थी. . .


धारचुला जानेवाले इस मार्ग पर नया बस्ती, गोठी ऐसे गाँवों में बडी तबाही हुईं। अब बचे हुए लोग या तो रिश्तेदारों के पास गए है या फिर धारचुला में सरकारी आपदाग्रस्त शिविर में रहे हैं। यह शिविर भी हमें आज देखना हैं। इसमें नया बस्ती गाँव की कहानि कुछ और ही है। यह गाँव- जैसे नाम दर्शाता है- नया था। १९७२ की बाढ में मूल गाँव बह गया था। इसलिए इसे नए सीरे से बसाया गया। दुर्भाग्य से वह भी बच न पाया. . .


दोपहर धारचुला पहुँचे। धारचुला कालीगंगा के किनारे बसा एक पहाडी तहसील का शहर है। शहर उसे पहाड़ के सन्दर्भ में ही कहा जा सकता है। जिले का यह सबसे उत्तरी तहसील है। इसकी सीमा के बाद तिब्बत शुरू होता है। हिमालय के शहरों में पाए जाने वाले गुण इसमें भी है। चढाई और ढलानवाला रास्ता। घनी आबादी। संकरी सडकें। मोटे मोटे घर। अन्जाने में करगिल और जोशीमठ की याद आयी। करगिल और जोशीमठ भी कुछ इसी तरह के नगर हैं. . . बस बादलों के कारण बर्फिली चोटियाँ नही दिखाई दे रही हैं। धारचुला के आस पास तीन हजार मीटर से अधिक ऊँचाई वाली कई बर्फिली चोटियाँ है। जाडे़ के मौसम में पिथौरागढ ही नही, बल्कि चंपावत और दन्या जैसे जगहों से भी बर्फिली चोटियाँ दिखती हैं। अभी तो सभी बर्फिली चोटियाँ बादल के घूँघट में लिपटी है। शायद यह तबाही उनसे देखी भी नही जाएगी. . .


यहाँ से अब तिब्बत सीमा ज्यादा दूर नही है। तो लोगों के चेहरे भी अब कुछ कुछ वैसे दिख रहे हैं। एक अर्थ में भारत के पूर्वोत्तरी क्षेत्र (नॉर्थ ईस्ट) के लोगों जैसे। लग भी रहा है कि यह भी उसी का हिस्सा है। धारचुला में मिलिटरी के भी कई सारे युनिट हैं। तिब्बत सीमा से नजदिक होने के कारण और पहाड़ में समतल स्थान कम होने के कारण इस थोडे से समतल स्थान का मिलिटरी पूरा उपयोग करना चाहती है। धारचुला में ‘अर्पण’ के सदस्यों से परिचित एक दिदी के पास गए। यह तवा घाट से आगे के गरगुवा ग्राम की प्रधान है और धारचुला में रहती हैं। इनका थोडी चढा़ई पर बडा़ मकान है। नदी के उस पार का नेपाल दिखता है। नदी नीचले घरों के कारण दिखाई नही पड़ती है।

यहाँ काफी बातें पता चली। काली गंगा और धौली गंगा का तवा घाट कस्बे में संगम होता है। धौली गंगा नदी पर कुछ आगे एक बाँध बनाया गया है। वहाँ जलविद्युत का भी निर्माण होता है। एन. एच. पी. सी. (नॅशनल हायड्रो पॉवर कॉर्पोरेशन) का बडा केन्द्र वहाँ है। वहाँ बाँध होने के कारण धौली गंगा का प्रवाह कुछ सीमित रहा और तबाही होने के बावजूद उसका स्तर कम रहा। यदि यह बाँध न होता तो जौलजिबी तक सारा इलाका तबाह हुआ होता, ऐसा सुनने में आया। अब कालीगंगा नदी का प्रवाह भी बहुत बदलने लगा है। लोगों के पुनर्वास का बडा कठिन मसला अब सामने है। शासन के लिए भी यह बडी चुनौती है। पहाड़ में जगह की बहुत कमीं है और अब काफी स्थान असुरक्षित हो गए हैं और अब लोग भी वहाँ आवास करना नही चाहेंगे। पर वे उन्हे छोडना भी नही चाहेंगे। कौन अपनी जमीन और जायदाद छोडता है! एक विकल्प के तौर पर तराई का क्षेत्र- टनकपूर या फिर चण्डाल क्षेत्र आता है, ऐसा सुनने में आया। यहाँ वन पंचायत की जमीन है; सरकार पुनर्वास करा सकती है। पर दिक्कत यह है कि अभी तक टिहरी बाँध के विस्थापितों को ही जमीन नही मिली है। कुछ साल पहले मुन्सियारी के पास भी बाढ आयी थी। वहाँ के विस्थापितों को भी जमीन नही दी गईं है। और कुछ कहने की आवश्यकता नही है. . . वैसे भी सरकार नाम का संस्थान अब वैश्विक कंपनीयाँ और अन्य वैश्विक ताकतों का एजंट मात्र तो बना हुआ है। जमीन के लिए प्रतिस्पर्धा अत्यधिक है। फिर कैसे जमीन मिल सकेगी. . . यहाँ के सरकारी अफसरों के नेपाल में बार हैं। वहाँ जमीन का दाम कम है। सस्ती जमीन पर वे अपना बिजनेस देखने में व्यस्त हैं। फिर उन्हे कब जनता के सवालों को सुलझाने की फुर्सत होगी? अर्थात् कुछ लोग जरूर सक्रिय हैं। एक एसडीएम तो दिन जगह जगह जा कर रात लोगों से मिलते है, यह भी सुनने में आया।


एक और बात सुनने में आयी कि यहाँ पंचायत राज प्रणाली में जिले के अन्दर न्याय पंचायत होती हैं। पिथौरागढ जिले में कुल ४४ न्याय पंचायत हैं। और ज्यादा तर गाँवों में ग्रूप ग्राम पंचायत होती हैं। स्वाभाविक है, क्यों कि गाव बिखरे जो होते हैं। इसी चर्चा में यह भी सुनने में आया कि अस्कोट से सटे अस्कोट वन परिक्षेत्र को भी काफी नुकसान पहुँचा। यहाँ हिरणों का एक मृगविहार था। वह भी विस्थापित हो गया। जगह जगह पशुओं का यही हाल है। गाय- बैल ही नही, खच्चर और पहाडी जीवन के अन्य जानवर भी बुरी तरह प्रभावित हैं। इन्हे कैसे पुनर्वास मिलेगा?? प्रभावित लोग ही अपने टेंटों में इनको भी साथ रख रहे हैं।


धारचुला के इंटर कॉलेज में सरकारी अस्पताल में आपदाग्रस्त शिविर लगा हैं। यहाँ करीब सौ परिवार और ढाई सौ तक लोग है। ये मुख्य रूप से न्यू सोबला, खेला, खेत, कंच्योती, पांगला ऐसे उपर के गाँवों से हैं। लैंड स्लाईड की वजह से उनके गाँव असुरक्षित बन गए हैं। कुछ तो बह भी गए है। लोग निरंतर आते और जाते भी रहते हैं। जहाँ इन्तजाम हुआ, वहीं चल दिए। इसलिए आँकडें बदलते हैं। सरकारी तौर पर इस आपदा को ‘दैवी आपदा’ कहा जाना खटका। यहा प्रबन्ध भी पर्याप्त नही था। कुछ कमरों में लोग रह रहे हैं। अपना खाना स्वयं बनाते हैं। और वह भी अपनी अपनी जाति के अनुसार। सभी एक साथ और एक जैसा खाना नही खा सकते हैं, इसलिए यह व्यवस्था करनी पडी. . . लोगों की खाने के सम्बन्ध में शिकायत थी। बच्चों के लिए दूध और हरी सब्जियाँ नही हैं। मात्र लौकी और आलु दिया जा रहा हैं। लोगों ने सिमला मिर्च और बैंगन चाहिए, ऐसा कहा। सोने के लिए एक मोटा फोम दिया है और उसमें काफी गर्म लगता है। इन दिनों यहाँ रात में वर्षा और दिन में गर्मी का कहर बरप रहा हैं।


मैत्री’ और ‘अर्पण’ यहाँ हरी सब्जी, सोयाबीन, कपडें और दुध बाँटने का सोच रहे हैं। बजार में जितना आ रहा है, उतने में से ही खरीद कर देना पडेगा। दुध कम ही आ रहा हैं। हरी सब्जियों का भी यही हाल है। सरकारी अधिकारी और शिविर प्रभारी से भी बातचीत की। वे ठहरे नौकरशाही के बाशिंदे। उपर से आए आदेश के बिना कुछ भी नही कर सकते। फिर भी उनसे बात करना और उनको संस्था द्वारा दी जानेवाली मदद के बारे में बताना जरूरी था। इसी के बीच वहाँ के डी.एम, आ पधारे। उन्होंने झट से शिविर का चक्कर लगाया। कुछ लोगों से बातें की। जो लोग व्यवस्था के बारे में हमसे शिकायत कर रहे थे, उनको डी.एम. के सामने बोलने के लिए प्रेरित किया। पर उतनी हिम्मत वे नही जुटा पाए। फिर शिविर प्रभारी अधिकारी ने अकेले में बताया की, जो भी सामग्री बाँटनी है, वह रात में ही बाँटिए। क्यों कि सामग्री बंट रही है, यह देख कर यहाँ बहुत भीड आएगी और दिक्कत खडी करेगी। उन्होने बताया कि अभी भी कुछ लोग- जो प्रभावित नही हैं- मात्र सुविधाओं का लाभ लेने हेतु आए है। प्रभावितों का जहाँ मकान ही बह गया हो, वहाँ कागजात कैसे हो सकते हैं? इसलिए ये सभी कठिनाईयाँ है। प्रभावितों की कठिनाईयों का कोई अंत नही हैं। पशुधन के मुआवजे के लिए भी पशु के फोटो की आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि किसी महिला के पास उसकी स्वयं की फोटो नही हो, तो कैसे वह अपने भैंस का फोटो रखेगी? सरकारी नियम बडे असंवेदनशील लगते हैं। दिक्कतों का सिलसिला कितना भी बडा हो, पहाड़ का मन उसका सामना करेगा। तबाही से राह भी निकालेगा। इतनी आपदा और इतनी तकलीफ के बावजूद लोग असहाय नही दिखे। ना ही वे सरकार पर अधिक निर्भर है। उनकी सोच में कुछ भी विवशता नही नजर आ रही है। और कोई करें न करें, वे स्वयं की सहायता जरूर करेंगे. . .


. . . वह शाम काली गंगा की घनघोर गर्जना सुनते सुनते बीत गईं। नेपाल सामने ही है। कोई जोर से चिल्लाएगा तो नेपाल आवाज पहुँचेगी। नेपाल जाना है कल। उसके लिए मात्र एक छोटा सा ब्रिज चलना पडेगा। दो मिनट की तो बात है। नेपाल जैसे कोई विदेश न हो कर भारत का ही हिस्सा है। पर इसी नजदिकी के कारण काफी अवांछित तत्त्व इसका लाभ लेते हैं। यह भी सुनने में आया कि यहाँ सभी तरह की तस्करी बडे पैमाने पर होती हैं। ह्युमन ट्रैफिकिंग भी होती हैं। नशीलें पदार्थों की भी तस्करी होती हैं। सभी अनधिकृत काम करने का वो राजमार्ग है। यदि एक मुर्गी अवैध तरिके से नेपाल ले जानी है, तो उसका टिकट दस रूपए है!! धारचुला गाँव नेपाल में भी है। सामने दिखनेवाला शहर नेपाल का जिला मुख्यालय दारचुला है।


. . .चारों तरफ अन्धेरा छाया है और उस अन्धेरे को चीरती हुई काली गंगा की गर्जना! रात में पहाड़ के बीचोबीच जगह जगह रोशनी के दिए जगमगा उठें हैं। अब डॉक्टरों की टीम कई घण्टों की पैदल यात्रा कर वापस लौटी होगी। कल वे भी हमें यहीं मिलेंगे।


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अस्कोट- जौलजिबी के रास्ते में दिखनेवाली गोरी गंगा





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नदी का कहर और रास्ते की दुर्दशा


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विस्थापित शिविर और उसको जिंदा रखनेवाले चैतन्यपूर्ण बच्चें!


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काली गंगा और धारचुला से दिखनेवाला नेपाल का दारचुला!



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