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छुआछुत या अस्पृश्यता-3

29 अगस्त 2023

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मुख्य गांव से दूर बसी हुई एक कच्चे मकानों की बस्ती जहां पर घास-फूंस की दुनिया नजर आ रही थी। इन लोगों को यह बिसात उनके पूर्वज देकर चले गए कि उन्हें इन्हीं झोपड़ियों में जीना है। एक तरफ आजादी की लड़ाई खत्म हुई थी लेकिन दूसरी तरफ निम्न तबके के लोगों की दासता की शुरुआत हो गई। अंग्रेजी से आज़ादी के लिए इन्हें भरोसा मिला था कि इन्हें भी समान अधिकार दिये जायेंगे लेकिन यह एकमात्र छलावा था । जो अपने ही धर्म के लोग कर बैठे थे। एक पेड़ की शाखा जिनमें पेड के द्वारा सभी शाखाओं के लिए जल और प्रकाश संश्लेषण से बना हुआ उनका भोजन समान रूप से वितरित किया जाता है इसलिए उस पेड़ को मजबूती मिलती है। लेकिन यहां धर्मरूपी पेड़ की जड़ों ने उन शाखाओं से भेदभाव कर दिया जो मुरझाकर बीच में ही सूख गई और कुछ कमजोर रह गई।।
उस गांव में निम्न जाति के लोगों की बस्ती में रामू अपने माता -पिता के साथ रहता था। उच्च जातियों के लोगों को उनसे रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के सभी अधिकार छीने हुए थे। उनके पास रहने मात्र के लिए जमीनें थी। तन ढकने के लिए कुछ कपड़े दिये जाते जो भी उन्हें दुकानों पर दूर से थमा दिए जाते थे। आज़ादी के बाद इन लोगों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ । इसी हालत में रामू ने अपनी मां की गोद से जन्म लिया और जन्म के साथ ही उसके कर्मों का निर्माण हो गया और उसके सिर पर अस्पृश्यता का ताज पहना दिया।
पिता का उमड़े का व्यापार था और माता घर पर रहकर अपनी सात संतानों का पालन कर रही थी। उस समय इन लोगों ने इन संतानों को भगवान की कृपा समझा या किस्मत का खेल । क्योंकि इन लोगों को भगवान का नाम लेने का अधिकार ही नहीं था और ना ही भगवान की पूजा करने की इजाजत।
उसी वक्त आजादी की हवा चली और उस हवा ने देश को आजादी में सांस लेना सिखा दिया । कुछ हिंदू उच्च वर्णीय समाज सुधारक हिंदू अस्पृश्यों की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गये थे। पता नहीं उनके अंदर कहा से मानवता का भूत सवार हुआ। और वे अपनी सामाजिक सुधार की झोली लेकर धरातल पर उतर आते।
हजारों वर्षों से चली आ रही बीमारी जिसका आज तक कोई इलाज नहीं था। क्योंकि उसके डॉक्टर वे लोग ही थे जो इस बीमारी के जनक थे। मानसिकता का फर्क था और हक और अधिकारों का भेदभाव।।
 रामू अपने पिता की सात संतानों में एक था। आजादी मिलने अस्पताल समय जिसका जन्म हुआ होगा वह अवश्य ही क्रांतिकारी हो सकता है। लेकिन पुरूखों से भर ही मिला है तो वह भयभीत क्यों नहीं होगा। वह वक्त था जब झाड फूंक करने वाले भगत-सयानों का पूरा बोलबाला था। देशी वैध झाड़ फूंक वालों के सामने कमजोर थे। आजादी के पहले ही देश के संविधान के लिए भी समिति बना दी गई थी । जो देश के लिए संविधान बना रही थी। उसमें दलितों के मसीहा कहे जाने वाले डॉ भीमराव अम्बेडकर अस्पृश्यों के लिए बराबरी के हक और अधिकारों की मांग कर रहे थे। तीन साल तक लंबी बहस और चर्चा के बाद संविधान बनकर तैयार हुआ तो देश के लोगों के लिए समानता और स्वतंत्रता का अधिकार मिल गया।
संविधान के बाद ही अस्पृश्य लोगों के अंदर जागरूकता पैदा हुई और कानून के बंधनों ने अस्पृश्यता फैलाने वाले लोगों के मंसूबों को कमजोर कर दिया। इसके बाद ही लोगों को पता चला की उन्हें स्कूलों में पढ़ने लिखने के अधिकार मिल गेट है। तो कुछ लोगों ने उन कच्ची झोपड़ियों से निकलना शुरू किया। कुछ लोग अभी भी डरे हुए थे लेकिन कुछ लोगों ने अपनी हिम्मत दिखाई और अपने बच्चों को स्कूलों में पढ़ने के लिए भेज दिया। रामू के अंदर पढने-लिखने की ललक पैदा हो गई और उसने अपनी मेहनत का कारनामा दिखाया। गरीबी और दीनता के बाद भी उसने अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी की। उसके साथ आते कुछ बच्चे जो स्कूल के दरवाजे तक गये लेकिन उन्हें पढ़ाई लिखाई एक वजन सी लगी। उन्हें अभी भी कक्षा में अलग बिठाया जाता था और अस्पृश्यता के जैसे व्यवहार किया जाता था। यही कारण था कि उन्हें अपने पढ़ने के लिए माहौल और पढ़ाने वाले शिक्षकों का रवैया ठीक नहीं लगा और किसी ने प्रारंभ में ही और किसी ने साल दो साल में ही अपने कदम पीछे खींच लिए।।
रामू ने अपनी जिंदगी में सभी संघर्ष झेलते हुए भी पढ़ाई का पीछा नहीं छोड़ा और अपनी जिंदगी में लगे रहे ।
रामू :- मुझे मेरे गांव के हर व्यक्ति की हालत का नजदीकी से पता था । गांव में लोगों के लिए खाने के लिए अन्न और पहनने के लिए कपड़े नहीं थे। काम करने के लिए रोजगार नहीं था। पिताजी कुछ जमींदारों के खेतों में काम करना शुरू कर दिया था। और मां मेरे भाई -बहिनों को पालने में लगी हुई थी। गांव में महिलाओं और पुरुषों को बच्चे पैदा करने से मतलब था । उन्हें पता नहीं था कि बड़े परिवार को कैसे खिलायेंगें पिलायेंगें। खाने के लिए मरे हुए जानवरों का मांस और बेचने के लिए उनकी चमडी मिलती थी। जूते बनाना हमारे पिता का एक व्यवसाय था और दूसरों के खेतों में काम करना हमारे पेट के लिए अन्न पाना हमारे लिए अलग से काम था ।
मरे हुए जानवर की चमड़ी छूना और उसे पैरों में पहनना उनके लिए मुनासिब था लेकिन जिंदे लोगों के तन को छू लेना उनके लिए एक घोर पाप था । इसलिए तो उन्होंने हमें हर चीज से अलग कर रखा था ।
मैं जिस स्कूल में पढ़ने जाता था । वहां पर एक ब्राह्मण और एक जाट जाति का अध्यापक था । हालांकि जाट जाति का अध्यापक भी शुद्र ही था लेकिन उसे सछूत शुद्रों की श्रेणी में बांट रखा था । हमें स्कूल में एक अलग स्थान दे रखा था जो पेड़ों की छाया में सबसे पीछे होता था । हम लोगों को कभी भी एक साथ मिलकर बैठने का मौका नहीं मिला । हम लोग घर से पानी ले जाते थे और बैठने के लिए एक टाट की बोरी ।
हम भी चाहते थे कि टीचर हमसे प्यार करे लेकिन वे हमें नजदीक भी नहीं आने देते थे। यह हमको बहुत बुरा लगता था। इसलिए हमने टीचर बनकर उनके साथ बैठने की बात सोची‌। अस्पृश्यता कानूनी अपराध होने के बाद भी हमें अस्पृश्यता झेलनी पड़ रही थी। लेकिन हमारे लिए कुछ जानकारी नहीं , हमारे लिए कोई वकील नहीं , हमारे मां बाप के पास रूपया नहीं , हमारे पास सामाजिक स्टेटस नहीं फिर हम लोग इसके खिलाफ कैसे लडते। हमारे सभी बड़े भाइयों की शादी कर दी गई और सभी बहिनों को ससुराल भेज दिया गया । मुझे भी चौदह साल की उम्र में शादी के बंधन में बांध दिया ।
“ना दहेज ना च्वाइस, ना बैंड बाजा ना घोड़ी और पैदल चलकर जाने वाली बारात के साथ बिना साज और श्रृंगार के कुछ लत्तों के सहारे ही विदाई कर दी”।
हमारे कोई भगवान भी नहीं होते थे । इसलिए मेरे समाज के लोग सबसे बुद्धिमान व्यक्ति जो हमारे समाज के मुखिया का काम करता था। उसे ही गुरू मानकर उसकी पूजा कर लिया करते थे‌। जैसे-जैसे पता चला हमारे लोकप्रिय गुरू हमारे लिए भगवान बनते चले गये र हम उनके जान बनाकर उन्हें पूजने लगे। धीरे-धीरे जिन लोगों ने उनकी आराधना करना शुरू कर दिया।
हां अस्पृश्यता का खेल खेलने वाले हमारे तन से नफरत करते थे लेकिन हमारी सुंदर स्त्रियों के ऊपर उनकी हमेशा निगाह रहती थी। उन्होंने कुछ जयचंद जनार्दन को अपना चाटुकार बना रखा था जो हमारी सारी गतिविधियों की खबर उन्हें दे दिया करते थे।
हमारी सुंदर स्त्रियां उनकी वासनाओं का शिकार बनती थी और कुछ सुंदर लड़कियों को अपने उपभोग के लिए देशवासियां बनाकर मंदिरों के गर्भगृह में रखा जाता था । वे अस्पृश्यता का शिकार क्यों नहीं होती थी। वे अस्पृश्य लड़कियां देवदासी यह कहकर बना दी जाती थी कि तुम्हारा जन्म ईश्वर की कृपा से हुआ है।।
उस समय उनकी पवित्रता कहां चली जाती थी। जब ये लोग हमें उन मासूम लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बना ली जाती थी।
हम लोगों को डर इसी बात का लगता था कि ये लोग हमसे अस्पृश्यता केवल हमें हमारे अधिकारों से वंचित करने के लिए रखते हैं। हमें धन दौलत से दूर रखने के लिए करते हैं। हमे अच्छी शिक्षा और शासन से दूर रखने के लिए करते हैं।
वास्तव में इनके छुआछूत और अस्पृश्यता के विचारों से दुर्गंध आती है कि ये लोग धर्म के नाम से हिंदू कहकर भी हमसे नफरत करते हैं।।
मैने सभी तरह के संकट झेले। मगर शिक्षा का रंग मेरे जीवन में ऐसा रंग गया और मैं अपने भाइयों और पिता के सहयोग से शिक्षा ग्रहण करता रहा रहा।

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