रामू:-मेरी चौदह साल में शादी होते ही मेरे कंधों पर जिम्मेदारी आ गई। नई -नई किस्तूरी और हमारे छोटे से झोपड़े में रहने वाले दस बारह लोग। जगह बहुत कम पड़ रही थी। धीरे-धीरे बेगारी की प्रथा शुरू हुई और हम लोगों से जमींदारों के द्वारा सहायता ली जाने लगी । जिससे हमें खाने-पीने के अनाज जमींदारों के दवारा दिया जाने लगा और हम लोगों के पेट भरने के लिए कुछ मौके बढ़ने लगे।
मेरे सारे अशिक्षित भाई मेरे पिता के साथ काम धंधा करने लग गये। हम लोग घर में कुछ पशुओं का पालन कर लेते थे। जिससे हमें खाने-पीने के लिए दूध,दही और घी मिल जाता था।
वैसे हम लोगों के लिए वही उत्सव होता था । जब किसी के घर में किसी पशु की मौत हो जाती थी। उस दिन हम लोग बहुत खुशी होते थे क्योंकि उसका चमड़ा हमारे लिए रोजगार के अवसर देता था और उन मरे हुए जानवरों का मांस हमारे खाने के लिए काम आता था। यही नहीं हम लोग उनकी हड्डियों का संग्रहण करके अपनी झोपड़ियों की छतों पर सुखा देते थे। जो बाजार में बिक जाती थी। क्योंकि उन पशुओं की हड्डियों से ही कुछ उर्वरक कंपनियां खाद बनाती थी।
हमारे लिए मरे हुए जानवरों को बहुत ही उपयोगी माना जाता था। खेतों में काम करने से हमारे लिए खाने के लिए अन्न आ जाता था। हमारे गांव में कुएं हमसे ही खुदवाये जाते थे लेकिन उसका पानी अस्पृश्यता का डंका पीटने वाले लोगों के द्वारा ही पिया जाता था । जो हमारे लिए पानी के लिए अलग से कुएं रखते थे। अगर हम लोगों के कुएं में पानी सूख भी जाता था तो हम लोग नदी नालों से पानी लाते थे । वहां पर भी हमें आसानी से पानी नहीं मिलता था । गांव की उच्च जाति के लोग हमें बिना छुए हुए ऊपर से पानी डालकर हमें पानी देते थे। हम उस दिन तक उन तालाबों के पानी को छानकर पीते रहते थे जब तक की हमें नया कुंआ या उस कुएं में पानी नहीं मिल जाता था।
यह तो कुछ भी नहीं हम लोग उन तालाबों में नहाने धोने या पानी पिलाने के लिए योग्य नहीं थे जहां पर बरसात का पानी एकत्रित हो जाता था। हम लोगों को उसमें प्रवेश के लिए कोई जगह नहीं थी। हम लोगों की जिंदगी पशुओं से बद्तर थी। लेकिन जो भी था हमारे द्वारा उसी में अपनी खुशी का खजाना खोजना होता था।
उच्च जाति के लोग कहते थे कि हमारे समाज के लोगों से अस्पृश्यता का भाव इसलिए रखा जाता था कि हम लोग गंदे रहते हैं। लेकिन हम लोग कहां जाते जब हमारे पास एक कुंए से खाने-पीने की पूर्ति नहीं होती थी। और ना ही हमें बरसात के उस पानी पर अधिकार था जो नदी और तालाबों में भरा रहता था। हमारे पास जब एक जोड़ी कपड़े होते थे तो हम लोग कहां से कपड़े बदल-बदलकर कपड़े पहन लेते । हमारे पास बाल काटने के साधन भी नहीं थे और ना ही बाजार में बाल काटने के लिए नाई होते। जब हमें मृत पशुओं को काटना होता था । उस समय हमारे वस्त्र खून से सने हुए होते थे।
मैंने अपने पूर्वजों को आंखों से देखा है जब उनके द्वारा मृत पशुओं को काटने जाया जाता था उस वक्त उनके शरीर पर कच्छे के अलावा कुछ नही होता था। उनका शरीर खून से लथपथ हो जाता था । लेकिन घर पर आने के बाद उन्हें नहाने के लिए पानी भी नहीं मिलता था और वे लोग हाथ-पैर साफ करके उन्हीं कपड़ों को पहन लिया जाता था। हम लोग उन लोगों के उन वेस्टेज कपड़ों का प्रयोग करते थे। जिन्हें वे पहनकर कचरे में डाल देते थे।।
लोगों में प्रेम और अपनापन था। आज की तरह उस समय हम लोगों के लड़ाई झगडे या आपसी मतभेद नहीं थे। इसलिए सभी लोग मिल बांटकर खा लेते थे। दुख बीमारी के समय हम लोगों को अस्पतालों में जगह नहीं थी। जहां पर देशी वैध रहते थे। कुछ अपने ही समाज के लोगों ने अपने तजुर्बा के आधार पर जंगल की कुछ औषधियों को दवाओं के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया।
नीम, बबूल ,कीकर एवं अन्य झाड़ जो हमें फायदा देते थे । उनको हम लोग दवाइयों के रूप में प्रयोग कर लेते थे। क्योंकि उस समय ताप बुखार ,सर्दी ,जुकाम जैसी बीमारियों के अलावा गंभीर बीमारियों का प्रतिशत एक से भी कम था।
स्त्रियों के बच्चे पैदा करने के लिए कुछ स्त्रियां होती थी । जो दाई कहीं जाती थी। अस्पतालों की आवश्यकता नह थी। और ना ही किसी दवा दारू की।।
मैं वक्त के साथ सभी मुसीबतें देखता रहा था । हम लोग किसे इस बात का जिम्मेदार ठहराये कि हमें इस तरह कष्ट झेलने पड़ते थे।
किस्तूरी के आने के दो साल तक उसे मुझसे दूर रखा गया था । क्योंकि मेरे भाईयो का सपना था कि जब हमारा भाई अच्छी तरह पढ़ाई कर रहा है और जब नौकरी करने के अधिकार मिल ही गये है । तो नौकरी लगना तय है क्योंकि उस वक्त संविधान हमारे लिए वह सर्वोच्च शक्ति बनकर आया था जो हमारा पालन कर सकता था।
नौकरियों, शिक्षा और राजनीति में आरक्षण हमारे सामाजिक स्तर को समता का हक दिलवाने के लिए मिल गया। और मेरे समाज में पढे-लिखे लोगों की कमी थी और पढ़ें लिखे लोगों के लिए किसी अच्छे मौके से कम नहीं था।
मैंने दो साल तक अपने आप पर संयम रखा और वे दोनों साल मेरे लिए स्वर्णिम काल की तरह साबित हुई और मैं इंटर की पढ़ाई के लिए तैयार हो गया । उस समय किस्तूरी को देखकर मेरे अंदर की भावनाएं जागृत होने लगी थी । एक ही घर में रहने वाले मैं और किस्तूरी बोलते भी नहीं थे।
मौका मिलने का कोई चांस नहीं था । हमारे घर की दो झौपडियां जिसमें एक महिलाओं के लिए और एक पुरूषों के लिए होती थी।
मां के अलावा कोई बहु का एक साथ बैठना मुनासिब नहीं था । क्योंकि पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों को दबाकर और घर के कामों के लिए प्रयोग किया जाता था ।
घर में जब तक दादा दादी रहते थे। उनकी हर बात एक हुक्म होता था और जब दादा दादी पंचतत्व में विलीन हो जाते थे। उस वक्त मम्मी पापा की बातें मानी जाती थी।
उस वक्त अस्पृश्य लोगों के लिए स्वर्ग और नरक की कल्पना करना बेकार था । क्योंकि जब उन्हें धरती पर कोई छूने से डरता है तो स्वर्ग और नरक में जगह कहां से मिल पायेगी। जहां पर उच्च जातियों के ईश्वर का प्रभुत्व था।
मरने के बाद एक मुट्ठी भर राख का हमें पता जरूर रहता था लेकिन यह पता नहीं था कि अस्पृश्य लोग मरने के बाद कहां जाते हैं। क्योंकि उन्हें भगवान का नाम लेने और भगवान की पूजा करने के अधिकार नहीं थे। जब इनके भगवान नहीं थे इसलिए तो अस्पृश्य लोगों के लिए मंदिरों के बाहर बोर्ड लगे हुए रहते थे कि इसमें “शूद्रों, नारियों और जानवरों का प्रवेश वर्जित है” लेकिन उस बोर्ड का लगाने का कुछ फायदा उस समय होता ही नहीं था । जब शुद्रों के पास शिक्षा नहीं थी। इसलिए मंदिर के बाहर लोगों को जाति पूछकर प्रवेश कराया जाता था।
हमारे लोग केवल अग्नि,वायु, पृथ्वी और अपने पुरूखो को ही ईश्वर मानकर पूजते थे। क्योंकि उन्हें भगवान का नाम लेने और पूजने के लिए किसी तरह के कोई अधिकार नहीं थे। मेरे बाप दादाओं ने ना ही भगवान को कभी देखा और ना ही उन्हें जानते थे।
ऐसे ही हमारी जिल्लत भरी जिंदगी बहुत कठिन दौर से गुजर रही थी। मेरे मम्मी पापा और मेरे भाईयो ने हिम्मत नही हारी और मुझे लगातार प्रेरित करते रहे कि तुम्हें सिर्फ पढने-लिखने पर ध्यान देना है। मैं भी उनकी आज्ञा का भलीभांति पालन करता रहा और अपने लक्ष्य को पाने के लिए मेहनत करता रहा।
मुझे किस्तूरी से प्यार करने की चाहत थी लेकिन मैं अपने माता -पिता और भाई-भौजाई से कह नहीं पाता था। हम हमारे बड़े भाइयों और पिता के बड़े आज्ञाकारी बच्चे थे और उनका सम्मान भी करते थे। इसलिए उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
उस दिन की मुझे अच्छी तरह याद है । जब मुझे किस्तूरी से बातें करने का मौका मिला। उसने मुझे कहा कि रामू तुम चिंता मत करो । अपने रास्ते पर आगे बढ़ते रहो। मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाने वाली हूं।
रामू :-यार किस्तूरी पता नहीं मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूं। उस रास्ते पर मुझे सफलता मिलेगी या नहीं लेकिन तुमसे दूर रहकर मुझे ऐसा लग रहा है। जैसे थाली में खाना परोसने के बाद उसे खाने के लिए मनाही है।
किस्तूरी:- देखो ! हम लोगों की हालत बहुत बुरी है। हम अछूत बनकर जानवरों से ज्यादा खराब जिंदगी जी रहे हैं। हमारे लोगों की हालत भी बुरी तरह खराब हो रखी है। तुम्हें प्यार करने के लिए मैं यहीं पर रहूँगी। अगर जिंदगी में परिवर्तन हुआ तो हम लोगों का भविष्य सुधर जायेगा।।
उस दिन किस्तूरी से बात करने के बाद दिल को बहुत तसल्ली मिली थी। मन में कुछ भावनाएं भी बच्चे की तरह अंदर ही अंदर उछल कूद करने लगी। प्यार करने का मन कर रहा था । मन कर रहा था कि संपर्क बना लिए जाये लेकिन घर वालों पर भरोसा नहीं था कि कोई कब आ टपकेगा?? घर के ऊपर केवल छत थी। गेट पर दरवाजा भी नहीं होता था । घर को सुरक्षित करने के लिए झाड़ और डंडों का अस्थाई दरवाजा बना रखा था जिसे हाथ से उठाकर खोला जा सकता था। यह किसी व्यक्ति से सुरक्षा के लिए कोई उचित साधन नहीं था । बल्कि किसी जानवर को घर में घुसने से है बचाया जा सकता था ।
मेरे मन की बातें मन में ही रह गई क्योंकि मेरी मम्मी कहीं से आ गई। मैं बहाना करके किसी तरह घर से बाहर निकला था । डर लग रहा था कि कहीं मम्मी को पता लगा तो मेरी मम्मी मुझे डांटने लगेगी।
उस दिन किस्तूरी को पहली बार स्पर्श कर पाया था। मेरे हाथ पैरों में कंपकंपी सी छूट गई और शरीर में पसीने आ गये थे।।