17 नवम्बर 2024
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शब्दों को अर्थपूर्ण ढंग से सहेजने की आदत।D
एक दिन! एक आदमी,चिथड़े में लिपटा,दान में,पायी हुई,नई चप्पल को,यह सोचकर कि-अभी नई है,कहीं यह-गंदी न हो जाये,बड़े जतन से,हाथ में छुपाते हुए,राजा के पास-भूख! और जिल्लत!! भरी,जिंदगी की,फरियाद लेकर पह
उसकी!तनी हुई भौहें,और-बिचके हुए मुंह,सामान्य हो,मुस्कुराने लगते हैं।जब उसके,दरबारी!दुम हिलाते हुए, उछल-उछलकर,उसकी-स्तुतिगान करते हैं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nb
सारी की सारी,क्रेडिट! राजा को,देने के बाद, अंततः! राजा की प्रजा,थोड़ी सी ऊंघी!अंगड़ाई!!लेने की मुद्रा में,अपनी-अर्ध चेतना में ही,उबासी लेकर,जैसे ही उठी, एक नई सुबह का,अंधेरे को,चिर
एक दिन,राजा! भाषण देते-देते,प्रवचन के अंदाज में, प्रजा से बोला-मै तुम लोगों के लिए, घंटों काम करके,बिना किसी छुट्टी के,तुम्हारी भलाई में,लगा रहता हूं।ऐसा है कि नहीं?प्रजा! समवेत स्
जब से-राजा की,बुलंदियां! उसे-उठाकर,पहाड़ सी, ऊंची कर दीं।तभी से-बेचारा!राजा!!अकेला हो गया,पहाड़ की तरह।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
राजा ने,आदरपूर्वक! प्रजा को,लाल कालीन पर,बिछे हुए- सोफे पर बिठाकर,परात में,उनके पांवों को,निर्मल जल से,पखारने के बाद, मुलायम तौलिये से,आहिस्ते-आहिस्ते पोंछा।सुन्दर पकवान, परोसकर,उन
एक दिन! सहसा,अखबारों में,प्रजा ने,एक महाकाव्य! " भुलवावा" पढ़ी,जो बहुत ही,लोम हर्षक थी।हर जगह,गली,सड़कों और-चौराहों पर,उसी की, चर्चा! होने लगी।प्रजा की, उत्सुकता! अंततः-&
एक दिन! राजा के गुर्गे को,जब!राजप्रासाद की,तौहीन! बर्दाश्त नहीं हुई।तब वह-राजदरबार में,पार्षद को,डपटते हुए,बोला-ख़ामोश!इतना,कहना था कि-प्रजा के, नुमाइंदे! बिफरने की,जुर्रत कर बैठे।
एक दिन, अपने!शासन का,तीन वर्ष!पूरा होने पर,राजा! अपनी रियासत में,रियाया से,मिलकर,उनकी-प्रतिक्रिया! जानने के लिए, राजदरबार से, बाहर निकला।उसने!प्रजा से पूछा-थ्री जीरो में,तुम क
हालांकि- राजा!कह चुका था, कि वह!बायोलाजिकली,पैदा हुआ है।प्रजा को,पता नहीं क्यों?ऐसा लगा कि-इस तरह से,केवल राजा ही,पैदा हो सकता है।इसके बाद! पूर्ण आश्वस्त होकर,एक दिन! राजा ने,फिर क
पा लेने की,बेचैनी! और-खो देने का डर!राजा को,जब-सताने लगा,तब राजा ने,अपने खास,सिपहसालार को,बुलाकर-खास मंत्रणा,करने के बाद,एक एक करके,पड़ोसी!रियासतों पर,कब्जा जमाने के लिए, अपने सभी,कारिंदों क
एक दिन! चौकीदारी का,राजा को,शौक चर्राया। लाखों का, सूट!पहन कर,राजा!!राजमहल से,बाहर निकलकर। प्रजा को,संबोधित करते हुए, वह बोला-अब मैं ही,तुम लोगों का,चौकीदार भी।लोगों का विश्वा
राजकीय! कार्यक्रम के तहत,राजा के,होने वाले- संबोधन! सभा के लिए,विशालकाय! मैदान में,भव्य सभा मंच तैयार!! किया जा रहा है।इसके लिए- बा कायदे!इवेंट प्रबंधकों को,जिम्मेदारी,दे
एक बार! राजा के देश में, भयंकर!महामारी फैली गयी।दिन प्रतिदिन, सैकड़ों की संख्या में,प्रजा! मरने लगी।हालांकि! राजा ने,महामारी से,लड़ने के लिए, ताली,थाली!घरी,घंटाल!!सब कुछ-
एक दिन! अपने राज में,घूमते हुए,राजा ने,नदी में नहा रहे,लोगों को,देखकर, कोतुहलवश!महामंत्री से पूछा- महामंत्री! ये लोग, इस नदी में,कपड़े उतार कर,क्यों नहा रहे हैं?जिससे कि
एक दिन, राजा! पड़ोसी राज के,राजा से मिलने गया।उस राज में, उसके! सगे भाई के राज से,भयंकर!युद्ध होने के कारण, तबाही मची हुई थी।राजा ने,मेजबान राजा के, पीठ पर, हाथ रखकर
एक दिन, आखिर! ऐसा- आ गया,जब राजा को,चलने के लिए, बैसाखी की- जरूरत आ पड़ी।राजा के पास, दो बैसाखियां! आकर बोलीं-जहांपनाह!हम दोनों बनेंगी,आपका सहारा।हालांकि राजा!
एक दिन, अपने-पूर्वजों की, मूर्तियां! लगवाने की,प्रबल इच्छा!हो उठने के कारण,राजा ने सोचा-अपने कुल में तो,महानता जैसे,विशेषणों से,सुसज्जित! कोई है ही नहीं। तब क्यों न?प्रतिद्वंद
एक दिन! राजा को,अपने जुमलों, झूठे प्रोपेगंडों को,प्रजा के मन में,गहराई तक,बैठाने,ग़लत!जानकारियों को,परोसकर,फूट डालो तथा-राज करो की,नियति से,एक ज्ञान संस्था की,जरुर महसूस हुई। यह कार्य!र
एक दिन! राजा के राज में,उसके द्वारा, बनवाया गया,विशालकाय,स्मृति द्वार! अल्पावधि में ही,धराशाई हो गया।हालांकि- प्रजा!उसका निर्माण देख,रियासत के लिए,इस उपलब्धि पर,राजा को,सर आंखों पर
एक दिन! अपने अस्तित्व पर,मंडराते!संकट को देखते हुए, राज की प्रजा! अपने जीवित होने का,आभास कराने के लिए, राजा के विरुद्ध! संघर्ष का,आह्वान कर दी।बेचारा राजा! अब पहले जैसा,
एक दिन, राजप्रासाद के,राजगुरु! राजा के व्यवहार, चाल!,चलन!!और चरित्र!!!परक्रुद्ध होकर, आपा खोते हुए,शहंशाह से,बोल पड़े-महाराज!आप ईश्वर हो,या नहीं हो,इसे! खुद ही, न तय करके,&nbs
एक दिन! आखिर!! एकांत में बैठे-बैठे, राजा ने सोचा- चारों तरफ,अब तो- मेरी ही, चर्चा हो रही है।इतिहास पुरुष भी,मैं बन गया ।प्रजा में,मेरे चाय बेचने, भीख मांगने,विदेश या
आज!राजा कुछ, उदास सा,लग रहा है।न जाने क्यों? हवाएं! उसे अच्छी, नहीं लग रही हैं।राजा!सोचने लगा, यह वही! उड़नखटोला है,जिसके! उतरते समय, उड़ने वाली धूल को,चर
एक दिन,राज प्रक्षेत्र में,चौराहे पर,राजा के,जुबान की लंबाई! तथा- उसके सीने की,चौड़ाई पर,बहस!जोर शोर से,राजभक्तों!और-विरोधियों के बीच,चल रही थी।राजा ने, कुतुहल वश,पूछा-यह क्या हो रहा?&nb
एक दिन, भूख!दीनबंधु! के सामने,नतमस्तक! हाथ जोड़कर,उनकी आरती के लिए, खड़ी ही थी कि-तभी अर्चना कक्ष में,स्वयं राजा !अवतरित हुआ।राजा भी,दीनबंधु की, पूजा अर्चना में,हाथ जोड़कर!भक्ति भा
एक दिन! राजा के,इस घोषणा से,कि वह-अपनी प्रजा को,मुफ्त राशन की,तर्ज पर ही,मकान भी देगा।यह सुनते ही,विकास के झूठे वादे! बंगाली झांक,अपने सिर खुजलाने लगे।अभी यही नहीं,राजा!अपनी,प्रजा को,एक संदे
एक दिन, राजा! रियासत की प्रजा में,उठ रहे,विद्रोह को लेकर, अपने- मंत्रियों की,बैठक बुलाया।विलासी राजा के मंत्री! झूठे तथा मक्कार!चालाकी और चाटुकारिता में,पारंगत भी थे।बैठक के,म
एक दिन!राजा के, अनुयायियों के,इस प्रलाप पर कि-प्राचीन अखण्ड राज!अब जरुरी हो गया है।इसपर समर्थकों का,तर्क यह था कि-जब से हमारे, पड़ोसी राज,अलग हुए हैं,तब से राज की,धर्म और संस्कृति को,खतरा उत
एक दिन, राजा!मलिन बस्ती के,भ्रमण हेतु, राज महल से,जैसे ही निकाला,राजप्रासाद में,हड़कंप मच गया।राज कर्मचारी, रागदरबारी! राज्य जयकारा दल,सबके सब,जैसा कि राजा को,पसंद होता है,उसके लिए
आज!हम सभी,बाजों की गोष्ठी! आहूत की गयी थी,वनराज के,फरमान पर।हमें!ऊंची उड़ान, कैसे भरनी चाहिए?इसपर,व्याख्यान दिये,कौए।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
एक दिन! राजा के कारिंदों ने,उस मुशायरा को,रोक दिया, तथा- उसमें रचना पढ़ रहे,रचनाकार पर,यह कहकर,प्राथमिकी!दर्ज करा दी,कि-उसकी रचना से,राजा के खिलाफ, बग़ावती साजिश की,बू आ रही है।यह
एक दिन! प्रजा को लगा कि-अब राजा को,बदल देना चाहिए।सो नये राजा को,ढुढने का कार्य, राज्य में,जोर शोर से शुरू हो गया।राजा भी,कम खिलाड़ी नहीं, वह तरह-तरह के,दांव पेंच में पारंगत है।चारो तरफ
अब,राजा!डरने वाले को,गीदड़ की तरह,डराने में,माहिर हो चुका था।अब उससे,प्रश्न करने वाली, आवाज़ें! विरोधियों से,एक-एक करके,अनेक प्रश्न करने लगीं।शूरवीरों के सामने, नतमस्तक होने में,राजा का
उनको,ड्रेस! बदलता देख,हम!समझ बैठे थे,कि-वो! देश बदल रहे हैं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित्र:सा
हम!बागी थोड़े हैं,जो-जंगलों में रहें।हम तो,लुटेरे हैं साहब!चलते हैं,संसद की ओर।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
एक दिन!बैठे-बैठे, राजा के दिमाग में, अपने पराभव की चिंता! इस कदर,सताने लगी,कि वह बेचैन हो,सोचने लगा। उसके दिमाग में,सम्राट के,सिंहासन तक,पहुंचने की सारी तरकीबें!एक-एक करके, या
जब!प्रदूषण को,जीवन के लिए, घातक बताने लगे,सारे के सारे-मापक यंत्र!तब जाकर- राजा की तंद्रा टूटी।आपदा में,अवसर! तलाशने में माहिर, राजा ने,अंततः फरमान जारी किया।राजकीय सुरक्षा तं
अब तो,सबसे ज्यादा! वही डरे सहमें हैं,जो किले में बंद!कहते हैं, खुद को शासक! अब वही,परछाईं से डरते हैं।आखिर- सोने के महल!सत्ता के औजार!!क्यों बन गये?खौफ के बंजर पिंजरे।© ओंकार
आज-खामोशी के,दरवाजों को,तोड़कर,आंदोलित! हो उठे हैं,शब्द!मन के,कोनों से,उतर आयी हैं,अक्षरों की परछाइयां।सोये हुए शब्द!जाग उठे हैं, समय की पुकार सुन,कागज पर, उतरने के लिए, इंकलाब बनक
एक दिन महल के झरोखों सेराजा को दिखा,कि प्रजा दुखी लग रही है,राजा को,शासन की कुर्सी डगमगायी सी लगी,वह समझ गया,गद्दी की चूले!ढ़ीली होने गयीं।खुराफात में माहिर, राजा ने सोचा-अच्छे समय का अवसर ह
वह!मशहूर, चौराहा था,एक बड़े शहर का।एक!कोने की,दुकान को घेरे,लोगों की भीड़ जमा थी।मैं भी!कुतूहल वश,जा खड़ा हुआ वहीं, भीड़ का हिस्सा बनकर ।देखा!वहां पर,गुलाब के फूल की,मशहूर पकौड़ी छन रही थी।भ