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डरो नही महिलाओं कानून हैं

20 जून 2022

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अनुक्रमनिका 

1.महिलाओं संबंधित कानून
2.घरेलू हिंसा महिला सुरक्षा 
🔴 कोई पुरुष महिला को चोट क्यों पहुंचता है ?
🔴 महिलाओं के साथ हिंसा के कारण
🔴 हिंसा के दौरान सुरक्षा
3.कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) 
   अधिनियम
4.भारत में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के प्रकार
🔴 सामाजिक जागरुकता
🔴 महिला हिंसा एवं क़ानूनी उपाय
5.महिलाओं के मानवाधिकार के विषय में आप क्या जानते हैं?
6.महिलाओं के लिए नियम व अधिनियम
7.संविधान, कानून और महिलाएं
8.महिला के विरुद्ध अपराध क्या है?
9.महिला के प्रमुख अधिकार क्या है?
10.क्या समाज में लड़कियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त है?
11.क्या एक पत्नी को अपने पति और ससुराल वालों की संपत्ति में कोई हक है?
12.मानसिक उत्पीड़न क्या है?
13.महिलाओं ने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए क्या प्रयास किया?
14.महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या प्रयास किए गए हैं समझाइए?
15.किस महिला को जबरदस्ती निर्वस्त्र करने के मामले में आईपीसी की कौन सी धारा दंड का प्रावधान देती है?
16.ऑफिस में हुए उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार: काम पर हुए यौन उत्पीड़न अधिनियम के ..
17.महिलाओं को अपने कर्तव्यों व अधिकारों के बारे में जानकारी
18.महिलाओं की सुरक्षा के उपाय पर प्रकाश डालिए
19.महिला अपराध के कारण
20.महिलाओं के सामाजिक अधिकार
21. महिलाओं के लिए संवैधानिक प्रावधानों की विवेचना कीजिए




अध्याय-1
महिलाओं संबंधित कानून
                                         पिछले दशकों में स्त्रियों का उत्पीड़न रोकने और उन्हें उनके हक दिलाने के बारे में बड़ी संख्या में कानून पारित हुए हैं। अगर इतने कानूनों का सचमुच पालन होता तो भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव और अत्याचार अब तक खत्म हो जाना था। लेकिन पुरुषप्रधान मानसिकता के चलते यह संभव नहीं हो सका है। आज हालात ये हैं कि किसी भी कानून का पूरी तरह से पालन होने के स्थान पर ढेर सारे कानूनों का थोड़ा-सा पालन हो रहा है, लेकिन भारत में महिलाओं की रक्षा हेतु कानूनों की कमी नहीं है। भारतीय संविधान के कई प्रावधान विशेषकर महिलाओं के लिए बनाए गए हैं। इस बात की जानकारी महिलाओं को अवश्य होना चाहिए।
◾संविधान के अनुच्छेद 14 में कानूनी समानता, अनुच्छेद 15 (3) में जाति, धर्म, लिंग एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव न करना, अनुच्छेद 16 (1) में लोक सेवाओं में बिना भेदभाव के अवसर की समानता, अनुच्छेद 19 (1) में समान रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 21 में स्त्री एवं पुरुष दोनों को प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित न करना, अनुच्छेद 23-24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार समान रूप से प्राप्त, अनुच्छेद 25-28 में धार्मिक स्वतंत्रता दोनों को समान रूप से प्रदत्त, अनुच्छेद 29-30 में शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार, अनुच्छेद 32 में संवैधानिक उपचारों का अधिकार, अनुच्छेद 39 (घ) में पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, अनुच्छेद 40 में पंचायती राज्य संस्थाओं में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से आरक्षण की व्यवस्था, अनुच्छेद 41 में बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में सहायता पाने का अधिकार, अनुच्छेद 42 में महिलाओं हेतु प्रसूति सहायता प्राप्ति की व्यवस्था, अनुच्छेद 47 में पोषाहार, जीवन स्तर एवं लोक स्वास्थ्य में सुधार करना सरकार का दायित्व है, अनुच्छेद 51 (क) (ड) में भारत के सभी लोग ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हों, अनुच्छेद 33 (क) में प्रस्तावित 84वें संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था, अनुच्छेद 332 (क) में प्रस्तावित 84वें संविधान संशोधन के जरिए राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है।
◾गर्भावस्था में ही मादा भ्रूण को नष्ट करने के उद्देश्य से लिंग परीक्षण को रोकने हेतु प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 निर्मित कर क्रियान्वित किया गया। इसका उल्लंघन करने वालों को 10-15 हजार रुपए का जुर्माना तथा 3-5 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है। दहेज जैसे सामाजिक अभिशाप से महिला को बचाने के उद्देश्य से 1961 में 'दहेज निषेध अधिनियम' बनाकर क्रियान्वित किया गया। वर्ष 1986 में इसे भी संशोधित कर समयानुकूल बनाया गया।
◾विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत महिलाओं के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रसूति अवकाश की विशेष व्यवस्था, संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुकूल करने के लिए 1961 में प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम पारित किया गया। इसके तहत पूर्व में 90 दिनों का प्रसूति अवकाश मिलता था। अब 135 दिनों का अवकाश मिलने लगा है।
◾महिलाओं को पुरुषों के समतुल्य समान कार्य के लिए समान वेतन देने के लिए 'समान पारिश्रमिक अधिनियम' 1976 पारित किया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी अनेक महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन नहीं मिलता।
◾शासन ने 'अंतरराज्यिक प्रवासी कर्मकार अधिनियम' 1979 पारित करके विशेष नियोजनों में महिला कर्मचारियों के लिए पृथक शौचालय एवं स्नानगृहों की व्यवस्थाकरना अनिवार्य किया है। इसी प्रकार 'ठेका श्रम अधिनियम' 1970 द्वारा यह प्रावधान रखा गया है कि महिलाओं से एक दिन में मात्र 9 घंटे में ही कार्य लिया जाए।
◾भारतीय दंड संहिता कानून महिलाओं को एक सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करता है ताकि समाज में घटित होने वाले विभिन्न अपराधों से वे सुरक्षित रह सकें। भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों अर्थात हत्या, आत्महत्या हेतु प्रेरण, दहेज मृत्यु, बलात्कार, अपहरण एवं व्यपहरण आदि को रोकने का प्रावधान है। उल्लंघन की स्थिति में गिरफ्तारी एवं न्यायिक दंड व्यवस्था का उल्लेख इसमें किया गया है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नानुसार हैं-
◾भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के अंतर्गत सार्वजनिक स्थान पर बुरी-बुरी गालियाँ देना एवं अश्लील गाने आदि गाना जो कि सुनने पर बुरे लगें, धारा 304 बी के अंतर्गत किसी महिला की मृत्यु उसका विवाह होने की दिनांक से 7 वर्ष की अवधि के अंदर उसके पति या पति के संबंधियों द्वारा दहेज संबंधी माँग के कारण क्रूरता या प्रताड़ना के फलस्वरूप सामान्य परिस्थितियों के अलावा हुई हो, धारा 306 के अंतर्गत किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य (दुष्प्रेरण) के फलस्वरूप की गई आत्महत्या, धारा 313 के अंतर्गत महिला की इच्छा के विरुद्ध गर्भपात करवाना, धारा 314 के अंतर्गत गर्भपात करने के उद्देश्य से किए गए कृत्य द्वारा महिला की मृत्यु हो जाना, धारा 315 के अंतर्गत शिशु जन्म को रोकना या जन्म के पश्चात उसकी मृत्यु के उद्देश्य से किया गया ऐसा कार्य जिससे मृत्यु संभव हो, धारा 316 के अंतर्गत सजीव, नवजात बच्चे को मारना, धारा 318 के अंतर्गत किसी नवजात शिशु के जन्म को छुपाने के उद्देश्य से उसके मृत शरीर को गाड़ना अथवा किसी अन्य प्रकार से निराकरण, धारा 354 के अंतर्गत महिला की लज्जाशीलता भंग करने के लिए उसके साथ बल का प्रयोग करना, धारा 363 के अंतर्गत विधिपूर्ण संरक्षण से महिला का अपहरण करना, धारा 364 के अंतर्गत हत्या करने के उद्देश्य से महिला का अपहरण करना, धारा 366 के अंतर्गत किसी महिला को विवाह करने के लिए विवश करना या उसे भ्रष्ट करने के लिए अपहरण करना, धारा 371 के अंतर्गत किसी महिला के साथ दास के समान व्यवहार, धारा 372 के अंतर्गत वैश्यावृत्ति के लिए 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को बेचना या भाड़े पर देना।
◾धारा 373 के अंतर्गत वैश्यावृत्ति आदि के लिए 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को खरीदना, धारा 376 के अंतर्गत किसी महिला से कोई अन्य पुरुष उसकी इच्छा एवं सहमति के बिना या भयभीत कर सहमति प्राप्त कर अथवा उसका पति बनकर याउसकी मानसिक स्थिति का लाभ उठाकर या 16 वर्ष से कम उम्र की बालिका के साथ उसकी सहमति से दैहिक संबंध करना या 15 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ उसके पति द्वारा संभोग, कोई पुलिस अधिकारी, सिविल अधिकारी, प्रबंधन अधिकारी, अस्पताल के स्टाफ का कोई व्यक्ति गर्भवती महिला, 12 वर्ष से कम आयु की लड़की जो उनके अभिरक्षण में हो, अकेले या सामूहिक रूप से बलात्कार करता है, इसे विशिष्ट श्रेणी का अपराध माना जाकर विधान में इस धारा के अंतर्गत कम से कम 10 वर्ष की सजा का प्रावधान है।
◾ऐसे प्रकरणों का विचारण न्यायालय द्वारा बंद कमरे में धारा 372 (2) द.प्र.सं. के अंतर्गत किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि 'बलात्कार करने के आशय से किए गए हमले से बचाव हेतु हमलावर की मृत्यु तक कर देने का अधिकार महिला को है' (धारा 100 भा.द.वि. के अनुसार),दूसरी बात साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (ए) के अनुसार बलात्कार के प्रकरण में न्यायालय के समक्ष पीड़ित महिला यदि यह कथन देती है कि संभोग के लिए उसने सहमति नहीं दी थी, तब न्यायालय यह मानेगा कि उसने सहमति नहीं दी थी। इस तथ्य को नकारने का भार आरोपी पर होगा।
◾दहेज, महिलाओं का स्त्री धन होता है। यदि दहेज का सामान ससुराल पक्ष के लोग दुर्भावनावश अपने कब्जे में रखते हैं तो धारा 405-406 भा.द.वि. का अपराध होगा। विवाह के पूर्व या बाद में दबाव या धमकी देकर दहेज प्राप्त करने का प्रयास धारा 3/4 दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अतिरिक्त धारा 506 भा.द.वि. का भी अपराध होगा। यदि धमकी लिखित में दी गई हो तो धारा 507 भा.द.वि. का अपराध बनता है। दहेज लेना तथा देना दोनों अपराध हैं।
◾दंड प्रक्रिया संहिता 1973 में महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था है। अतः महिलाओं को गवाही के लिए थाने बुलाना, अपराध घटित होने पर उन्हें गिरफ्तार करना, महिला की तलाशी लेना और उसके घर की तलाशी लेना आदि पुलिस प्रक्रियाओं को इस संहिता में वर्णित किया गया है। इन्हीं वर्णित प्रावधानों के तहत न्यायालय भी महिलाओं से संबंधित अपराधों का विचारण करता है।
◾भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के कई प्रावधान भी उत्पीड़ित महिलाओं के हितार्थ हैं। दहेज हत्या, आत्महत्या या अन्य प्रकार के अपराधों में महिला के 'मरणासन्न कथन' दर्ज किए जाते हैं। यह प्रावधान महिला को उत्पीड़ित करने वाले को दंडित करने हेतु अत्यधिक उपयोगी है। स्त्री धन में वैधानिक तौर पर विवाह से पूर्व दिए गए उपहार, विवाह में प्राप्त उपहार, प्रेमोपहार चाहे वे वर पक्ष से मिले हों या वधू पक्ष से तथा पिता, माता, भ्राता, अन्य रिश्तेदार और मित्र द्वारा दिए गए उपहार स्वीकृत किए गए हैं।
◾विवाहित हिन्दू स्त्री अपने धन की निरंकुश मालिक होती है। वह अपने धन को खर्च कर सकती है। सौदा कर सकती है या किसी को दे सकती है। इसके लिए उसे अपने पति, सास, ससुर या अन्य किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है। बीमारी या कोई प्राकृतिक आपदा को छोड़कर स्त्री का पति भी उसके धन को खर्च करने का कोई अधिकार नहीं रखता। इन परिस्थितियों में खर्च किए गए स्त्री धन को वापस करना ससुराल पक्ष की नैतिक जिम्मेदारी होगी। परिवार का अन्य सदस्य किसी भी स्थिति में स्त्री धन खर्च नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय ने एकप्रकरण में कहा है कि स्त्री द्वारा माँग किए जाने पर इस प्रकार के न्यासधारी उसे लौटाने के लिए बाध्य होंगे। अन्यथा धारा 405/406 भा.द.वि के अपराध के दोषी होंगे।
◾धारा 363 में व्यपहरण के अपराध के लिए दंड देने पर 7 साल का कारावास और धारा 363 क में भीख माँगने के प्रयोजन से किसी महिला का अपहरण या विकलांगीकरण करने पर 10 साल का कारावास और जुर्माना, धारा 365 में किसी व्यक्ति (स्त्री) का गुप्त रूप से अपहरण या व्यपहरणकरने पर 7 वर्ष का कारावास अथवा जुर्माना अथवा दोनों, धारा 366 में किसी स्त्री को विवाह आदि के लिए विवश करने के लिए अपहृत करने अथवा उत्प्रेरित करने पर 10 वर्ष का कारावास, जुर्माने के प्रावधान हैं। धारा 372 में वैश्यावृत्ति के लिए किसी स्त्री को खरीदने पर10 वर्ष का कारावास, जुर्माना, धारा 373 में वैश्यावृत्ति आदि के प्रयोजन के लिए महिला को खरीदने पर 10 वर्ष का कारावास, जुर्माना एवं बलात्कार से संबंधित दंड आजीवन कारावास या दस वर्ष का कारावास और जुर्माना, धारा 376 क में पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान संभोग करने पर 2 वर्ष का कारावास अथवा सजा या दोनों।
◾धारा 376 ख में लोक सेवक द्वारा उसकी अभिरक्षा में स्थित स्त्री से संभोग करने पर 5 वर्ष तक की सजा या जुर्माना अथवा दोनों, धारा 376 ग में कारागार या सुधार गृह के अधीक्षक द्वारा संभोग करने पर 5 वर्ष तक की सजा या जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान, धारा 32 (1) में मरे हुए व्यक्ति (स्त्री) के मरणासन्न कथनों को न्यायालय सुसंगत रूप से स्वीकार करता है बशर्ते ऐसे कथन मृत व्यक्ति (स्त्री) द्वारा अपनी मृत्यु के बारे में या उस संव्यवहार अथवा उसकी किसी परिस्थिति के बारे में किए गए हों, जिसके कारण उसकी मृत्यु हुई हो। धारा 113 ए में यदि किसी स्त्री का पति अथवा उसके रिश्तेदार के द्वारा स्त्री के प्रति किए गए उत्पीड़न, अत्याचार जो कि मौलिक तथा परिस्थितिजन्य साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित हो जाते हैं, तो स्त्री द्वारा की गई आत्महत्या को न्यायालय दुष्प्रेरित की गई आत्महत्या की उपधारणा कर सकेगा। धारा 113बी में यदि भौतिक एवं परिस्थितिजन्य साक्ष्यों द्वारा यह प्रमाणित हो जाता है कि स्त्री की अस्वाभाविक मृत्यु के पूर्व मृत स्त्री के पति या उसके रिश्तेदार दहेज प्राप्त करने के लिए मृत स्त्री को प्रताड़ित करते, उत्पीड़ित करते, सताते या अत्याचार करते थे तो न्यायालय स्त्रीकी अस्वाभाविक मृत्यु की उपधारणा कर सकेगा अर्थात दहेज मृत्यु मान सकेगा।
◾पिछले दशक से महिलाओं की सुरक्षा के लिए जो कानूनी कवच दिया गया है, वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। ये कानून ठीक तरह से लागू हों, इसके लिए सजग रहना होगा। लेकिन आने वाली सदी में महिलाओं की जगह क्या हो, इस बारे में एक समग्रदृष्टि विकसित करनी होगी। आज आवश्यकता जरूरत से ज्यादा कानूनों के थोड़े से पालन की नहीं, बल्कि थोड़े से कानून के अच्छी तरह पालन करने की है।
◾कानून कहता है कि-
* पुरुष व स्त्री को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले
* महिला कर्मचारियों के लिए पृथक शौचालय व स्नानगृहों की व्यवस्था हो
* किसी महिला के साथ दास के समान व्यवहार नहीं किया जा सकता
* बलात्कार के आशय से किए गए हमले से बचाव हेतु हत्या तक का अधिकार महिला को है
* विवाहित हिन्दू स्त्री अपने धन की निरंकुश मालिक है, वह उसे जैसे चाहे खर्च कर सकती है
* दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध है
◾भारतीय दंड संहिता की धारा 41 (सी) के अंतर्गत संज्ञेय अपराध, वे अपराध हैं जिनमें पुलिस को प्रत्यक्ष रूप से बयान देने व बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है। इसके विपरीत जिन प्रकरणों में प्रत्यक्ष रूप से पुलिस को संज्ञान लेने व बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है, असंज्ञेय अपराध कहलाते हैं। धारा 47 (ए) के अंतर्गत गिरफ्तारी से बचने के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी मकान में छिपता है या प्रवेश करता है तो गिरफ्तार करने वाला व्यक्ति या पुलिस अधिकारी विहित नियमों के अनुसार मकान में प्रवेश कर सकता है और उस मकानकी तलाशी भी ले सकता है, परंतु धारा 47 (बी) के अंतर्गत यदि उस मकान में या उसके किसी भाग में ऐसी महिला का निवास है जिसकी गिरफ्तारी नहीं की जानी हो तो गिरफ्तार करने वाला अधिकारी, उस महिला से, उस मकान या स्थान से हट जाने के लिए आग्रह करेगा या उसे जाने देगा।
◾धारा 51 (1) (2) के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की तलाशी विहित नियमों द्वारा ली जा सकेगी किंतु यदि गिरफ्तार व्यक्ति महिला है तो पूरी शिष्टता के साथ किसी अन्य महिला द्वारा ही तलाशी ली जा सकेगी, धारा 53 (2) के अंतर्गत पुलिस अधिकारी की प्रार्थना पर किसीस्त्री अभियुक्त का शारीरिक परीक्षण किसी महिला चिकित्सा व्यवसायी द्वारा किया जा सकेगा। धारा 98 के अंतर्गत किसी स्त्री या 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को विधि विरुद्ध प्रयोजन के लिए रखे जाने या निरुद्ध रखे जाने पर और शपथ पर ऐसा परिवाद किए जाने पर, जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट विधि विहित नियमों में उसे स्वतंत्र करने का आदेश दे सकता है। धारा 100 (3) के अंतर्गत यदि कोई महिला अपने पास कोई चीज छिपाती है तथा उसकी जामा तलाशी करना है तो उसकी तलाशी पूरी शिष्टता के साथ अन्य कोई महिला द्वारा ही की जाना चाहिए।









                                   अध्याय-2
                           घरेलू हिंसा महिला सुरक्षा
हर रोज महिलाओं को थप्पड़ों, लातों, पिटाई, अपमान, धमकियों, यौन शोषण और अनेक अन्य हिंसात्मक घटनाओं का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि उनके जीवन साथी या उसके परिवार के सदस्य उनकी हत्या कर देते हैं। इन सबके बावजूद हमें इस प्रकार की हिंसा के परे में अधिक पता नहीं चलता है क्योंकि शोषित व प्रताड़ित महिलाएं इसके बारे में चर्चा करने से घबराती, डरती व झिझकती हैं ।अनेक डॉक्टर्स, नर्सें व स्वास्थ्य कर्मचारी हिंसा को एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या के रूप में पहचानने में चुक जाते हैं।
यह अध्याय महिलाओं पर घरों में होने वाली हिंसा से संबंधित है ।यह आपको यह समझने में सहायक होगा कि हिंसा क्यों होती है, इसके लिए आप क्या कर सकती हैं तथा अपने समुदाय में परिवर्तन लाने के लिए किस प्रकार कार्यरत हो सकते हैं।
कोई पुरुष महिला को चोट क्यों पहुंचता है ?
महिला को चोट पहुंचाने के लिए के पुरुष अनके बहाने दे सकता है जैसे कि-वह शराब के नशे में था ; वह अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है ।परंतु वास्तविकता यह है कि वह हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी के माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक मर्द होने के कारण अपना हक समझता है।
जब एक पुरुष का अपनी स्वयं की पत्नी की जिन्दगी पर काबू नहीं रहता है तो वह हिंसा का प्रयोग करके दूसरों की जिन्दगी पर नियंत्रण करने का कोशिश करता है ।अगर कोई व्यक्ति सामान्य तरीकों का प्रयोग करके अपने जीवन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता है तो सुमें कोई बुराई नहीं है परंतु यदि वह दूसरों के जीवन पर अपना नियंत्रण – वह भी हिंसा का प्रयोग कर के – बनाने की कोशिश करे तो वह सही नहीं है।
महिलाओं के साथ हिंसा के कारण
यहां कुछ ऐसे कारणों की चर्चा की गई है जो यह वर्णित करते हैं कि कुछ पुरुष महिलाओं को चोट क्यों पहुंचाते हैं  -
किसी कमजोर व्यक्ति के साथ हिंसा में लिप्त होकर एक पुरुष अपनी कुंठाओं से मुक्ति पाने का प्रयत्न करता है।वास्तविक परेशानी को पहचाने या कोई उसका कोई व्यवहारिक समाधान ढूंढने के बजाय, पुरुष हिंसा का सहारा लेकर असहमति को जल्दी से समाप्त करना चाहत है।किसी पुरुष को लड़ना बेहद रोमांचक लगता है और उससे उसे नई स्फूर्ति मिलती है ।वह इस रोमांच को बार बार पाना चाहता है।अगर कोई पुरुष हिंसा का प्रयोग करता है कि वह जीत गया है और अपनी बात मनवाने का प्रयत्न करता है हिंसा की शिकार, चोट व अपमान से बचने के लिए, अगली स्थिति में, उसका विरोध करने से बचती है ।ऐसे में पुरुष को और भी शह मिलती है।पुरुष को मर्द होने के बारे में गलत धारणा है।
अगर पुरुष यह मानता है कि मर्द होने का अर्थ है महिला के उपर पूरा नियंत्रण होना तो हो सकता है कि वह महिला के साथ हिंसा करने को भी उचित माने।कुछ पुरुष यह समझते हैं कि मर्द होने के कारण उन्हें कुछ चीजों का हक है जैसे कि अच्छी पत्नी, बेटों की प्राप्ति, परिवार के सारे फैसले करने का हक। पुरुष के लगता है कि महिला उसकी है या उसे वह चाहिए।यदि महिला सशक्त है तो पुरुष को यह  लग सकता है कि वह उसे खो देगा या महिला को उसकी जरुरत नहीं है ।वह कुछ ऐसे कार्य करगे जिससे महिला उस पर अधिक निर्भर हो जाए।
उसे अन्य किसी और तरीके के व्यवहार करना आता ही नहीं है (सामाजिक  अनुकूलन)अगर पुरुष ने अपने पिता या अन्य लोगों के तनाव व परशानी की स्थिति मेंहिंसा का सहारा लेते हुए देखा है तो केवल ऐसा व्यवहार करना ही सही लगता है ।उसे कोई अन्य व्यवहार करना ही सही लगता है ।उसे कोई अन्य व्यवहार का पता ही नहीं है।
हिंसा के प्रकार
एक पुरुष किसी महिला पर अनके तरीकों से नियंत्रण करने की कोशिश करता है ।मार-पिटाई उनमें से केवल एक तरीका है ।ये सभी तरीके महिला को चोट पहुंचा सकते हैं।कल्पना कीजिए कि नीचे बनाया हुआ चक्र एक पहिया है ।शक्ति व नियंत्रण इस पहिये के केंद्र में हैं क्योंकि ये सभी कार्य कलापों की जड़ें हैं ।पहिये का हर भाग एक व्यवहार को दर्शाता है जिसका प्रयोग एक हिंसक पुरुष एक महिला को नियंत्रित करने के लिए करता है ।हिंसा इस पहिये की परिधि (रिम ) है जो एक साथ रखती है और उसे शक्ति प्रदान करती है।

एक प्रकार की प्रताड़ना आमतौर पर, दुसरे प्रकार में बदल जाती है
अनेक मामलों में मौखिक शाब्दिक प्रताड़ना थोड़े समय के बाद शारीरिक प्रताड़ना में बदल जाती है इसकी शुरुआत पत्नी द्वारा पर्याप्त दहेज है लाने से शुरू होकर यह एक शाब्दिक प्रताड़ना, फिर हिंसा, शारीरिक हिंसा में बदल जाती है ।उसे त्योहारों, उत्सवों तथा बिमारियों जैसे अवसरों पर अपने मायके जाने की इजाजत भी नहीं दी जाती है ।इस प्रकार का घुटन वाला व्यवहार, शारीरिक पिटाई से भी अधिक दर्दनाक बन जाता है।
खतरे के चिन्ह
जब गली-गलौच वाला संबंध हिंसक बन जाता है, तो उसे छोड़ना और भी कठिन हो जाता है ।जितने लंबे समय तक महिला ऐसे संबंध में रहती है, पुरुष का उस पर उतना ही नियंत्रण बढ़ता जाता है उसका आत्मविश्वास समाप्त होता जाता है ।कुछ पुरुषों की अन्य पुरुषों की तुलना में अधिक हिंसक हो जाएगा ।अगर आप इन लक्षणों को देखते हैं और अगर आपके पास इन संबंध से छुटकारा पाना संभव है तो ध्यान से सोचिए।
अपने आप से ये प्रश्न पूछिए :
जब आप अन्य लोगों से मिलती है ( आपके परिवार के सदस्य या मित्रगण) तो क्या वह इर्ष्यपूर्ण व्यवहार करता है या आप पर उससे झूठ बोलने का आरोप लगाता है ? अगर आप उसे इर्ष्यापूर्ण व्यवहार को रोखने के लये अपने व्यवहार में बदलाव लाटी है तो इसका अर्थ है आप उसके नियंत्रण में हैं।
क्या वह आपको, आपके परिवारजनों या मित्रों से मिलने तथा अपने कार्य स्वयं करने से रोखने का प्रयास करता है ? इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि वह ऐसा करने के लिए क्या कारण देता है ।इसका सीधा अर्थ है कि वह आपको अपने परिवारजनों तथा मित्रों का सहारा प्राप्त करने से रोक रहा है ।अगर आपके पास कोई सहायता प्राप्त करने व कहीं जाने की जगह नहीं होगी तो उसे आपको प्रताड़ित करने में आसानी होगी।
क्या वह दुसरे व्यक्तियों के सामने आपका अपमान करता है या मजाक उडाता है ? धीरे धीरे आप उसकी कही बातों पर विश्वास करने लगेंगी और आपको यह यकीन होने लगेगा कि अगर आपके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है तो यह ठीक नहीं है व आप इसी योग्य हैं।
जब उसे गुस्सा आता है तो वह क्या करता है ? क्या वह चीजें तोड़ता या फैंकना शुरू कर देता है ? क्या गुस्से में उसने अभी आपको मारा –पीटा है या ऐसा करने की धमकी दी है ? क्या अभी उसने किसी अन्य महिला पर हाथ उठाया है ? इन सबसे यह पता चलता है कि उसने अपने कर्मों पर नियंत्रण करने में कठिनाई होती है।
क्या वह अध्यापकों, अपने सीनियरों या अपने पिता जैसे शक्तियुक्त लोगों के हाथों अपमानित महसूस करता है ? उसे यह एहसास हो सकता है कि वह शक्तिहीन या असहाय है ।अपनी इस हीन भावना पर काबू पाने के लिए वह अपने जीवन में मौजूदअन्य लोगों पर नियंत्रण करने के लिए हिंसा का सहारा ले सकता है।
क्या वह ऐसा दावा करता है कि शराब, नशीली दवाएं या तनाव उसके हिंसात्मक व्यवहार के लिए जिम्मेवार है ? अगर वह किसी अन्य को अपने इस व्यवहार के लिए जिम्मेवार ठहरता है तो ऐसा कह सकता है कि जब उसे कोई नै नौकरी मिल जाएगी या वे किसी नए शहर में चले जाएंगे या वह/ नशीली दवाएं लेना बंद कर देगा तको स्थिति सुधर जाएगी।
क्या वह अपने दुर्व्यवहार के लिए आपको या किसी अन्य को दोषी ठहरता है ? क्या वह यह मानने से इंकार करता है कि कोई गलत कार्य कर रहा है ? अगर आपके गंदे व्यवहार के लिए वह आपको दोषी मानता है तो संभावना यह है कि वह अपने आपको बदल नहीं सकता है।
कुछ महिलाओं के प्रताड़ित होने की संभावना अधिक होती है
बहुत से दंपतियों में , पुरुष पहली बार तब हिंसात्मक हो जाता है जब महिला पहली बार गर्भवती या उसके एक कन्या को जन्म दिया हो ।युवा पत्नियों, विशेष कर गरीब वर्ग की, को अपने पतियों के हाथों ऐसी स्थितियों में दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है ।परुष ऐसी स्थितियों का अवैध संबंध बनाने के लिए उपयोग कर सकता है , इसलिए उसे ऐसा लगने लगता है कि उसका नियंत्रण समाप्त हो रहा है ।उसे इस बात पर भी क्रोध आ सकता है कि उसे यह लगे कि वह उससे अधिक, बच्चे पर ध्यान दे रहीहै या वह यौन संबंधों के लिए मन करती है ।इसके अतिरिक्त अनेक दम्पतियों में बच्चे के आगमन से आर्थिक स्थिति खराब होने की चिंता के दबाव भी हो सकते हैं ।अशक्तता युक्ता महिलाओं के भी अधिक प्रताड़ित होने की संभावना होती है। कुछ पुरुषों को इस बात पर भी क्रोध का सकता है कि उन्हें इच्छित आदर्श पत्नी नहीं मिली।कुछ पुरुष ऐसा भी सोचते हैं कि अशक्त महिला को नियंत्रित करना अधिक आसान होता है क्योंकि वह अपनी रक्षा करने में अक्षम होती है।
हिंसा के चक्र
हिंसा की पहली घटना प्राय: अपने आपमें एक बारगी होने वाली घटना लग सकती है ।लेकिन अनेक मामलों में, पहली घटना के बाद निम्न ढर्रा या चक्र विकसित होता है :
जैसे जैसे हिंसा की घटनाओं में वृद्धि  होती है, वैसे-वैसे अधिकतर दम्पतियों में शांति काल की अवधि कम होती है चूँकि तब तक महिला की इच्छा शक्ति टूट चुकी होती है और पुरुष का वर्चस्व उस पर पूर्ण रूप से होता हो जाता है ।ऐसी स्थिति में पुरुष के लिए यह भी आवश्यक नहीं रह जाता है कि वह स्थिति में सुधार लाने के की वायदे भी करे।
हिंसा के हानिकारक प्रभाव
हिंसा केवल महिलाओं को ही चोट नहीं पहुंचती है, यह उनके बच्चों व पुरे समाज को प्रभावित करती है|
महिलाओं में, पुरुष की हिंसा के ये परिणाम हो सकते हैं :
प्रेरित होने की भावना तथा आत्मसम्मान में कमी।
मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, जैसे कि चिंता, घबराहट, अवसाद, भोजन व नींद संबंधित समस्याएं ।हिंसा का सामना करने के लिए कोई महिला अपनी सम्पूर्ण पहचान को बदलने का पयत्न करने लगती हैं ।हिंसा से बचने के लिए वह अपने पहले व्यक्तित्व की छाया मात्र रह जाती है तथा अपने उपर लगाए गए झूठे आरोपों को विरोध भी नहीं करती है ।वह अपने छोटी छोटी खुशियों से भी स्वयं को वंचित रखने लगती है, घर –परिवार वालों व मित्रों से संबंध तोड़ने लगती है तथा एकाकीपन व अपराध बोध में शरण लेने लगती है ।उसे नशीली दवाईयों और शराब की आदत पड़ सकती है या वह अनेक पुरुषों से यौन संबंध बना बैठती है।
वह गंभीर चोटों व दर्द, हड्डियों के टूटने जलने, कट शरीर पर नीले दागों, सिर दर्द, पेट दर्द व मांसपेशियों में दर्द आदि से पीड़ित हो सकती है जो प्रताड़ना के बाद लंबे समय तक रह सकते हैं।
यौन स्वास्थ्य की समस्याएं ।गर्भावस्था के दौरान पिटाई से गर्भपात भी हो सकता है ।यौन उत्पीडन के कारण वे अवांछित गर्भ, यौन संचारित रोग या एच.आई.वी./एड्स का भी शिकार हो सकती हैं ।यौन उत्पीडन के कारण प्राय: यौन संबंधों में अनिच्छा, दर्द व भय उत्पन्न हो सकता है।
मृत्यु
बच्चों में अपनी मां को हिंसा का शिकार होने हुए देखकर बच्चों में ये सब हो सकता है : 
लड़के अपने पिता से गुस्सैल व आक्रामक व्यवहार सीखते हैं ।इस का असर ऐसे बच्चों का अन्य कमजोर बच्चों व जानवरों से हिंसा करते हुए देखा जा सकता है।
लड़कियां नकारात्मक व्यवहार सीखती हैं और वे अकसर ही दब्बू, चुप-चुप रहने वाली या परिस्थितियों  से दूर भागने वाली बन जाती है।
भयंकर सपने व अन्य भय उत्पन्न हो जाते हैं ।जिन परिवारों में नारी-उत्पीडन व हिंसा होती है, वहां बच्चे प्राय: ठीक से भोजन नहीं खाते हैं, उनकी वृद्धि  व विकास में शिथिलता आ सकती है तथा उनकी सीखने-समझने की शक्ति भी धीमी हो जाती है ।ऐसे बच्चों में पेट दर्द, सिर दर्द, दमा जैसी बिमारियां तथा सोते समय बिस्तर में पेशाब करने जैसी समस्याएं हो जाती है।
अगर उनके साथ हिंसा होती है तो वे चोटग्रस्त हो सकते हैं और मौत भी हो सकती है|
प्राय: ही पुरुष अपनी पत्नी को परोक्ष रूप से त्रास पहुंचाने के लिए बच्चों को मरता-पिटता है ताकि वह और भी असहाय महसूस कर सके।
हिंसा के कारण समाज समाज पर प्रभाव :
अगली पीढ़ी में हिंसा चक्र की निरंतरता बनी रहती है।
यह धारणा बनी रहती है की पुरुष महिलाओं से बेहतर होते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति की जीवन गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि हिंसा का शिकार हुई महिलाएं समाज की जीवन की विभिन्न गतिविधियों में कम भाग लेती है|
क्यों रहती हैं महिलाएं उन पुरुषों के साथ जो उन्हें चोट पहुंचाते हैं ?
जब लोग किसी पुरुष के हाथों एक महिला के उत्पीडन व हिंसा के बारे में सुनता हैं तो उनका पहला प्रश्न अकसर यह होता है, वह उसे छोड़ क्यों नहीं देती ? अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं जो महिला को इस प्रकार के घुटनकारी  व उत्पीडन युक्त जीवन संबंधों को जारी रखने के लिए मजबूर कर देते हैं ।इनमें ये सब सम्मिलित हैं :
भय व धमकियां : पुरुष ने उसे यह धमकी दी हो सकता है , “अगर तुम यहां से गई तो में तुम्हें, बच्चों और तुम्हारी मां को जान से खत्म कर दूंगा – “।महिला के ऐसा लग सकता है कि वह वहां रह कर – वह सब कर रही है जिससे उसकी व अन्य लोगों की जान की रक्षा हो सके।
पैसे व स्थान का अभाव : महिला के पास न तो पैसा ही हो और न ही कहीं जाने का ठिकाना ।यह विशेषत: उन स्थितियों में और भी सत्य होता हैं जहां पैसे पर पुरुष का सम्पूर्ण नियंत्रण हो और उसने उसके रिश्तेदारों, मित्रों आदि से मिलने पर रोक लगा राखी हो।
शिक्षा व दक्षता की कमी : इन की कमी के करण वह कोई रोजगार पाने में असमर्थ हो सकती है जिससे वह अपना व बच्चों को पाल पोस सके।
सुरक्षा का अभाव : महिला के पास पुरुष की हिंसा और चोटों व मौत से बचने की कोई सुरक्षा न हो।
शर्म: हो सकता है कि उसे यह लगे कि हिंसा उसकी स्वयं की वजह से हो रही है और वह इसी लायक है।
धार्मिक व सांस्कृतिक प्रभाव: अनेक महिलाओं का ऐसा विश्वास होता है कि चाहे कुछ भी हो, शादी को बचाना उसका कर्त्तव्य है।
व्यवहार परिवर्तन की आशा : महिला को ऐसा लग सकता है कि वह उस पुरुष से प्यार करती है और उस रिश्ते को जारी रखना चाहती है। उसे आशा रहती है की किसी न किसी तरह से हिंसा रुक जाएगी। बच्चों को बिना बाप के कर देने का अपराधबोध।
लेकिन शायद एक बेहतर प्रश्न हो सकता है यह पूछना कि “ वह क्यों नहीं घर छोड़कर जाता “? जब हम यह पूछते हैं कि “वह उसे छोड़ कर क्यों नहीं जाती” तो इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारे विचार में यह उसकी व्यक्तिगत समस्या है ।लेकिन ऐसा सोचना सरासर गलत है कि हिंसा केवल उसकी समस्या है।

यह पूरे समाज का यह उतरदायित्व है की समाज का हर व्यक्ति स्वस्थ व कुशलतापूर्वक रहे। अगर पुरुष या परिवार का कोई अन्य सदस्य महिला के स्वस्तंत्र रूप से रहने के अधिकार का हनन करके या उसे चोट पहुंचा अथवा मारकर कोई अपराध कर रहा है तो इसके इन कुकर्मों को चुनौती देना व रोकना आवश्यक है।
इस स्थिति में क्या करना चाहिए
◾एक सुरक्षा योजना बनाइयें
एक महिला का अपने जीवन साथी की हिंसा के उपर नियंत्रण नहीं होता है परंतु यह तो उसके हाथ में हैं कि वह इस हिंसा का किस प्रकार उत्तर देती है और उससे निपटती हैं ।वह पहले से ही कोई ऐसी योजना बना सकती हैं ताकि पुरुष के हिंसा समाप्त करने के पल तक स्वयं को और अपने बच्चों को सुरक्षित रख सके।
◾अगली बार हिंसा शुरू होने से पहले की सुरक्षा
अपने आस पड़ोस में किसी को हिंसा के बारे में बतायें। उसे कहें कि आगे फिर आप मुसीबत में हों तो वह स्वयं आये या आपके लिए कोई सहायता पहुंचाये ।संभवत: कोई पडोसी, पुरुष रिश्तेदार या पुरूषों अथवा महिलाओं का कोई समूह आपकी सहायता के लिए आ सकता है।
कोई ऐसा विशेष शब्द या संकेत निर्धारित करें जिसे सुनकर आपके बच्चे या घर का कोई अन्य स्वस्थ्य आपके लिए सहायता प्राप्त कर सके।
आपने बच्चे को सुरक्षित स्थान तक पहुंचना सिखाईए।
◾हिंसा के दौरान सुरक्षा
अगर आपको लग रहा है कि वह (पुरुष) हिंसक होने ही वाला है तो यह सुनिश्चित करें कि हिंसात्मक कार्यवाई ऐसे स्थान पर हो जहां कोई हथियार अथवा वस्तु न हो जिनसे वह आपको नुक्सान पहुंचा सके या जहां से आप जल्दी से भाग सकें।
अपनी निर्णय लेने की योग्यता का सर्वोतम प्रोयग करें। जो आवश्यक हो वह करें जिससे आप उसे शांत कर सकें तथा आप व आपके बच्चे सुरक्षित रहें।
यदि आपको उस स्थान से दूर भागने की आवश्यकता हो तो इसके बारे में सोचिए । सोचिए कि आपके लिए सबसे सुरक्षित जगह कौन से होगी।
◾महिला के घर छोडकर जाने की स्थिति में सुरक्षा
पैसा तो हर स्थिति में बचाईए ।इस पैसे को घर से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर या बैंक में अपने नाम के खाते में रखें ताकि आप अधिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें।
अगर आप ऐसा सुरक्षित  रूप से कर सकती हैं तो पुरुष पर निर्भरता कम करने के अन्य तरीकों के बारे में सोचिए ।उदहारण के लिए मित्र बनाईए, किसी संगठन या समूह के सदस्य बनिए या अपने पिरवार के साथ अधिक समय बताईए।
ऐसे “आश्रम घरों” या सेवाओं के बारे में जानकारी एकत्रित करके रखें जो उत्पीडित महिलाओं और उसके बच्चों के लिए उपलब्ध है ।घर छोड़ने से पहले नजदीक के किसी गृह के बारे में जानकारी आवश्य ले लीजिए।
किसी विश्वसनीय मित्र या संबंधी से पूछिए कि क्या वे आपके अपने पास रहने देंगे या आपको पैसा उधार दे सकेंगे ? ये लोग ऐसे होने चाहिए जो आपके जीवन साथी को इस बारे में न बतायें।
महत्वपूर्ण दस्तावेजों  तथा प्रमाणपत्रों की कापियां अपने लिए एकत्रित करें ।जैसे कि- आपका पहचान पत्र, बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र ( जिसमें पिता का नाम हो ), टीकाकरण कार्ड, आपकी शादी का प्रमाणपत्र या कार्ड (जिसके आपके पति के पहचान निर्धारित की जा सके) ।अगर आपको रख-रखाव भत्ते का दावा करना पड़ा तो इन सब की आवश्यकता होगी ।इन सब की एक कॉपी घर पर रखें तथा दूसरी कॉपी किसी विश्वसनीय व्यक्ति के पास घर से दूर रखें।
पैसा, दस्तावेजों की कॉपीयां तथा अतिरिक्त कपड़े किसी विश्वसनीय व्यक्ति के पास रखें ताकि आप जल्दी से जा सकें।
अगर आप ऐसा बिना किसी झंझट के कर सकें तो अपने बच्चों के साथ आपनी भागने की योजना का एक बार पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) करके यह देखें कि क्या यह कार्य करती है अथवा नहीं ।ध्यान रखें कि किसी बच्चे को इस बारे में नहीं बताएं।
अगर आपको घर छोडकर जाना पड़े
अगर आपने घर छोडकर जाना निश्चित कर लिया है तो कुछ नई समस्याओं का सामना करने के लिए अपने आपको तैयार करिए।
सुरक्षा :
किसी महिला के लिए घर छोडकर जाने के तुरंत पश्चात का समय सबसे अधिक खतरनाक होता है ।चूँकि पुरुष महिला पर नियंत्रण समाप्त खो चूका होता है, इसलिए वह इस नियंत्रण को पुन: हासिल करने के लिए कुछ भी कर सकता है ।वह महिला को जान से मार डालने की अपनी धमकी पर भी आचरण कर सकता है ।महिला को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह किसी सुरक्षित स्थान पर रह रही हैं और इस बारे में महिला को किसी को भी नहीं बताना चाहिए ।पति उन लोगों को आपके निवास स्थल के बारे में बताने के लिए विवश कर सकता है।
अपने बलबूते पर जीना :
आपना व अपने बच्चों का गुजर बसर करने का कोई तरीका ढूंढइए ।अगर आप अपने मित्रों या परिवारजनों के पास रह सकती हैं तो इस समय का और शिक्षा या रोजगार दक्षता हासिल करने के लिए सदुपयोग करें ।आप किसी अन्य उत्पीडित महिला के साथ भी रह सकती है ।इससे पैसे की बचत होगी।
भावनाएं :
आपको ऐसा महसूस हो सकता है कि नई ज़िन्दगी की शुरुआत करने के लिए आवश्यक साधन जुटाना एक अत्यंत कठिन कार्य है ।नई जगह में आपको भय व एकाकीपन लग सकता है क्योंकि आप अनजान जगह पर रहने की आदि नहीं हैं। चाहे आपका पति ने आपके साथ कितना भी दुर्व्यवहार क्यों न किया हो – आप फिर भी उससे बिछुड़कर दुखी महसूस कर सकती हैं ।जब वर्त्तमान स्थिति में आप कठिनाईयों का सामना कर रही हैं तो आप शायद घर छोड़ने से पहले की कठिन परिस्थितियों को भूलने लगें।थोड़ा धीरज रखें ।कुछ समय गुजरने दें ताकि आप अपनी गुजारी ही ज़िन्दगी तथा अपने जीवन साथी से बिछुड़ने के गम पर काबू पा सकें ।मजबूत बने रहने का प्रयत्न करें ।आपकी जैसी स्थिति से गुजरती हुई महिलाओं से मिलिए ।साथ रहकर, एक दुसरे को सहारा दीजिए।
अगर सुखद परिस्थितियों में परिवर्तन लाना है तो लोगों क महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा ।“ऐसा ही होता है “ या “यह तो महिला का दोष है“ जैसे विचारों से मुक्ति पानी होगी ।यहां पर हम आपके समुदाय में हिंसा की समाप्ति के बारे में कुछ विचार प्रकट कर रहें हैं :
इस विषय में चर्चा करें
हिंसा व उत्पीडन के विषय में चर्चा करना इसको रोकने की दिशा में पहला कदम है।ऐसी महिलाओं को खोजने का प्रयत्न करें जिन्होंने हिंसक व उत्पीड़क पुरुषों का व्यवहार भुगता है ।उनसे विचारों का आदान-प्रदान करें ।ऐसे पुरुषों को खोजिए जो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को गलत मानते हैं ।हिंसा को बातचीत का एक सामान्य मुद्दा बनाईए ।इसको ऐसा विषय बनाईए जिसके बारे में लोग कहें की यह गलत है।
घर छोड़ने वाली महिलाओं के लिए सेवाएं स्थापित करें
महिलाओं के लिए ऐसी परामर्श (काउंसलिंग) सेवाएं व आश्रय गृह स्थापित करें जिन्हें वे आवश्यकता पड़ने पर शीघ्रातिशीघ्र प्रयोग कर सकें।
अन्य लोगों-विशेषकर बड़े व अधिक शक्तिशाली संगठनों से समर्थन प्राप्त करें। उदहारण के लिए यह देखें कि क्या आपके देश में स्वस्थ्य संस्थाओं का एक ऐसा नेटवर्क है जो सहायता कर सके।आप समुदाय के ऐसे माननीय सदस्यों से भी इस विषय पर चर्चा कर सकती है जिन पर आप विश्वास करती हैं।आपने साथ, जितने लोग हो सके, इस कार्य में लगाएं।
महिलाओं को कानून में दिए गए उनके अधिकारों के बारे में जानकारी दें ।परिवारों व हिंसा से संबंधित ऐसे कानून हो सकते हैं जिन्हें महिलाएं प्रयोग कर सकती है।भारत में ऐसी महिलाओं के लिए नि:शुल्क क़ानूनी सहायता उपलब्ध कराने का भी प्रावधान है जो पैसा नहीं दे सकती है ।महिलाओं को नई दक्षताओं में प्रसिक्षण देने के साधन खोजिए ताकि उत्पीड़ित महिलायें, आवश्यकता पड़ने पर, अपनी गुजर बसर कर सकें।
सामाजिक दबाव का प्रयोग करें
ऐसे कौन से दबाव हैं जो आपके क्षेत्र में लोगों को गलत समझे जाने वाले कार्यों को करने से रोकते हैं ? कहीं पर पुलिस का डर होता है तो कहीं पर सेना, समझ के बुजुर्ग, परिवार या धर्म ।अधिकतर स्थानों पर ये संयुक्त रूप से कार्य करते हैं।
सामुदायिक नेताओं तथा नया पुरुषों को महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों तथा हिंसा के विरोध में बोलने तथा महिलाओं को पीटने वाले लोगों की निंदा करने के लिए प्रोत्साहित करें ।महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए उस जगह पर काम करने वाले दवाबों का प्रयोग करें।
कुछ देशों में महिलाओं ने संगठित होकर ऐसे कानून लागु करवा दिए हैं जिनके द्वारा महिलाओं को उत्पीडित करने वाले पुरुषों को दंडित किया जा सकता है। फिर भी, कानून हमेशा ही उत्पीड़ित महिलाओं की सहायता नहीं करता है ।कहीं-कहीं कानूनों को इमानदारी से लागू करने वालों पर पूर्णतया विश्वास नहीं किया जा सकता है ।किंतु अगर आपके क्षेत्र में कानून तंत्र और पुलिस दोनों ही महिलाओं की सुरक्षा करने का लिए तत्पर हैं तो संबंधित कानूनों और महिलाओं के अधिकारों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करें ।अपने बच्चों को हिंसा मुक्त जीवन गुजरने के लिए तैयार करने वाले तरीकों से पालें-पोसें। उन्हें अहिंसक तरीकों से समस्याओं का समाधान करना सिखाईए। उन्हें स्वयं का एक दूसरे का तथा अपने बड़ों का सम्मान करना सिखाईए।
महिलाओं के विरुद्ध हिंसा रोकने के लिए स्वास्थ्य कर्मचारी एक अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं ।केवल महिला के जख्मों की मरहम मिटटी करना ही काफी नहीं है।


जब आप किसी महिला का परिक्षण करें तो उत्पीडन के लक्षणों को भी देखें।
पुरुष अकसर ही अपनी पत्नियों के साथ मार पीट करते हैं ।हो सकता है कि इनके कोई लक्षण आपके बाहर से नजर न आयें ।मार-पीट की शिकार महिला अपने कपड़ों से इन लक्षणों को छिपाने की कोशिश करती हैं ।स्वास्थ्य कर्मचारी होने के नाते आप ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों में से हैं जो महिला के गुप्त अंगों देख पातें हैं।
अगर आपको कोई असामान्य निशान, धब्बे या जख्म नजर आये तो महिला से उनके होने का कारण पूछिए ।अगर कोई महिला आपके पास दर्द, खून स्त्राव, टूटी हड्डियाँ या अन्य कोई चोट के साथ आये तो उससे पूछिए की क्या उसे पीटा गया है ? याद रखिए कि मार पीट की शिकार अनके महिलाएं इस प्रकार की चोट व लक्षणों को “दुर्घटना” केकारण होना बताती है ।उसे आश्वासन दीजिए कि आप कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिसे वह नहीं चाहती हो। हर चीज को लिख लें । जब आप हिंसा का शिकार हुई किसी महिला का परिक्षण करें तो मानव शरीर की एक आकृति कागज पर बनाएं तथा उस महिला के शरीर के अगले व पिछले भागों पर पाई गई चोटों को अकिंत करें। उस व्यक्ति का भी नाम लिखें जिसने उसे ये चोट पहुंचाई हैं ।यह भी पता करने का प्रत्यन्न करें कि क्या परिवार के किसी अन्य सदस्य, जैसे कि उसकी बहन या बच्चों, के साथ भी ऐसा हुआ है ? अगर उसको खतरा है तो उससे पूछें कि वह क्या करना चाहती है ।चाहे वह घर छोड़ना चाहे अथवा नहीं, एक सुरक्षा योजना बनवाने में उसकी सहायता करें ।अगर वह पुलिस सहायता प्राप्त करना चाहती हैं तो उसमें भी उसकी सहायता करें ।आप यह सुनिश्चित करें कि पुलिस उसकी शिकायत को गंभीरता से ले ।आप उस उत्पीडित महिलाओं, सामाजिक संस्थाओं तथा गैर सरकारी संस्थाओं से संपर्क बनाने में भी सहायता कर सकते हैं ।एक साथ मिलकर, वे शायद उसकी समस्या का समाधान ढूंढने में सहायता कर सकें।
                                 अध्याय-3
कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम
                        भारत की वयस्क महिलाओं की जनसंख्या (जनगणना 2011) के आधार पर गणना की जाए तो पता चलता है कि 14.58 करोड़ महिलाओं (18 वर्ष से अधिक की उम्र) के साथ यौन उत्पीड़न जैसा अपमानजनक व्यवहार हुआ है। सवाल उठता है कि वास्तव में कितने प्रकरण दर्ज हुए? 
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2006 से 2012 के बीच आईपीसी की धारा 358 के अंतर्गत 283407, धारा 509 के तहत 71843 और बलात्कार के 154251 प्रकरण दर्ज हुए। मतलब साफ है कि बलात्कार के अलावा उत्पीड़न के अन्य आंकड़ों को आधार बनाया जाए तो साफ जाहिर होता है कि अब भी वास्तविक उत्पीड़न के एक प्रतिशत मामले भी सामने नहीं आते हैं। इसी दौरान बच्चों के यौन उत्पीड़न के मामलों हेतु एक अलग कानून बना। तदुपरांत यह स्थापित हो गया कि घरों में महिलाओं के साथ कई रूपों में हिंसा बदस्तूर जारी है। इसे लेकर घरेलू हिंसा रोकने के लिए कानून बना।  
अंतत: यह स्वीकार किया जाने लगा है कि महिलायें भी एक कामकाजी प्राणी हैं, और वे काम की जगह पर भी हिंसा की शिकार होती हैं। इसके लिए अगस्त 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने देश में कार्यस्थल पर लैंगिक एवं यौन उत्पीड़न रोकने के लिए विशाखा दिशानिर्देश बनाए थे।
विचारणीय यह है कि क्या हमारा समाज महिलाओं के लिए एक असुरक्षित और अपमानजनक जीवन जीने का स्थान है? हम इंतजार करेंगे कि कोई विशाखा, भंवरी देवी या निर्भया आए और उनके अस्तित्व दांव पर लगने के बाद सरकार और समाज जागेगा? अब हमारे पास महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोषण) कानून 2013 मौजूद है। दिसम्बर 2013 को इसके नियम भी जारी कर दिए गए हैं। लेकिन इन नियमों से भी सरकार के गंभीर होने का अहसास होता है।
कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013
सन् 2013 में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम को पारित किया गया था।जिन संस्थाओं में दस से अधिक लोग काम करते हैं, उन पर यह अधिनियम लागू होता है l
ये अधिनियम, 9 दिसम्बर, 2013, में प्रभाव में आया था। जैसा कि इसका नाम ही इसके उद्देश्य रोकथाम, निषेध और निवारण को स्पष्ट करता है और उल्लंघन के मामले में, पीड़ित को निवारण प्रदान करने के लिये भी ये कार्य करता है। ये अधिनियम विशाखा केस में दिये गये लगभग सभी दिशा-निर्देशों को धारण करता है और ये बहुत से अन्य प्रावधानों को भी निहित करता है जैसे: शिकायत समितियों को सबूत जुटाने में सिविल कोर्ट वाली शक्तियाँ प्रदान की है; यदि नियोक्ता अधिनियम के प्रावधानों को पूरा करने में असफल होता है तो उसे 50,000 रुपये से अधिक अर्थदंड भरना पड़ेगा, ये अधिनियम अपने क्षेत्र में गैर-संगठित क्षेत्रों जैसे ठेके के व्यवसाय में दैनिक मजदूरी वाले श्रमिक या घरों में काम करने वाली नौकरानियाँ या आयाएं आदि को भी शामिल करता है।इस प्रकार, ये अधिनियम कार्यशील महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न के खतरे का मुकाबला करने के लिये युक्ति है। ये विशाखा फैसले में दिये गये दिशा निर्देशों को सुव्यवस्थित करता है और इसके प्रावधानों का पालन करने के लिये नियोक्ताओं पर एक सांविधिक दायित्व अनिवार्य कर देता है।
हांलाकि, इस अधिनियम में कुछ कमियां भी है जैसे कि ये यौन उत्पीड़न को अपराध की श्रेणी में नहीं रखता बस केवल नागरिक दोष माना जाता है जो सबसे मुख्य कमी है, जब पीड़ित इस कृत्य को अपराध के रुप में दर्ज करने की इच्छा रखती है तब ही केवल इसे एक अपराध के रुप में शिकायत दर्ज की जाती है, इसके साथ ही पीड़ित पर अपने वरिष्ठ पुरुष कर्मचारी द्वारा शिकायत वापस लेने के लिये दबाव डालने की भी संभावनाएं अधिक रहती है।
इस प्रकार, अधिनियम को एक सही कदम कहा जा सकता है लेकिन ये पूरी तरह से दोषरहित नहीं है और इसमें अभी भी सुधार की आवश्यकता है। यहां तक कि अब, पीड़ित को भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत पूरी तरह से न्याय पाने के लिये अपराधिक उपायों को तलाशना पड़ता है। और फिर, अपराधिक शिकायत धारा 354 के अन्तर्गत दर्ज की जाती है जो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की विशेष धारा नहीं बल्कि एक सामान्य प्रावधान है।इसलिये, कानून के अनुसार निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों को महिला कर्मचारियों की कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के लिये कानूनी अनिवार्यता के अन्तर्गत लिया गया है लेकिन समस्या इसके लागू करने और इसकी जटिलताओं में है। ये अभीअपने शुरुआती दिनों में है और अधिकांश संगठन, कुछ बड़े संगठनों को छोड़कर, प्रावधान के साथ जुड़े हुये नहीं है, यहां तक कि वो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिये बनाये गये कानून क्या है और इसके लिये क्या अर्थदंड है और क्या इसका निवारक तंत्र है, इन सब नियमों और कानूनों को सार्वजनिक करने वाले नियमों को सूत्रबद्ध भी नहीं करता। यहां तक कि वहां आन्तरिक शिकायत समिति भी नहीं है।
हाल ही का उदाहरण, तहलका पत्रिका के मुख्य संपादक पर इस तरह के दुर्व्यवहार में शामिल होने का शक किया गया था और इस खबर के प्रकाश में आने के बाद पता चला कि इसके कार्यालय में विशाखा दिशा-निर्देशन के तहत कोई भी शिकायत या कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत के लिये समिति नहीं थी।
इस प्रकार, केवल आने वाला समय ही बता सकता है कि अभी हाल ही में पारित हुआ अधिनियम, कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, उस अपराध को जो केवल महिलाओं के साथ किया जाता है, उसे रोकने और निषेध करने में सफल हो पायेगा या नहीं।
यह कानून क्या करता है?
◾यह क़ानून कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को अवैध करार देता हैl
◾यह क़ानून यौन उत्पीड़न के विभिन्न प्रकारों को चिह्नित करता है, और यह बताता है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की स्थिति में शिकायत किस प्रकार की जा सकती है।
◾यह क़ानून हर उस महिला के लिए बना है जिसका किसी भी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हुआ होl
◾इस क़ानून में यह ज़रूरी नहीं है कि जिस कार्यस्थल पर महिला का उत्पीड़न हुआ है,वह वहां नौकरी करती होl
◾कार्यस्थल कोई भी कार्यालय/दफ्तर हो सकता है,चाहे वह निजी संस्थान हो या सरकारीl
यौन उत्पीड़न क्या है?
इस अधिनियम के तहत निम्नलिखित व्यवहार या कृत्य ‘यौन उत्पीड़न’ की श्रेणी में आता है-
व्यवहार या कृत्य
◾इच्छा के खिलाफ छूना या छूने की कोशिश करना जैसे यदि एक तैराकी कोच छात्रा को तैराकी सिखाने के लिए स्पर्श करता है तो वह यौन उत्पीड़न नहीं कहलाएगा lपर यदि वह पूल के बाहर, क्लास ख़त्म होने के बाद छात्रा को छूता है और वह असहज महसूस करती है, तो यह यौन उत्पीड़न है l
◾शारीरिक रिश्ता/यौन सम्बन्ध बनाने की मांग करना या उसकी उम्मीद करना जैसे यदि विभाग का प्रमुख, किसी जूनियर को प्रमोशन का प्रलोभन दे कर शारीरिक रिश्ता बनाने को कहता है,तो यह यौन उत्पीड़न है l
◾यौन स्वभाव की (अश्लील) बातें करना जैसे यदि एक वरिष्ठ संपादक एक युवा प्रशिक्षु /जूनियर पत्रकार को यह कहता है कि वह एक सफल पत्रकार बन सकती है क्योंकि वह शारीरिक रूप से आकर्षक है, तो यह यौन उत्पीड़न हैl
◾अश्लील तसवीरें, फिल्में या अन्य सामग्री दिखाना जैसे यदि आपका सहकर्मी आपकी इच्छा के खिलाफ आपको अश्लील वीडियो भेजता है, तो यह यौन उत्पीड़न है l कोई अन्यकर्मी  यौन प्रकृति के हों, जो बातचीत द्वारा , लिख कर या छू कर किये गए हों
शिकायत कौन कर सकता है?
जिस महिला के साथ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हुआ है, वह शिकायत कर सकती हैl
◾शिकायत किसको की जानी चाहिए ?
अगर आपके संगठन/ संस्थान में आंतरिक शिकायत समिति हैतो उसमें ही शिकायत करनी चाहिए। ऐसे सभी संगठन या संस्थान जिनमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं,आंतरिक शिकायत समिति गठित करने के लिए बाध्य हैंl
अगर संगठन ने आंतरिक शिकायत समिति नहीं गठित की है तो पीड़ित को स्थानीय शिकायत समिति में शिकायत दर्ज करानी होगीl दुर्भाग्य से कई राज्य सरकारों ने इन समितियों को पूरी तरह से स्थापित नहीं किया है और किससे संपर्क किया जाए,यह जानकारी ज्यादातर मामलों में सार्वजनिक नहीं हुई है।
◾शिकायत कब तक की जानी चाहिए? क्या शिकायत करने की कोई समय सीमा निर्धारित है ?
शिकायत करते समय घटना को घटे तीन महीने से ज्यादा समय नहीं बीता हो, और यदि एक से अधिक घटनाएं हुई है तो आखरी घटना की तारीख से तीन महीने तक का समय पीड़ित के पास है l
◾क्या यह समय सीमा बढाई जा सकती है ?
हाँ, यदि आंतरिक शिकायत समिति को यह लगता है की इससे पहले पीड़ित शिकायत करने में असमर्थ थी तो यह सीमा बढाई जा सकती है, पर इसकी अवधि और तीन महीनों से ज्यादा नहीं बढाई जा सकती l
◾शिकायत कैसे की जानी चाहिए ?
शिकायत लिखित रूप में की जानी चाहिए। यदि किसी कारणवश पीड़ित लिखित रूप में शिकायत नहीं कर पाती है तो समिति के सदस्यों की ज़िम्मेदारी है कि वे लिखित शिकायत देने में पीड़ित की मदद करेंl
उदाहरण के तौर पर, अगर वह महिला पढ़ी लिखी नहीं हैऔर उसके पास लिखित में शिकायत लिखवाने का कोई ज़रिया नहीं है तो वह समिति को इसकी जानकारी दे सकती है, और समिति की ज़िम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे की पीड़ित की शिकायत बारीक़ी से दर्ज़ की जाए l
◾क्या पीड़ित की ओर से कोई और शिकायत कर सकता है ?
यदि पीड़ित शारीरिक रूप से शिकायत करने में असमर्थ है (उदाहरण के लिए,यदि वह बेहोश है), तो उसके रिश्तेदार या मित्र, उसके सह-कार्यकर्ता, ऐसा कोई भी व्यक्ति जो घटना के बारे में जानता है और जिसने पीड़ित की सहमति ली है, अथवाराष्ट्रीय या राज्य स्तर के महिला आयोग के अधिकारी शिकायत कर सकते हैं l
यदि पीड़ित शिकायत दर्ज करने की मानसिक स्थिति में नहीं है, तो उसके रिश्तेदार या मित्र, उसके विशेष शिक्षक, उसके मनोचिकित्सक/मनोवैज्ञानिक, उसके संरक्षक या ऐसा कोई भी व्यक्ति जो उसकी देखभाल कर रहे हैं, शिकायत कर सकते हैं। साथ ही कोई भी व्यक्ति जिसे इस घटना के बारे में पता है,उपरोक्त व्यक्तियों के साथ मिल कर संयुक्त शिकायत कर सकता है l
यदि पीड़ित की मृत्यु हो चुकी है, तो कोई भी व्यक्ति जिसे इस घटना के बारे में पता हो, पीड़ित के कानूनी उत्तराधिकारी की सहमति से शिकायत कर सकता है l
◾शिकायत दर्ज करने के बाद क्या होता है?
यदि वह महिला चाहती है तो मामले को ‘कंसिलिएशन’/समाधान’ की प्रक्रिया से भी सुलझाया जा सकता है। इस प्रक्रिया में दोनों पक्ष समझौते पर आने की कोशिश करते हैं, परन्तु ऐसे किसी भी समझौते में पैसे के भुगतान द्वारा समझौता नहीं किया जा सकता है l
यदि महिला समाधान नहीं चाहती है तो जांच की प्रक्रिया शुरू होगी, जिसे आंतरिक शिकायत समिति को 90 दिन में पूरा करना होगा l यह जांच संस्था/ कंपनी द्वारा तय की गई प्रकिया पर की जा सकती है, यदि संस्था/कंपनी की कोई तय प्रकिया नहीं है तो सामान्य कानून लागू होगा l समिति पीड़ित, आरोपी और गवाहों से पूछ ताछ कर सकती है और मुद्दे से जुड़े दस्तावेज़ भी माँग सकती है lसमिति के सामने वकीलों को पेश होने की अनुमति नहीं है l
जाँच के ख़त्म होने पर यदि समिति आरोपी को यौन उत्पीडन का दोषी पाती है तो समिति नियोक्ता (अथवा कम्पनी या संस्था, आरोपी जिसका कर्मचारी है) को आरोपी के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने के लिए सुझाव देगी। नियोक्ता अपने नियमों के अनुसार कार्यवाही कर सकते हैं, नियमों के अभाव में नीचे दिए गए कदम उठाए जा सकते हैं :
लिखित माफी
चेतावनी
पदोन्नति/प्रमोशन या वेतन वृद्धि रोकना
परामर्श या सामुदायिक सेवा की व्यवस्था करना
नौकरी से निकाल देना
◾झूठी शिकायतों से यह कानून कैसे निपटता है ?
यदि आंतरिक समिति को पता चलता है कि किसी महिला ने जान-बूझ कर झूठी शिकायत की है,तो उस पर कार्यवाही की जा सकती है।ऐसी कार्यवाही के तहत महिला को चेतावनी दी जा सकती है, महिला से लिखित माफ़ी माँगी जा सकती है या फिर महिला की पदोन्नति या वेतन वृद्धि रोकी जा सकती है, या महिला को नौकरी से भी निकाला जा सकता है l
हालांकि, सिर्फ इसलिए कि पर्याप्त प्रमाण नहीं है,शिकायत को गलत नहीं ठहराया जा सकता , इसके लिए कुछ ठोस सबूत होना चाहिए (जैसे कि महिला ने किसी मित्र को भेजे इ-मेल में यह स्वीकार किया हो कि शिकायत झूठी है) l
◾नियोक्ता और उन के कर्त्तव्य
इस क़ानून के मुताबिक संस्था या कम्पनी के निम्न श्रेणी के प्रबंधक या अधिकारी को नियोक्ता माना जाता है-
◾सरकारी कार्यालय/दफ्तर में
विभाग का प्रमुख नियोक्ता होता है, कभी कभी सरकार किसी और व्यक्ति को भी नियोक्ता का दर्ज़ा दे सकती है।
◾निजी दफ्तर में
नियोक्ता कोई ऐसा है व्यक्ति जिस पर कार्यालय के प्रबंधन और देखरेख की ज़िम्मेदारी है , इसमें नीतियां बनाने वाले बोर्ड और समिति भी शामिल हैं l
◾किसी अन्य कार्यालय में
एक व्यक्ति जो अपने अनुबंध/कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार एक नियोक्ता है को इस क़ानून में भी नियोक्ता माना जा सकता है।
◾घर में
जिस व्यक्ति या घर ने किसी घरेलू कामगार को काम पर रखा है वह नियोक्ता है (काम की प्रकृति या कामगारों की संख्या से कोई फर्क नहीं पड़ता)l
◾नियोक्ता के कर्तव्य
नियोक्ता को अपने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने के लिए अपनीसंस्था /कम्पनीमें 'आंतरिक शिकायत समिति'कागठनकरनाचाहिए। ऐसी समिति की अध्यक्षता संस्था या कम्पनी की किसी वरिष्ठ महिला कर्मचारी द्वारा की जानी चाहिए। इसके अलावा इस समिति से सम्बन्धित जानकारी कार्यस्थल पर किसी ऐसी जगह लगायी/चस्पाँ की, जानी चाहिए जहाँ कर्मचारी उसे आसानी से देख सकें।
नियोक्ताओं को मुख्य रूप से सुनिश्चित करना है कि कार्यस्थल सभी महिलाओं के लिए सुरक्षित है। महिला कर्मचारियों को कार्यस्थल पर आने-जाने वालों (जो कर्मचारी नहीं हैं) की उपस्थिति में असुरक्षित महसूस नहीं करना चाहिए। इसके अलावा,नियोक्ता को अपनी ‘यौन उत्पीड़न सम्बन्धी नीति’ और जिस आदेश के तहत आंतरिक शिकायत समिति की स्थापना हुई है, ऐसे आदेश की प्रति, ऐसे स्थान पर लगा/ चस्पाँ कर देनी चाहिए जिससे सभी कर्मचारियों को इसके बारे में पता चल सकेl
नियोक्ता को यौन उत्पीड़न के मुद्दों के बारे में कर्मचारियों को शिक्षित करने के लिए नियमित कार्यशालाओं का आयोजन करना चाहिए l
उन्हें अपने सेवा नियमों में यौन उत्पीड़न को भी शामिल करना चाहिए और कार्यस्थल में इससे निपटने के लिए एक व्यापक नीति तैयार करनी चाहिए।
महत्वपूर्ण कदम
कानून और नियमों को ठीक से जानें
आपके लिये यह जानना बेहद जरूरी है कि इस संबंध में नीतियां (पोलिसी) क्या कहती हैं। ताकि आप उसके अनुसार तैयारी कर पाएं। साथ ही अपने कानूनी अधिकारों को जानें। इससे संबंधिक कानूनों को पढ़ें या किसी कानूनी जानकार से विकल्पों के बारे में जानकारी लें।
◾सबसे पहला कदम ये उठाएं
उत्पीड़न के मामले में जो सबसे पहला कदम उठाना चाहिये वो ये है कि, आप सीधा जाकर उस व्यक्ति से बात करें जो आपको परेशान कर रहा है। और उसे इस बात का अंदेशा दें कि आप बर्दाश्त करने वाले या चुप रहने वालों में से नहीं हैं। उसे इस संबंध में एक लिखित चेतावनी भी दें। यदि उससे बात कर कोई फायदा न हो, तो अपने सानियर से इसकी शिकायद करें। अपने एचआर (ह्यूमन रीसोर्स) मैनेजर को भी इसमें शामिल करें, ताकि वे आपको आगे की कार्रवाई के बारे में सूचित कर सकें। इस मामले को अब लिखित बनाएं।
◾पीड़ितों और गवाहों को जुटाएं
इस बात की पूरा संभावना है कि, आपको परेशान कर रहे व्यक्ति ने पहले भी लोगों के साथ उत्पीड़न किया हो, या वो हाल में भी और लोगों के साथ ऐसा करता या करती हो। उन लोगों से बात करें और उन्हें एक साथ जुटाने की कोशिश करें। अपने लिये किसी प्रत्यक्ष गवाह को तैयार करने की कोशिश करें। जितने हो सके सबूत जुटाएं। बाकी .पीड़ितों से भी लिखित सूचना या चेतावनी देने का आग्रह करें ताकि आप सभी का केस मजबूत बन पाए। इसके बाद सीनियर मैनेजमेंट से इस संबंध में बात करें। उनके सामने सभी संभव सबूत ले जाएं।
◾उत्पीड़न करने वाले के खिलाफ मुकदमा करें
अपने विकल्पों का मूल्यांकन करने के लिए वकील से सलाह लें। स्पष्ट रहें और सुनिश्चित कर लें कि आप बदले में क्या चाहते हैं, जैसे मुआवजा या अगर आपको नौकरी से निकाल दिया गया हो, तो अपनी नौकरी में वापसी।
◾निंदकों की बातों पर ध्यान ना दें और अच्छे लोगों में रहें
याद रखें, इस तरह के कदम को उठाने पर आपको निंदकों का भी सामना करना पड़ेगा। तो खुद को मजबूत बनाएं, निंदकों की बातों को दिल से न लगाएं, आप सही काम कर रही/रहे हैं।




अध्याय - 4
भारत में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के प्रकार
भारत के संबंध में महिलाओं के खिलाफ अपराध 
भारत में अपराध बर्दाश्त करने योग्य नहीं है और गलत काम करने वाले और अपराधी सजा के पात्र हैं। भारतीय संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) में, बढ़ते अपराधों से महिलाओं की सुरक्षा के लिए विभिन्न कानून है। महिलाओं के खिलाफ विभिन्न प्रकार के अपराध होते हैं और इनकी लिस्ट बढ़ती रहती है। ये महिलाओं के खिलाफ होने वाले कुछ अपराध है-
         एसिड अटैक
          बलात्कार;
         अलग होने के दौरान पति द्वारा अपनी पत्नी से यौन संबंध (सेक्सुअल 
         इंटरकोर्स) बनाना।
         अथॉरिटी में किसी व्यक्ति द्वारा यौन संभोग।
         सामूहिक (गैंग) बलात्कार।
         बलात्कार करने की कोशिश
         विभिन्न उद्देश्यों के लिए किडनैपिंग और एबडक्शन:
         महिलाओं को शादी के लिए मजबूर करने के लिए प्रेरित (इंड्यूस),      
         किडनैप या एब्डक्ट करना।
         नाबालिग लड़कियों का प्रोक्युरेशन करना।
विदेशों से लड़कियों को इंपोर्ट करना।
गुलामों की हैबिचुअल डील करना।
प्रॉस्टिट्यूशन आदि के लिए नाबालिग को बेचना।
प्रॉस्टिट्यूशन, आदि के लिए नाबालिग ख़रीदना।
हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाना आदि।
पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता।
दहेज हत्या।
महिलाओं की मोडेस्टी भंग करना।
यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट)।
महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से महिलाओं पर असॉल्ट।
ताक-झांक (वॉयरिज्म)।
पीछा करना (स्टॉकिंग)।
लड़कियों का इंपोर्टेशन।
किसी महिला की मोडेस्टी का अपमान करने के इरादे से शब्द, हावभाव 
         (जेस्चर) या कार्य
ऑनर किलिंग

अध्याय - 5
महिलाओं के मानवाधिकार के विषय में आप क्या जानते हैं?
                               वर्तमान समाज अर्थवाद का दास सा बनता जा रहा है। जहां सम्पत्ति संग्रह की आनियमियता से अधिक महत्व दिया जाता है। पूंजीवाद से सत्तावाद, तथा सत्तावाद, सम्मपत्ति, विलासितावाद, भोगवाद की ओर बढ़ रहा है। वहां पर आदर्शात्मक मूल्यों का इस वर्तमान समाज में कोई महत्व नहीं है। महिलाओं के अधिकारों के हनन के विविध तरीके है, जिसमे महिलाओं के साथ ही अबोध बालिकाएं भी सदियों से पुरूषों द्वारा अधिकारों का हनन की शिकार रही है और आज भी है.यत्र नार्यस्तु पुज्यंते रमन्ते तत्र देवताः’’अर्थात जहां नारी की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं। नारी एक वह पहलू हैं जिसके बिना किसी समाज की रचना संभव नही हैं। समाज में नारी एक उत्पादक की भूमिका निभाती हैं। नारी के बिना एक नये जीव की कल्पना भी नही कर सकते अर्थात नारी एक सर्जन हैं, रचनाकार हैं। यह कुल जनसंख्या का लगभग आधा भाग होती हैं फिर भी इस पित्रसत्तात्मक समाज में उसे हीन दृष्टि से देखा जाता हैं। पुत्र जन्म पर हर्ष तथा पुत्री जन्म पर संवेदना व्यक्त की जाती हैं। भारतीय समाज में आज भी पुत्रों को पुत्रियों से अधिक महत्व दिया जाता हैं। कुछ क्षेत्रों में जहां यह बदलाव सम्मानजनक एवं सकारात्मक हैं, वहां वही अधिकांश जगहों पर ये बदलाव महिलाओं के प्रतिकूल साबित हो रहे हैं। आज महिलाओं के पिछडेपन के कई कारण हैं जिनमें से एक बडा कारण उनका अशिक्षित होना हैं। समाजशास्त्रियों ने कहा है कि ‘‘दस पुरूषों की तुलना में एक महिला को शिक्षित करना ज्यादा महत्वपूर्ण हैं,
भारत में पुरूष एवं महिला साक्षरता दर- 1951 से 2011
क्रमांक                     वर्ष               पुरूष         महिलाएं         व्यक्ति            अंतर
1.                         1951           27.2            8.9              18.3            18.3

2.                         1961           40.4            15.4            28.3            25.0

3.                          1971           46.0            22.0            34.4            24.0

4.                          1981           56.4            29.8            43.6            26.6

5.                          1991           64.1            39.3            52.2            24.8

6.                          2001           75.3            53.7            64.8            21.6

7.                          2011           82.1            65.5            74.0            16.7
इस तालिका से ज्ञात होता है कि आजादी से आज तक साक्षरता के संदर्भ में काफी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है लेकिन पुरूषों की तुलना में आज भी 16.7 प्रतिशत कम है, जो उनके पिछडेपन, शोषण तथा उत्पीडन का मुख्य कारण हैं। हालांकि केन्द्र एवं राज्य सरकारो ने इस संबंध में कई प्रयास किए हैं किंतु इसमें वे पूर्णरूपेण सफल नही हो पाए हैं। जाहिर हैं योजनाओं की सफलता के लिए उसके लाभार्थियों का सहयोग भी उतना ही अहमियत रखता हैं जितनी कि अन्य बाते। महिलाएं पुरूषों से किसी भी तरह से कमजोर नही हैं परंतु इसका एक दूसरा पहलू भी हैं। गत वर्षो में महिलाओं के अधिकारों का जितना उलंघन हुआ हैं शायद पहले कभी नही हुआ।
समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता के बावजूद इनके साथ अभद्र व्यवहार, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल, सडको, सार्वजनिक यातायात एवं अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में वृद्धि हुई हैं, इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन शोषण भी शामिल हैं।
दैनिक समाचार पत्रों में दिन-ब-दिन की घटनाएं छपी होती है जो महिलाओं से संबंधित होती है जैसे- बलात्कार, दहेज के लिए बहू को जलाना, प्रताड़ित करना तथा बालिका का भ्रुणहत्या, अपहरण, अगवा करना आदि। यह सच हैं कि आज महिलाओं ने अपने आपको मुख्य धारा में शामिल कर लिया हैं परंतु उनके इस विकास में उनकी दृढ इच्छा शक्ति के साथ मीडिया और भारतीय फिल्मों का भी अत्यंत योगदान हैं जो मानसिकतौर पर नारी को निरंतर विकास की ओर गतिशील किया हैं। भारतीय संस्कृति में महिलाओं को समाज में सबसे ऊंचा दर्जा दिया गया हैं। वैदिक युग में पिता अपनी पुत्री के विवाह के समय उसे आशिर्वाद देता था कि वह सार्वजनिक कार्य और कलाओं में उत्कृष्टता प्राप्त करे। सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण पड़ाव महिलाओं की उसी ओजस्विता और रचनात्मकता पर आधारित रहे हैं। वस्तुतः भारत दुनिया के उन थोडे से देशों में से हैं जहां की संस्कृति और इतिहास में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त हैं और जहां मनुष्य को मनुष्य बनाने में उनके योगदान को स्वीकार किया गया हैं किंतु विभिन्न कारणों से कालांतर में भारतीय समाज में महिलाओं की पारिवारिक सामाजिक स्थिति निरंतर कमजोर होती हैं और पुरूष समाज द्वारा आरोपित मर्यादा और अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश कर दिया गया हैं।  मानवाधिकार एक ऐसा विषय है जो कि विश्व के सभी लोगों को मानव समुदाय का सदस्य होने के नाते अधिकार प्रदान करता है अर्थात मानवाधिकार के तहत सभी व्यक्तियों को बिना किसी विभेद के समान अधिकार प्राप्त होते है। परंतु इसी के समाने समाज के कुछ वर्गों जिनमें विशेषतः महिलाएं, बच्चे, अल्पसंख्यांक एवं शरणार्थी वर्ग को रखा जा सकता है लेकिन अध्ययन के दृष्टकोण से महिलाओं के संदर्भ में विवेचन करने का प्रयास किया गया है। महिलाएं जो कि समाज की जनसंख्या का लगभग आधा भाग है। महिलाओं की स्थिति एवं दर्जा भारत में ही नहीं विश्व के सभी देशों में प्राचीन काल से ही दयनीय रही है। महिलाओं के साथ हमेशा ही अत्याचार किय जाते रहे है। महिलाओं का अशिक्षित होना एवं आर्थिक स्तर पर भी विविध प्रयास किये जा रहे है, जिसके कारण परिणाम सकारात्मक देखे जा रहे है। आज विश्व में महिला साक्षरता का प्रतिशत दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।
मानवाधिकार का ऐतिहासिक प्ररिप्रेक्ष्य
19वी सदीं में बदलाव आना प्रारंभ हुआ जब नवजागरण काल में भारतीय फलक पर अनेक सुधारवादी व्यक्तित्व सक्रिय हुए। बंगाल में राजा राममोहन राय ने जहां सती प्रथा के खिलाफ मुहिम चलाई वही ईश्वरचंद्र विद्यासागर और गुजरात में दयानंद सरस्वती ने महिला  शिक्षा और विधवा विवाह जैसे मुद्दों को लेकर काम किया। महाराष्ट्र में सन् 1848 में सावित्री बाई फुले ने लडकियों हेतु प्रथम स्कूल पुणे में खोला। नारी उत्कर्ष की दिशा में यह एक विशिष्ट प्रयास था फलतः समूचे भारत की महिलाओं में एक नई चेतना जागृत होने लगी। 20 वी सदीं में इस प्रक्रिया को ठोस धरातल और भक्ति भारत में आजादी के बाद मिली। भारत के संविधान ने महिलाओं को समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई माना और इन्हें नागरिकता, वयस्क मताधिकार और मूल अधिकारों के आधार पर पुरूषों के बराबर दर्जा तथा समान अधिकार प्रदान किए, किंतु वास्तविक शक्ति महिलाओं से अब भी दूर थी और है। संविधान के अनुच्छेद 39 में की गई व्यवस्था के अनुसार -राज्य अपनी नीति का विशिष्टता इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्यात साधन प्राप्त करने का अधिकार है। अतः भारतीय सरकार ने वर्ष 2001 को राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया।
वर्तमान में भारतीय महिलाएं समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता कर रही हैं परंतु इससे उनके प्रति घरेलू हिंसा के अलावा कार्यस्थल पर सडको एवं सार्वजनिक यातायात के माध्यमों में व समाज के अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई हैं। इसमें शारीरिक, मानसिक व यौन सभी प्रकार की हिंसा शामिल हैं। प्रताडना, छेडछाड, अपहरण, बलत्कार, भ्रुण हत्या (यौन उत्पीडन, दहेज मृत्यु, दहेज निषेद व अन्य) यह अन्याय पूरे राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं पर इनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करके सिद्धांत की अतिपुष्टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शमिल हैं। फिर भी महिलाओं के विरूद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा हैं।
मानवाधिकार की संकल्पनाः
मानवाधिकार की संकल्पना उतनी ही पुरानी है जितनी कि प्राकृतिक विधि पर आधारित प्राकतिक अधिकारों का प्राचीन सिंद्यांत तथापि ‘‘मानव अधिकारों’’ की अवधारणा की नये रूपों में उत्पत्ति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंर्तराष्ट्रीय चार्टरों एवं अभिसमयों से हुई। सर्व प्रथम, अमेरिकन तत्कालिक राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने 16 जनवरी 1941 में कांग्रेस को संबोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में ‘‘मानव अधिकार’’ शब्द का प्रयोग किया था, जिसमें उन्होने 4 मूलभूत स्वतंत्रताओं पर आधारित विश्व की घोषणा की थी, इनको उन्होंने इस प्रकार सूचीबद्ध किया था- वाक स्वातंन्न्य, धर्म स्वतंन्न्य, गरीबी से मुक्ति और भय से स्वातंन्न्य, इन चारों स्वतंत्रता से देश में अनुक्रमण में राष्ट्रपति घोषणा की, ‘‘स्वातंन्न्य से हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्चता अभिप्रेत है। हमारा समर्थन उन्ही को है, जो उन अधिकारों को पाने के लिए या बनाये रखने के लिए संर्घष करते है। ’’मानवाधिकारों के महत्वों को समझाते हुए सयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौम की घोषणा 10 दिसम्बर 1948 को सर्वसम्मति से की थी। जिसे मानवाधिकर दिवस के रूप में जाना जाता है।
मानवाधिकार का अर्थ:
मानवाधिकारों से तात्पर्य मानव के लिए मनुष्य को मानव होने के लिए आवश्यक अधिकारों से होता है अर्थात मानव अधिकारों से तात्पर्य मानव के उन न्यूनतम अधिकारों से है, जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए, क्योंकि वह मानव परिवार का सदस्य है। मानवाधिकार एवं मानव गरिमा की धारणा के मध्य घनिष्ठ संबंध है अर्थात वे अधिकार जो मानव गरिमा को बनाये रखने के लिए आवश्यक है, उन्हे मानव अधिकार कहा जाता है।  इसमे ंमनुष्य की जाति, लिंग, सामाजिक स्थिति, आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्रीयता एवं व्यवसाय के कारण किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। मानवाधिकारों के कारण ही किसी समाज में रहने वाले पुरूष व महिलाएं अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकते है तथा समाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकते है।
मानवाधिकारों की प्रकृति:
मानव अधिकार ऐसे अधिकार होते है जिनका राज्यों द्वारा आदर किया जाना अनिवार्य होता है। साथ ही ये अधिकार ऐसे मापदंढ होते है जिसके माध्यम से राज्यों के कार्यों का मूल्यांकन किया जाना संभव हो पाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मानव अधिकारों को उपयोग की प्रकृति के आधार पर नित्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता हैः-
1.मानवाधिकारों के संरक्षण में राज्य का नकारात्मक रूपः ऐसे अधिकारों से है जिनके द्वारा राज्यों को कुछ करने से रोका जाता है। जिसके अंर्तगत किसी भी व्यक्ति को कानून के उलंघन के बिना बंदी नहीं बनाया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति को अकारण ही अपने विचार व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता है। व्यक्ति को किसी भी धर्म संप्रदाय के अनुसार आचरण करने से नहीं रोका जा सकता है। यदि इन नकारात्मक अधिकारों की सीमाएं किसी भी देश की सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक दशाओं के आधार पर अलग-अलग होता है।
2.मानवाधिकारों को संरक्षण में राज्य का सकारात्मक रूप: मानव अधिकारों के सकारात्मक रूप से तात्पर्य ऐसे अधिकारो से है जिसके अंर्तगत राज्य द्वारा अपने नागरिकों के लिए कुछ सुविधाएं एवं स्वतंत्रता प्रदान करता है अर्थात अपने यहां इस प्रकार के दशाओं का निर्माण करेगा जिससे प्रत्येक स्वतंत्रता एवं गरिमा के साथ जीवन यापन कर सके। उदाहरणार्थ महिलाओं के लिए समानता एंव संपूर्ण विकास के अवसर प्रदान करना, सरकारों द्वारा गरीबों के खाने एवं रहने का प्रबंधन करना, किसानों के लिए छूट का प्रावधान आदि।
मानवाधिकार की विशेषताएं:
1.सार्वभौमिकता: मानव अधिकारों को सार्वभैमिक इसलिए कहा जाता हंै, क्योंकि यह अधिकार सभी व्यक्तियों, सभी समयों पर, तथा सभी स्थिति में प्राप्त होत है। इसी के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के अर्तगत कहा गया है कि मानव अधिकार ऐसे अधिकार होते है जो कि प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होते है अर्थात यह अधिकार किसी एक विशेष एवं राजनैतिक स्थिति में प्रतिबंद्ध नही होते हैं।
2.सर्वोच्चताः मनव अधिकारों को सर्वोच्च इसलिए माना जाता है क्योंकि राज्य द्वारा जनहित स्तर पर इन अधिकारों का अतिक्रमण नही किया जा सकता है। विश्व के प्रत्येक देश में इन अधिकरों को संवैधानिक एवं कानूनी आधारों पर संरक्षण प्रदान किया जाना अनिवार्य होता है।
3.व्यविहारिकता: मानव अधिकारों की व्यवहारिकता से तात्पर्य है कि मानव अधिकार सभी व्यक्तियों के लिए होते है तथा उन्हे व्यवहारिक तभी माना जा सकता है कि जब वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इतना अवसर एवं सुविधाएं प्रदान करे जिसमे वे अपना जीवन यापन कर सकें।  मानव अधिकार केवल कानून एवं नियमों तक सीमित न रहकर उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करने के लिए प्रयास किया जाना ही मानव अधिकारों के वास्तविकता को प्रदान करता है।
4.क्रियान्वयन योग्य: मानव अधिकरों का तात्पर्य ऐसे अधिकारों से होता है जो कि वास्तविक रूप से क्रियान्वयन किये जाने योग्य होते है। अर्थात ऐसे अधिकारों को कोई महव नहीं होता है। जिन्हें क्रियान्वयन करना संभव नहीं होता लेकिन संरक्षण अभिकरणों द्वारा क्रियान्वयन किया जाना संभव होता हैं।
5.व्यक्तिगत: मानव अधिकरों की अवधारण की उत्पत्ति मानव के स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में जन्म लेने से संबंधित है, जिसके तहत माना जाता है कि व्यक्ति के पास सोचने एवं समझने की शक्ति होती है अर्थात वह बौद्धिक प्राणी है। इस बौद्धिकता के कारण व्यक्ति अपना स्वयं भला-बुरा सोचने एवं नैतिक स्वतंत्रता के रूप में उसे अपने कार्यों के निर्धारण की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
मानव कर्तव्यों का अर्थ:
मानव कर्तव्य से आशय मानव को मानव होने के नाते नैतिक अधार पर समाज के अन्य व्यक्तियों एवं जीवों को जीने एवं विकास के लिए अवसर प्रदान कराने में सहयोग प्रदान करे। मानव कर्तव्य के तहत मनुष्य अन्य मनुष्यों को  भी अपने समान ही इस समाज का ही एक अंग मानते हुए उसके महत्व को स्वीकार करे और उसे भी वहीं अवसर व सुविधाएं प्राप्त करने के अवसर सुनिश्चित कराने में अपना सहयोग प्रदान करें, जिससे उसे समानता के अवसर प्राप्त होते है। अर्थात मानव कर्तव्य एकाधिकार के विपरीत अवधारणा है जिसमें मानव अपना ही वर्चस्व रखना चाहता है। मानव कर्तव्य पालन द्वारा न केवल स्वयं के अधिकारों की अपितु, अप्रत्यक्ष अन्य के अधिकारों की रक्षा करता है। गांधी जी के अनुसार अहिंसा, सत्याग्रह, रचनात्मक कार्यक्रम एवं सर्वधर्म समभाव से संचालित कर्तव्यों की पूर्ति कर वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर ही स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के अधिकारों को किया जा सकता है। मानव कर्तव्यों का सीधा संबंध मानवता से है। मानवता द्वारा ही मानव कर्तव्यों के पालन के लिए मनुष्य को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
मानवाधिकार के वर्ग:
मानवाधिकार के अंर्तगत विविध प्रकार के प्राकृतिक, संवैधानिक और विधिक अधिकार आते है। इस संदर्भ में विद्वानों ने इन्हे अपने अपने तरीके से बांटने का प्रयास किये है। मानवाधिकारों को वर्गीकृत करने के दो प्रमुख आधार है- 1. जीवन के विविध क्षेत्र और  2.  अधिकारों को बनाये रखने वाले कानून। इस आधार पर मानवाधिकार के प्रमुख वर्ग इस प्रकार हैः-
1.प्राकृतिक अधिकार: ये अधिकार वे अधिकार होते है जो मानव को स्वभाव में ही निहित है। स्वप्रज्ञा का अधिकार, मानसिक स्तर का अधिकार, जीवन का आधार आदि इसी श्रेणी में आते है ये बेहद महत्वपूर्ण माने जाते है।
2.मौलिक अधिकार: मौलिक अधिकार वे अधिकार है जिने बिना मानव का विकास नहीं हो सकता है। जैसे जीवन का अधिकार मानव जीवन का मूलभूत अधिकार है। इन अधिकारों की रक्षा करना प्रत्येक समाज का मूल कर्तव्य है।
3.नैतिक अधिकार: यह सिंद्धांत निष्पक्षता एवं न्याय के सामान्य सिद्धांतो पर आधारित है। समाज में मानव इन अधिकारों को प्राप्त करने का आर्दश रखता है। सामाजिक व्यवस्था में ये अधिकार बहुत आवश्यक होते है।
4.कानूनी अधिकार:  इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के कानून के समक्ष समान समझा जाएगा एवं साथ ही कानूनों का समान संरक्षण भी दिया जाना चाहिए। ये समय समय पर परिवर्तित किये गये है।
5.नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार: ये वे अधिकार है जिन्हें राज्य द्वारा स्वीकार किया जाता है।
6.आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार:  भारतीय संविधान के भाग चार में नीति निदेशक तत्व मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की मांग करते है लेकिन यह निर्धारण करना कठिन होता है कि कौन सा अधिकार अधिक महत्वपूर्ण है और कौन सा कम।
मानवाधिकार एवं कर्तव्य:
आधुनिक युग संविधान एवं प्रजातंत्र का युग है। प्रत्येक प्रगतिशील एवं सभ्य राज्य अपने नागरिकों को अधिक से अधिक अधिकार प्रदान करने का प्रयास करता है, जिसका उपयोग नागरिकों को वैधानिक सीमाओं में रहकर करना होता है। अधिकारों का दस्तावेज राज्य की प्रकृति का निर्णय करता है और राज्य व नागरिकों के संबंधों का समुचित निरूपण करता है। अधिकारों द्वारा प्रदत्त सुअवसरों के अभाव में उत्तम जीवन की कल्पना करना कठिन है। जब कभी हम मनुष्य के अधिकारों अथवा मानव अधिकरों की बात करते है, तो उन में मान्यता अर्तनिहित होती है, कि अधिकार समाज सृष्टि है, राज्य उन्हें प्रदान करता है और उनका आधार कल्याण होता है।  मानव अधिकार के संरक्षण के लिए लेन-देन के भावना के आधार पर कार्य किया जाता है जो कुुछ हम अपने लिए चाहते है दूसरों को भी करने दें। यह बात अधिकारों की धारणा में स्वतः निहित है, और इसे ही मानव कर्तव्य कह सकते है। सार रूप में अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे से जुड़े है अर्थात एक सिक्के के दो पहलू हैं। यद्यपि उनके पीछे समाज की नैतिक शक्ति निहित होती है, तथापि यह राज्य सत्ता का कर्तव्य है कि वह अधिकारों का पालन करवाये केवल लिखित रूप से अधिकार प्रदान कर देना ही पर्याप्त नहीं है अर्थात अधिकारों की सार्थकता तब ही है जब राज्य उनके उपयोग के लिए समुचित वातावरण मानव को कानूनों के क्रियान्वयन के लिए नैतिक रूप तैयार करे।
भारत में मानवाधिकार आयोग:
भारत में मानवाधिकार आयोग का इतिहास लंबा है आधुनिक काल में भारत में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष आजादी से काफी पूर्व ही आरंभ हो गया था। भारत को अंग्रेजो की दासता से मुक्ति मिली तो लोगों ने मानवाधिकारों के लिए कई मांगें सामने रखने लगें, उसके बाद सरकार ने आम जनता के मानवाधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए कानून में कई प्रावधान किये। धीरे-धीरे मानवाधिकारों की सिथति में सुधार होने लगी लेकिन 1975 के आसपास भारत में मानवाधिकारों को गहरा धक्का लगा। 1975 से 1977 के बीच आपातकालीन सिथति में मानवाधिकारों का बुरी तरह हनन हुआ। 14 वर्ष के करीब 1991 में कांग्रेस सरकार ने अपनी चुनावी घोषणा पत्र परिषद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन का वायदा मतदाताओं से किया। 1992 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना  की सिफारिश की गई। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के संदर्भ में विरोध के बावजूद बार बार यह मांग उठती रही कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना जल्द से जल्द की जाय।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के कार्य:
किसी भी स्थिति में मानवाधिकारों के उलंघन होने पर कार्यवाई करना,
लंबित मामलों पर आयोग द्वारा हस्ताक्षेप,
भारत या राज्य के किसी भी जेल के कैदियों की हालचाल के लिए मुलाकात  एवं सुधारात्मक उपाय सुझाना,
अनर्तराष्ट्रीय संधियों एवं उपायों के बारे में अध्ययन करना और उसे लागू करने की सिफारिश करना,
मानवाधिकारों के बारे में शोध कार्य करना,
मानवाधिकारों के बारे में लोगों को जानकारी देना ओर इसके विकास के बारे में जागरूक बनाना,
इस दिशा में कार्यरत स्वयं सेवी संगठनों को प्रोत्साहित करना, आदि।
महिला मानवाधिकारों की सोचनीय स्थिति:

1. जन्म से पूर्व: जबरदस्ती गर्भधारण, गर्भपात, गर्भावस्था के दौरान मारपीट, मानसिक उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या,
2. शैशावावस्था के दौरान: शिशु कन्या हत्या, माता-पिता द्वारा खन पान मे भेदभाव, मारपीट, व्यक्तित्व विकास की ओर ध्यान न देना,

3. किशोरावस्था के दौरान: शीघ्र विवाह, परिवार व अपिरिचितों द्वारा यौन शोषण, बाल वेश्यावृति, मूलभूत सुविधाओं का अभाव,

4.युवावस्था के दौरान: कार्यस्थलों पर शोषण, यौन उत्पीड़न, अवैध व्यापार, बालात्कार, अपहरण, छेड़छाड़,

5. नारित्व के दौरान: विवाह हेतु दहेज की मांग, विवाह के बाद दहेज के लिए मारपीट व हत्या एवं आत्महत्या हेतु मजबूर करना, मानसिक एवं शारीरिक शोषण,
घरेलू हिंसा आदि।

अध्याय - 6
महिलाओं के लिए नियम व अधिनियम:

महिलाओं के लिए नियम व अधिनियम:

भारतीय संविधान एवं विभिन्न दंड सहिताओं में भी कई ऐसे नियम, विनियम एवं अधिनियम आदि बनाएं गए है जिसकी सहायता से महिलाओं के हितों की रक्षा की जा सकती है। इसके अलावा अंग्रजों के शासनकाल में भी कुछ महिलाओं से संबंधित 
अधिनियम बनाये गए जिसकी बजह से महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार देखने को मिले है। जैसे- सती प्रथा उल्मूलन अधिनियम, विधवा पुर्नविवाह, सिविल मैरिज अधिनियम, बाल विवाह अवरोधक अधिनियम आदि। महिलाओं से संबंधित कुछ प्रमुख अधिनियम निम्नलिखित हैः-
1. भारतीय दंड सहिता, 1860:  इसमें महिलाओं पर होने वाले अत्याचार एवं निर्दयता के विरूद्ध सजा देने की व्यापक रूप से व्यव्स्था की गई है।
2.                 दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961: 1961 में तात्कालिक प्रधानमंत्री पंण्डित जावाहरलाल नेहरू ने दहेज को एक समस्या एवं मानव मात्र पर एक कलंक एवं कुप्रथा मानते हुए इस कानून को पारित करवाया था। इसके माध्यम से दहेज जैसी गंभीर समस्या पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई।
3.हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956: यह अधिनियम निर्देशित करता है कि आज एक लड़की को भी अपने माता-पिता की सम्पत्ति में लड़के की भांति अधिकार प्राप्त है। जितना कि पुत्र यानि कि जहां तक पिता की सम्पत्ति का सवाल है लड़का एवं लड़की दोनों ही बराबर के उत्तराधिकारी है। लेकिन जहां तक पैत्रिक सम्पत्ति रूप से प्राप्त सम्पत्ति पर सवाल है आज भी महिला की स्थिति पुरूष जैसी नहीं है।
4.मुसलमान उत्तराधिकार संबंधी विधि: इनमें कुरान सरीफ की आयातों के अनुसार सदा से चला आ रहा है एवं महिलाओं के संदर्भ में कानून थोड़ा कठोर है हलांकि इस कानून में स्वयं अर्जित एवं पैत्रिक सम्पत्ति में कोई भेदभाव नहीं है। 
5.दण्ड प्रक्रिया 1973: इस प्रक्रिया में किसी भी महिला की तलाशी या अन्य संबंधित जांच के लिए महिला या महिला पुलिस के माध्यम से करना अनिवार्य होगा।
6.हिन्दू विवाह अधिनियम 1956: इस अधिनियम में पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन जैस शादी, व्याह, तलाक एवं सजा आदि के बारे में विस्तार से विवेचन किया गया है।
7.मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939ः इस अधिनियम से पूर्व मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अति दयनीय थी लेकिन इस अधिनियम के बनने के बाद पत्नी को भी तलाक देने के कुछ अधिकार प्रदान कराये गये।
8.हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षण अधिनियम, 1956: पति-पत्नी के बीच विवाह विच्छेद की स्थिति में अथवा अन्य परिस्थिति के कारण अगर पति-पत्नी अलग रहते है जो नुकसान उन्हें ही भुगतना पड़ता है, इससे भी ज्यादा दयनीय स्थिति उन बच्चों की हो जाती है जिनके माता-पिता अलग रहते हो, क्योंकि दोनों के बीच झगड़ा इस बात का रहता है कि अवयस्क बच्चे किसके पास रहें।
9.भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1982: साक्ष्य का आसाधारण अधिनियम यह है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसके द्वारा आक्षेप लगाया गया हो और ऐसी ही स्थिति में महिलाओं पर होने वाला अत्याचारों के मामलों में भी थी।

10.बाल विवाह अवरोध अधिनियम, 1929: 21वीं शदी में भी भारत के कुछ ग्रामीण एवं कुछ शहरी इलाकों में छोटे-छोट बच्चों को मंडप में बिठाकर उनकी शादियां रचाई जा रही है, इस अधिनियम में शादी की आयु का निर्धारण एवं नियम का उलंघन करने पर सजा, जुर्माना आदि का प्रावधान किया गया है।
11.सती निवारक अधिनियम, 1987 व राजस्थान सती निवारक अधिनियम, 1987: इस इधिनियम द्वारा सती प्रथा एवं उसकों महिमामण्डित करने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाये गये।
12.अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, संशोधित 1978 व 1986: इस अधिनियम के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-शोषण करने को संज्ञेय अपराध माना गया है।
13.‘‘सप्रेशन आॅफ इम्मोरल ट्रैफिक इन वूमेन एंड गर्ल एक्ट’’ 1950 संशोधित 1978 व द इम्मोरल ट्रैफिक प्रीवेन्शन एक्ट 1986:  अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956, से मिलता जुलता है।
14.गर्भावस्था समापन चिकित्सा अधिनियम, 1971: प्रारंभ में हमारे देश में गर्भपात करना एवं करवाना दोनों ही भारतीय दंड सहिता-1860 के अनुच्छेद 312-316 के अनुसार अपराध थे। यह अधिनियम महिलाओं के स्वस्थ्य को देखते हुए बनाया गया है।
15.चलचित्र अधिनियम, 1952: फिल्मों का समाज में गहरा असर पड़ता है इसलिए सेन्सर बोर्ड की जिम्मेदारी है कि वह ऐसी फिल्मों पर रोक लगाएगा जिससे महिलाओं को अश्लील रूप में दिखाया गया हो तथा महिलाओं की मर्यादा भंग हो।
16.स्त्री अशिष्ट प्रतिबंध अधिनियम, 1986: इस अधिनियम के माध्यम से स्त्री के शरीर के अश्लील चित्रण पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसमें कहा गया है कि किसी भी महिला को इस प्रकार चित्रित नहीं किया जा सकता है जिससे उसकी सार्वजनिक नैतिकता को आघात पहुंचे या उसका मान घटे। इससे संबंधित छेड़खानी निरोधक कानून, 1978, सिनेमेटोग्राफी अधिनियम, 1952, इंसिडेन्ट रिप्रेजेन्टेशन आॅफ वूमेन प्रोहीबिशन एक्ट, 1986 आदि है।

17.विशेष विवाह अधिनियम, 1954: इस अधिनियम के माध्यम से महिलाओं को वैवाहिक स्वतंत्रता के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता भी प्रदान किया गया है। इस अधिनियम के माध्यम से कोई भी महिला अपना धर्म परिवर्तन किये वगैर किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति से विवाह कर सकती है।
18.कारखाना अधिनियम, 1948, संशोधन-1976: इस अधिनियम में कहा गया है कि यदि किसी कारखाने या उद्योग-धंधे में महिलाओं की संख्या 30 से अधिक होगी तो प्रबंधन को वहां एक शिशु-गृह की व्यवस्था करनी होगी। ताकि काम के घंटों के दौरान महिलाएं अपने बच्चों को शिशु गृह में छोड़ सकें।
19.अपराधिक कानून अधिनियम, 1961: इस अधिनियम के तहत महिलाओं ऐसे अधिकार एवं विशेष रियायते दी गई है कि महिला अपने मातृत्व की जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सके। महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, एंव भावनात्मक शोषण से बचाने और उनके हितों के लिए और भी कानून है जो इस प्रकार है- समान परिश्रमिक अधिनियम-1976, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, अभद्र निरूपण पिशेध अधिनियम-1986, ठेकेदरी श्रम नियम एवं उन्मूलन अधिनियम, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम-1990, कुटुंब न्यायालय अधिनियम-1985 आदि।





                                अध्याय - 7
संविधान, कानून और महिलाएं:

भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धिति में मानव अधिकारों की प्रतिष्ठा प्राचीन काल से ही संस्थापित है। महाभारत कालीन साहित्य एंव कौटिल्य आदि के समय में महिलाओं पर प्रहार करना, निरापराधियों को सताना, राज्य प्रतिनिधियों को अपमानित करना, वर्जित माना गया था। समाज एवं परिवार में मानव अधिकरों का आदर करना भारतीय परम्पराओं और आस्था का स्भाविक अंग माना गया है। ब्रिटिश गुलामी के दिनों में भारत के कई क्षेत्रों में विशेषकर ग्रामीण इलाकों में सामन्तवादी प्रवृति का बोलबाला था मालिक वर्ग गरीब मजदूरों से कम परिश्रमिक में अधिक कार्य करवाते थे। कभी कभी तो पशुओं से खराब बदतर व्यवहार किया जाता था। किन्तु स्वतंत्रता के बाद कुछ बदलाव आया। भारतीय संविधान के प्रावधानों ने अमानवीय स्थितियों को समाप्त कर सुव्यवस्थिति एवं सामाजिक सुरक्षा कायम करने का प्रयास किया। संविधान में मानव अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है:-

अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत पुरूष और महिलाओं को आथर््िाक, राजनैतिक एंव सामाजिक रूप से समान अधिकार प्राप्त हैं।

अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध धर्म मूलवंश जाति लिगं जन्मस्थल के आधार पर कोई भेदभाव नही करेगा। प्रत्येक नागरिक का मूलभूत कत्र्तव है कि वह महिलाओं पर अत्यचार न होने दें। 

अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत पुरूषों एंव महिलाओं को बिना भेदभाव के सार्वजनिक नियुक्तियों तथा रोजगार के सम्बध में समान अवसर का अधिकार है। 

अनुच्छेद-23 के अनुसार नारी के देह व्यापार से उसकी रक्षा की जाये। इस दृष्टि से संप्रेशन अॅाफ इम्मोरल ट्रैफिक इन विमेन एण्ड गल्र्स एक्ट 1956 पारित किया गया।

अनुच्छेद 39 में पुरूष और स्त्री को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का अधिकार है।

अनुच्छेद 42 में प्रसूति सहायता का उपबन्ध एवं

अनुच्छेद-51 इसके अन्र्तगत उन सभी बातों का परित्याग करना जो नारी सम्मान के विरूद्ध है।

अनुच्छेद 243 डी में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के एक तिहाई स्थान आरक्षण का प्रावधान एवं संविधान की धारा 243 डी में संशोधन के बाद पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के बजाय 50 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है।




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