आज जिनका जन्मदिवस हैं उन महान विभूति का नाम है रामधारी सिंह 'दिनकर'। इनका जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास, राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक लंगट सिंह कालेज मुजफ्फरपुर में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर 1963 से 1965 के बीच कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। 24 अप्रैल 1974 को उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागा परन्तु अपनी लेखनी के माध्यम से वह हमारे बीच सदा अमर रहेंगे। दिनकर हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता को इनके काव्य की मूल-भूमि मानते हुए इन्हे 'युग-चारण' व 'काल के चारण' की संज्ञा दी गई है। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल शृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।दिनकर ने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है। ऐसी विभूति को नमन के साथ उनकी एक कालजयी कविता प्रस्तुत है। (इस पैराग्राफ की कुछ जानकारी विकिपीडिया से संकलित है, कुछ स्वरचित है )
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
१९५० में रचित इस कालजयी रचना में ओज का प्रचंड प्रवाह है। इस कविता के माध्यम से दिनकर जी प्रजातंत्र की शक्ति के प्रबल बल का बयान करते हैं । इस कविता से उन्होंने उस समय सामंतवादी सोच के लोगों को चेताया था और आगाह किया था कि जब-जब जनता चाहती है तब-तब साम्राज्य उखाड़ फेंकती है फिर चाहे कितना ही बड़ा साम्राज्य क्यों न हो। इस कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें।
" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में,
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के,
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में,
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
प्रजातंत्र की इससे जोरदार कोई और व्याख्या भला कौन सी हो सकती है। दरअसल दिनकर के लिए राष्ट्र इतना महत्वपूर्ण था कि जब कभी भी उन्हें मौका लगता वह राष्ट्र के भले के लिए किसी को भी चेताने से नहीं चूकते थे। उन्होंने साफ़ चेताया है कि प्रजातंत्र में जनता किसी राजा का नहीं बल्कि स्वयं अपना अभिषेक करती है और स्वयं को ही सिंहासन पर बिठाती है। उस समय के अनुसार उनके लेखन में प्रजातंत्र को आहत होने से बचाने की चेष्टा ही दिखाई देती है और वह अपनी लेखनी से सचेत करते हुएभी दिखते हैं।
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दिनकर की इसी कविता पर आधारित एक प्रयास है मेरी ये पंक्तियाँ, आपका आशीर्वाद चाहूँगा ।
जनता सहती सबकुछ चुपचाप,
जैसे शांत और ठण्डी राख़,
होम राष्ट्र-हित करती निज हित,
किन्तु रहा उसे सब विदित,
सदियों तक बहलाई तुमने
निज हित ली अंगड़ाई तुमने,
चार दिनों के चार खिलौने,
कई दशक दिखलाये तुमने,
कई भाग कर बाँटा तुमने,
हक़ की बात पर देदी डांट,
रहे मिटाते राष्ट्र की शाख ।
जनता दिनकर भी पढ़ती है,
अपढ़ रखा फिर भी पढ़ती है,
याद करो वो दिन आया था,
टूटा युवराजों राजों का घमण्ड,
रथ छोड़ उतर भागना पड़ा था,
सोच रहे थे जो कि अब वो ही बस,
इस देश राष्ट्र के कर्णधार।
जनता जो ठण्डी राख़ थी,
छिपी हुई उसमें भी आग थी।
@दीपक कुमार श्रीवास्तव " नील पदम् "