शशांक ने मुँह लटका लिया, "रजत मेरे भाई! तुम्हें नहीं लगता कि एक लड़की होनी चाहिए जिंदगी में?”
मैंने अपनी कुर्सी, स्टडी टेबल से उसकी तरफ घुमाई, "देखो आर्य श्रेष्ठ! इस बारे में कोई बात नहीं होगी।"
“मगर फिर भी...”
मैंने उसे घूर के देखा। उसने आगे का डायलॉग मुँह में ही रोक लिया।
“भाई! कहीं घूम के आते हैं यार। युवान की बाइक लेते हैं और कहीं चलते हैं।”
“तुम्हें लगता है आज उसकी बाइक खाली होगी? सुबह-सुबह ही टॉम क्रूज साहब बन-ठन के निकल गए हैं।”
“चलो यार, पैदल ही टहलते हैं। बाहर निकले तो! देखें क्या माहौल है बाहर का? तुम्हें पता है बाहर क्या चल रहा है?”
आज के दिन पढ़ने-लिखने का मन मेरा भी नहीं था। मेरे अंदर भी कुलबुलाहट हो रही थी कि देखें तो बाहर क्या हो रहा है। मैंने उसकी पैदल टहलने की सलाह मान ली। किताब बंद की, कमरे में ताला लगाया और शशांक के कंधे पर हाथ रखे निकल पड़ा। शशांक शनैःशनैः अपना दर्द बयाँ कर रहा था। एक्सप्लेन करते-करते ख्वाबों की दुनिया में चला गया, “भाई, हर तरफ प्यार की कलियाँ खिल रही हैं, पक्षी चहचहा रहे हैं, वो झाड़ी के पीछे, वो झुरमुट के नीचे...और हमारी जिंदगी में क्या है? उजाड़, सूखा! ये क्या है रजत? ये सब क्या है?”
हम टहलते-टहलते सड़क पर आ गए थे। अब धीरे-धीरे हजरतगंज की ओर बढ़ रहे थे। दिन कुछ नॉर्मल ही लग रहा था। आसमान साफ था और सर्दी की गुनगुनाती धूप खिली हुई थी। हवा भी हल्की-हल्की बह रही थी। कहीं कहीं एकाध जोड़ा बाइक से निकल जाता था जो दूर से ही अलग दिख जाता था, क्योंकि उसमें लड़की ड्राइवर के ऊपर चढ़ी होती थी। शशांक छेड़ता- “भाई वो देख! वो देख!” बाकी लोग अपने काम में ही लगे हुए थे। हमने तय किया कि हम लालबाग में लखनऊ के फेमस चायवाले "शर्मा चाय" के यहाँ चाय पिएँगे और वहाँ से सहारागंज मॉल जाएँगे। अगर मूवी का टिकट सस्ता हुआ तो मूवी भी देख लेंगे। हम दोनों जानते थे कि आज के दिन टिकट सस्ता होने का कोई चांस नहीं है, फिर भी हम दोनों खुद को छलावा दे रहे थे कि हम भी अपनी जिंदगी में खुश हैं। हमने ढाई सौ ग्राम चने पैक कराए थे और वही फाँकते हुए जा रहे थे। रह-रहकर शशांक का सिंगल होने का दर्द छलक आता।