मेरा कमरा पहली मंजिल पर था। कमरे के बगल ही किचन और किचन के बगल ही वॉशरूम था। सामने थोड़ी-सी छत थी। सीढ़ियाँ घर में प्रवेश करते ही बाहर से थीं, जिससे कोई भी व्यक्ति मकान मालिक से मिले बिना सीधे मेरे कमरे में आ सकता था। शशांक आके सीधे वॉशरूम या किचन में ही जाता था। वैलेंटाइन डे के दिन उसका भी कोई ठिकाना नहीं था। वैलेंटाइन डे की उस रोमांटिक बारिश में हम दोनों ही अभागे थे। अपने-अपने स्तर के अभागे। हम दोनों के जीवन में सूखा पड़ा था और युवान जी बाढ़ राहत कार्य पर गए थे। शशांक अपने इस अभागेपन को खुल के स्वीकारता था और मैं खुद को अपने आत्मसमान के बनाए मुगालते में रखता था।
"रजत भाई, आज डे कौन-सा है?" मुझे छेड़ते हुए बोला और मेरे बेड पर पसर गया। मैंने उसे पलट के एक बार देखा, फिर अलमारी में रखे अपने डिओडरंट की तरफ देखा। मेरा कमरा बाबूगंज में था जो यूनिवर्सिटी से एकदम पास, 200 मीटर की दूरी पर था और शशांक का अलीगंज- यूनिवर्सिटी से दो किलोमीटर की दूरी पर। शशांक पहले मेरे रूम पर आता, अपनी रेंजर साइकिल खड़ी करता और हम दोनों साथ कॉलेज पैदल जाते थे। आज यूनिवर्सिटी जाकर अपनी इज्जत उतरवाने का कोई मतलब भी नहीं था। शशांक रोज चलने से पहले मेरे डिओडरंट पर धावा बोलता था, इसलिए मैं उसके आते ही उसे छुपा देता था और डर्मी कूल आगे कर देता था... कि बेटा, इससे जितना कूल होना है हो लो। नहीं मतलब अगल-बगल छिड़क लो ठीक है, पर पूरे छह फीट की काया पर घुमा-घुमा के डीओ से नहाना कहाँ का इंसाफ है? ऊपर से तुम्हें कोई सूँघने वाला भी नहीं है।
मैंने चाय की चुस्की ली। कप टेबल लैंप के बगल रखा, अपनी उँगलियाँ चटकाईं और फिर उसकी तरफ देखते हुए कहा, “देखो! आज है मंडे! और कोई ‘डे’ नहीं है, समझे?