अभियांत्रिकी, कविता-कहानी
मोहब्बत, धोखे और बंदिशे
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मैं 'तन्हा' तो इश्क 'साथी' है मैं 'दीया' तो इश्क 'बाती' है मैं 'सर्दी' तो इश्क 'धूप' है
टूट चुका हूँ, अब यूँ परेशान न कर, बिखरे हुए से उठने का फरमान न कर। जो दरख्त लगाए थे हमने छाँव के लिए, सूखे पेड़ों से फल
न जाने साथ कैसा है? अकेला मैं, अकेले तुम। ये रिश्ता बीती बातें हैं, न तेरा मैं, न मेरे तुम। महज़ धोखा थी सब कसमें, हूँ झूठा मैं, हो झूठे तुम। मनाए कौन अब किसको? हूँ रूठा मैं, हो रूठे तुम।
दिल में कईयों दर्द छिपाए बैठे हैं, फिर भी इक उम्मीद जगाए बैठे हैं। तेरा रुसवा होकर जाना रास नहीं आया, मिलने के कुछ ख्वाब सजाए बैठे हैं। माना तूने रस्ते बदल लिए अपने, माना सब संयोग गंवाए बै
मैं आ रहा हूं तुम्हारी गलियां करो ये वादा कि तुम मिलोगे आएंगी अड़चन उन्हें फांदकर करो ये वादा कि तुम मिलोगे है माना मैंने की थी भूलें बिना तेरे दिल है ये बेचैन अब तक पुराने शिकवे गिले भुला कर करो
राहों पर उसका दिखना ही इक याद सुहानी लगती है, उसकी चाल अदाओं से कोई यार पुरानी लगती है, सपनों की राजकुमारी है या है किस्सों की परी कोई, महफ़िल में उसकी धुन छेड़ूं, वो प्रेम तराने लगती है। उसकी
खयालों में, सवालों में, इरादों में, औ वादों में, ख्वाबों में, किताबों में, फिज़ाओं में तुम हो। उलझनों में, सुलझनों में, सांसों में, धड़कनों में, परेशानी, जवाबों में, दुआओं मे