टूट चुका हूँ, अब यूँ परेशान न कर,
बिखरे हुए से उठने का फरमान न कर।
जो दरख्त लगाए थे हमने छाँव के लिए,
सूखे पेड़ों से फलों के अरमान न कर।
खोते हैं खुद को सब, झमेलों में पड़के यहाँ,
तू अपने होने का ज्यादा अभिमान न कर।
और आदत सी हो गई है अब तो अकेलेपन की,
जान-पहचान, अनजान, फिर से अब जान न कर।