"रेनू .....ज़रा सिर की मालिश कर दे, दर्द से फटा जा रहा है" माँ ने रेनू को आवाज़ लगाई। रेनू भागती हुई कमरे से बाहर आई और तेल की शीशी उठाकर माँ के सिरहाने बैठ गयी। मालिश करते हुए वह हमेशा की तरह अपनी सोच में डूब गई 'आज किसी भी तरह वह उपन्यास मुझे पूरा करना है कितने दिनों से एक ही कहानी लेकर बैठी हूँ।समय ही नहीं मिल पाता कि उसे पूरा कर दूसरी किताब की तरफ बढ़ूँ- न जाने रचना (एक पात्र) का क्या हुआ होगा क्या उसे आगे की पढ़ाई जारी रखने की अनुमति मिली होगी? क्या बाबूजी से बात करने की हिम्मत वह जुटा पाई होगी???अब पता नहीं आगे की कहानी पढ़ने का वक्त कब मिलेगा। शाम को मेहमान भी आनेवाले हैं उनके भी खाने-पीने का इंतज़ाम करना है। फिर रात का रसोई-बर्तन भी तो है । दिन भर के काम से थक-हार कर बिस्तर पर पड़ते ही नींद घेर लेती है फिर कहाँ मन करता है किताबें उठाने का।" एक लंबी सांस भरते हुए रेनू अपनी गहरी सोच से बाहर आती है और माँ से पूछती है 'माँ अभी थोड़ा आराम है?' माँ कहती हैं "हाँ अब पहले से ठीक है, बेटी तू मेरी छोड़ जा जाकर सारे इंतजाम कर ले मेहमान आते ही होंगे।"
रेनू एक पीढ़ी-लिखी होनहार लड़की थी जिसकी आँखों में भविष्य के अनगिनत सपनें थे जिन्हें वह जीना चाहती थी,अपनी मेहनत से पाना चाहती थी। उसने बी.ए पास की थी और आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहती थी परंतु भारतीय मध्यवर्गीय परिवार लड़कियों की शिक्षा-दिक्षा को लेकर आज भी आवश्यकतानुरूप मुखर नहीं हो पाया है। एक तरफ जहाँ बेटी को चाँद पर भेजने का सपना संजोने वाले माता-पिता हैं तो वहीं दूसरी ओर रामकिसन जैसे पिता और मालती देवी जैसी माता भी हैं जिनके लिए लड़की का बी.ए होना ही चिंता का विषय है कि इतना पढ़ लिया अब इसके योग्य लड़का मिलना भी मुश्किल होगा।
रेनू की दो छोटी बहनें थीं जो क्रमश: 9 वीं और 8 वीं कक्षा में पढ़तीं थीं, जिनके बहाने रेनू को समय-समय पर अपने सपनों से विमुख करने का प्रयास किया जाता रहता था ।कोई लड़का न होने के कारण माता-पिता हमेशा अपनी किस्मत पर पछताया करते थे और किसी भी तरह तीनों बेटियों का विवाह कर मुक्त हो जाना चाहते थे। रेनू ने कई बार हिम्मत करके अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने की बात पिताजी से कही थी परंतु उन्होंने समाज और पैसों का हवाला देकर उसका मुँह बंद कर दिया था और माँ उसे अब ससुराल के लिए तैयार कर रही थीं। उन्हें रेनू की पढ़ाई के प्रति अत्यधिक रुचि से हमेशा डर सा रहता कि कहीं वह इन किताबों से विरोध की प्रवृत्ति या बगावत करना न सीख ले जो कि उनके हित में नहीं था।इसलिए वह हमेशा कोशिश करतीं कि उसे जितना हो सके किताबों से दूर रख सकें। कभी सिर दबाने के बहाने तो कभी बहनों की देख-रेख के बहाने तो कभी पिताजी के कुर्ते में बटन टाँकने,इस्त्री करने के बहाने इत्यादि। रेनू समझती थी कि उसके सपनों और वास्तविकता में एक बड़ा अंतर है जो शायद अब कभी न खत्म हो। माँ ने कई बार समाज,परिस्थिति,उसकी छोटी बहनों का भविष्य और आर्थिक स्थितियों को आधार बनाकर उसे उसके सपनों से भटकाने की कोशिश की थी जिसमें वह बहुत हद तक कामयाब भी हुईं ।परिणामस्वरूप अब स्थिति यही थी कि रेनू ने समझौता कर लिया था अपने भविष्य के उज्ज्वल सपनों से,अपनी इच्छाओं से,अपने आने वाले कल से। वह दिन भर काम-काज में ही लगी रहती थोड़ा समय मिलने पर कुछ-एक किताबें जो उसने कॉलेज के दिनों में खरीद रखी थीं, उन्हें पढ़ लिया करती ताकि वह अपने अंदर के शब्द-प्रेम को किसी भी कोने में, ज़रा-सा ही सही, जीवित रख सके।
खैर,माँ का सिर दर्द अब पहले से आराम था जैसाकि उन्होंने कहा और रेनू अब उनके कहे अनुसार रसोई में जाकर मेहमानों के स्वागत की तैयारियाँ करने लगी।
पिताजी कुछ नाश्ते का सामान लेकर आये , रेनू को देते हुए कहा 'इसे प्लेट में लगा देना' । रेनू ने बड़े अनमने भाव से कहा हम्म्म्म....
शाम के 7 बजे , दरवाजे पर दस्तक हुई,पिताजी ने दरवाजा खोला और मेहमानों का स्वागत किया। सभी साथ बैठकर बातचीत करने लगें,देश-दुनिया की बातें हुईं....माँ बीच से उठती हुई रसोई में गयीं और बड़े प्रसन्न भाव से रेनू से कहा "बेटी ! जा हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लें , लड़के वाले तुझे देखने आए हैं...."
रेनू आंखों में सैकड़ों सवाल लिए स्तब्ध-सी,चोट खाये किसी निर्दोष की भांति माँ को देखती रही ।