प्रिय, तुम भूले, मैं क्या गाऊँ
बस तुमको ही, मैं दोहराऊं .
सदियाँ बीती, तुम न आए.
क्या कोई पत्थर बन जाए.
मना -मना कर हार गई मैं,
कैसे आखिर तुम्हे मनाऊं ?
प्रिय तुम भूले, मैं क्या गाऊँ
तप्त धरा औ नीलगगन है.
मन में भी तो नित्य अगन है .
तुम आओ तो पड़े फुहारें
प्रेम-नीर में डूब नहाऊँ.
प्रिय तुम भूले, मैं क्या गाऊँ
रूठे हो तो तो कारण बोलो
ओ निष्ठुर प्रिय मुँह तो खोलो.
देखो, आकर मुझे बचा लो,
विरह-अगन में जल न जाऊं .
प्रिय तुम भूले, मैं क्या गाऊँ .
जीवन में सुख-दुःख रहते है
हम सब तो उनको सहते हैं
मगर अकेले बोझ दुखों का,
कैसे प्रियतम इन्हें उठाऊं।
प्रिय तुम भूले, मैं क्या गाऊँ