प्रातः स्मरणेय शिक्षक वृंद के चरणों में कोटिशः नमन।
गुरु का स्थान तो कबीरदास जी के इन दोहों से ही स्पष्ट हो जाती है:-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय?
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।
वैसे तो इस अखिल ब्रम्हांड के सबसे बड़े गुरु शिव हैं। हर शास्त्रों में निपुण और अनंत साधना में लीन। वो सारे आयामों में एक साथ मौजूद हैं। उमापति महेश्वर की शक्ति उस पराकाष्ठा पर है कि उनको आश्रय देने के लिए सीमाहीन अनंत आसमान को भी अपना आँगन तुक्ष प्रतीत होने लगता है। कई लोग तो शिव को सिर्फ भगवान और आनंद के रूप में जानते हैं। पर मैं अगर यह कहूँ कि, मनुष्य के मस्तिष्क में उपजने वाले हर एक भाव शिव ही हैं, तो शायद यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रेम, त्याग, समर्पण, क्रोध इत्यादि। कौन से वो भाव हैं जो उनके चरित्र से परावर्तित नहीं होते? भावों का समावेश ही तो शिव है। पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु माना गया है। संसार में जीने की क्रिया कर्म और अच्छे संस्कार के साथ जीना धर्म है। पापों और पशुत्व से छूटकर शाश्वत आनंद प्राप्त करना ही मुक्ति है। शाश्वत आनंद की अनुभूति ज्ञान के बिना असंभव है। शिक्षक हमें उस ज्ञान से परिचित कराते हैं जो सत्य है, शाश्वत है, पुरातन है और श्रेष्ठ है। शिक्षक ही कृशानुः उद्दीपन मंत्र के पाठक हैं। उचित ज्ञान शिक्षक के बिना दुर्लभ है। शिक्षक समस्त दोषों से रहित अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त होते हैं और आत्मतत्व सत, चित्त, आनंद रूप ब्रम्ह भाव से युक्त होता है। इसलिए इस ब्रम्ह भाव से सम्पन्न अर्थात शिक्षक से ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है। जैसा की तुलसीदास जी ने लिखा है:- ज्ञान पंथ कृपाण की धारा। और उस कृपाण की धार के समान राह पर चलने में मार्गदर्शन की अहम भूमिका होती है, जिस भूमिका को भली भांति एक शिक्षक ही निभा सकते हैं।
विद्यार्थी का जीवन गीली मिट्टी के समान होता है, जिसे गुरु के हाथों आकृति मिलती है। इसलिए जीवन में एक अच्छे शिक्षक और मार्गदर्शक का होना अनिवार्य है।
मेरी यह पत्र मेरे शिक्षकों को समर्पित। मैं आपकी अनुमति से इसे आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा:-
हे शिक्षक,
अगर सिखा सको तो मुझे यह सिखलाना,
उत्कृष्ट जीवन को जीने का ढंग बतलाना।
आज के इस परिवर्तित उपभोग्तावादी जगत में,
कस्तूरी सुगंध पर दौड़ते भागते इस दुनियाँ में,
कैसे अपना एक आत्मिक अस्तित्व बनाऊ?
कैसे अपना एक श्रेस्ठतम पहचान बनाऊ?
प्रतिपल परिवर्तित इस दुनियाँ में जीने को सिखलाना,
सहारों को छोड़ मुझे अपने ही पैरों पर खड़ा करवाना।
बेराह चलते आज के इस लक्ष्यहीन जगत में,
मुझे सुमार्ग पकड़ाकर मेरा लक्ष्य बतलाना।
अब चिर शांति संग इस जीवन के यापन को,
स्थान नहीं कहीं पर अब इस सम्पूर्ण जगत में,
इसलिए मुझे यह मन्त्र एवं गुड़ रहस्य बतलाना,
इस अनंत भीड़ में भी जीने को सिखलाना।
अशान्ति में भी शांति को, भीड़ में भी एकांत को,
अंधकार में भी प्रकाश को ढूंढने की राह बतलाना।
सही निर्णय लेने को सिखलाना, स्वार्थी होने मत बतलाना।
दुनियाँ की नीयत को समझाना,उसके साथ जीना सिखलाना,
पर भागते हुए इस भीड़ में खोने मत बतलाना।
चैन से सोने मत बतलाना, परिश्रम का पथ दिखलाना,
संघर्षों की ही राह पकड़ कर, आगे बढ़ने को बतलाना।
जरूरत पर मुझे थोड़ा सहारा जरूर देना,
पर कभी भी दूसरों पर आश्रित मत करवाना।
हार में भी एक अनोखी अलबेली खुशियाँ दिखाना,
और नित नई उचाईयों को छूने का पथ बतलाना।
विश्वास है आप पर कि इतनी सी कृपा करेंगे मुझपर,
लक्ष्य पा सकूँगा मैं, एक बार नहीं तो हार-हार कर।
एक मुकाम पर पहुँचने पर भी, संस्कृति को नहीं भूलूँ मैं
कभी आप आगे खड़े हो तो कदमों को जरूर छूलूँ मैं।
आदित्य कुमार ठाकुर वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में पीएचडी कर रहे हैं। उनका शोध क्षेत्र सिविल और माइनिंग इंजीनियरिंग से संबंधित है। उन्हें गणित में शोध कार्य के लिए GUJCOST विशेष मान्यता पुरस्कार और IRIS रजत पदक से भी सम्मानित किया गया है। नए प्रकार के जल मीटर का आविष्कार करने के लिए उन्होंने S.I.H ग्रैंड पुरस्कार जीता। मुजफ्फरपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मुजफ्फरपुर से बी.टेक और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स) धनबाद से एम.टेक की अपनी मजबूत शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ, उन्हें हिंदी साहित्य और अन्य सामाजिक विज्ञान विषयों में गहरी रुचि है। उनकी नवीनतम पुस्तक "गेटवे ऑफ सोशियोलॉजिकल थॉट" है। उन्होंने अपनी पहली किताब 'अस्मिता' लिखी है, जो उनकी कविताओं का संकलन है। उन्होंने कई प्रसिद्ध संस्थानों और कवि सम्मेलनों में अपनी कविता का पाठ किया है। उनका लेखन अक्सर मानव व्यवहार, भावनाओं और प्रकृति के साथ व्यक्तियों के संबंध की जटिलताओं पर प्रकाश डालता है।