आदिकवि भगवान् वाल्मीकि जी ने अपने महाकाव्य रामायण में जिस राम का वर्णन किया है, वह सिर्फ एक महापुरुष है। उन्होंने राम के जीवन के माध्यम से समाज को मर्यादा,आदर्श और सदगुणों के पराकाष्ठा का दर्शन करवाया है। उन्होंने राम के सम्पूर्ण जीवन को शिक्षप्रद शैली में लिखा है जिससे समाज और प्राणी सदैव मार्गदर्शित होते रहेंगे । निति का उदाहरण किसी अन्य साहित्य में इस प्रकार नहीं मिलता जैसा की वाल्मीकि के रामायण में मिलता है। रामायण के कई उदाहरण न ही सिर्फ सनातन धर्म में चली आ रही परिपाटियों का खंडन करती है बल्कि इस धर्म के ऐसे पहलुओं से समाज का साक्षात्कार भी करती है जो अनुपम है और अद्वितीय भी। जैसे महर्षि वाल्मीकि का स्वयं एक निषाद होना, राम और केवट की मित्रता, राक्षसराज बिभीषन का रामभक्ति क्या काफी नहीं है जो इस बात को सिद्ध कर सके की आदिकाल में जातिगत और वर्ण व्यवस्था का वह रूप नहीं रहा होगा जो आज के समाज में हम देखते हैं और उसकी पीड़ा की अनुभूति करते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं समाज का एक ऐसा वर्ग जो सदैव परदे के पीछे न जाने कितने दुःख सही है जिसे हम नारी की संज्ञा प्रदान करते हैं, शायद उनकी भी स्थिति यह नहीं रही होगी। रामायण में सभी पात्रो की समान सहभागिता इस बात की स्पस्टीकरण करती है की औरतो की दशा उस काल में शायद इतनी दयनीय न रही हो। मुझे यह प्रतीत होता है की समाजवाद का भी प्रथम सिद्धांत भी रामायण से ही उत्पन्न हुआ होगा। जब राम को राजा घोषित करने की बात हुई तब राम ने यह कहा की जब हम सब भ्राता बचपन से एक ही साथ पले और बढ़े तो आज मुझे ही सिर्फ यह राज्य क्यों ? यह समाजवाद नहीं तो और क्या है ? रामायण में सीता को सुशिक्षित और कुलीन बताया गया है, जो धर्म का सहारा ले स्त्री शिक्षा पर कुतर्क देने वाले अनपढ़ो के मुँह पर तमाचा मारने में सक्षम है। केवल इतना ही नहीं जो औरतों को सिर्फ वस्तु मानते हैं वो जान ले हमारे ही ग्रंथो में उद्दृत है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।"
अब चलते है हिंदी की भक्ति काल में जिसमें मुख्यतः निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति का वर्णन है। सगुण भक्ति पुनः राम और कृष्ण भक्ति शाखा पर आधारित है। अगर हम उस कालखंड के समाज का वर्णन करे तो हमे वैष्णव और शैव समाज का विभाजन भी मिलता है। पर दोनों समाज से मुक्त और दोनों के गुणों को धारण करने वाला अघोरियों का भी जिक्र है जो "एकांत शैव और सभा वैष्णव के सिद्धांत पर जीते है" और "शक्ति" की उपासना करते हैं।
भक्तिकाल के निर्गुण शाखा में अगर सर्वप्रथम किसी का नाम आता है, तो वह कबीर है। कबीर एक ऐसे संत थे जिन्होंने केवल हिंदी के विराट सागर में अपनी रचनाओं को समर्पित ही नहीं किया अपितु उन्होंने उन कविताओं को जिया भी है। उनके राम सर्वव्यापी है जो इस अखिल ब्रम्हांड के हर कण में विद्यमान है।
"रमते इति राम:" अर्थात "जो कण- कण में रमते हों, वही राम हैं ।" इसी दर्शन पर आधारित है कबीर की राम भक्ति और इसी दर्शन को सिद्ध करने का पर्याय है कबीर का जीवन। पंडितो के शहर काशी में रहकर भी कबीर ने सदैव अपने राम को परिपाटियों से दूर अपने ज्ञान के परदे में सहेज कर रखा। संत कबीर के अनुसार :-
सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई ।
घाट - घाट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई।
आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई।
कस्तूरी कुण्डल बसै , मृग ढूंढ़े वन माहि।
ऐसे घट - घट राम हैं, दुनिया खोजत नाहिं ।
अब अगर बात भक्तिकाल के सगुण भक्ति शाखा की आये तो कोई भी तुलसी के श्रद्धा और उनके सगुण राम के प्रति अखंड विश्वास का मूल्यांकन कबीर के निर्गुण राम से कम कैसे कर सकता है? गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने सर्वव्यापी राम को अपने सहज और सुंदर भाषा से इस प्रकार सुसज्जित किया है और ईश्वर की सभी महिमा प्रदान की है जो आदिकवि वाल्मीकि के महापुरुष राम को ईश्वरत्व की प्राप्ति करा उन्हें सर्वशक्तिमान भगवान बनाने की सामर्थ्य रखता है। तुलसीदास जी के लिए राम सच्चिदानंद ब्रह्म हैं जो समस्त संसार के कारण के भी कारण हैं। इसलिए उन्होंने लिखा है "कृपा सिंधु मति धीर अखिल विश्व कारन करन। "
उन्होंने बालकाण्ड में ही अपने सगुन राम का कुछ इस प्रकार वर्णन किया है :-
"अरुण नयन उर बाहु बिसाला । नील जलज तनु स्याम तमाला ।।
कटि पट पीत कसें बर भाथा । रूचिर चाप सायक दुहुं हाथा ।।
"अर्थात "भगवान के लाल नेत्र हैं चौडी छाती और विशाल भुजाएँ हैं । नीलकमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है । कमर में पीताम्बर पहने हुए और सुन्दर तरकस कसे हुए हैं । दोनों हाथों में सुन्दर धनुष और बाण हैं ।"
आस्था और विश्वास ही जीवन का आधार है। अगर हम कबीर साहब के निर्गुण राम को सत्य मानते है तो बाबा तुलसी के सगुण राम को भी कदापि झुठला नहीं सकते। अगर कबीर का राम पर अखंड विश्वास था की वो उन्हें काशी ही क्यों मगहर की भूमि पर भी स्वर्ग प्रदान करेंगे तो वहीं तुलसी की राम पर इतनी गहरी आस्था थी की वे राम भक्ति में ही अपना जीवन व्यतीत कर देना चाहते थे और उनके लिए काशी का भूमि इतनी पवित्र और वंदनीय थी की वे लघुसणखा को भी अपनी छोटी सी नाव पर सवार हो गंगा पार को जाया करते थे। इतिहास में आस्था और विश्वास का शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण मिले । कैसा आश्चर्य है यह, दोनों विपरीतार्थक रहते हुए भी दोनों ही सत्य है। अगर राम तुलसी के लिए सगुण है तो कबीर के लिए निर्गुण भी। शायद इन दोनों विपरीतार्थक पहलुओं के बीच की दूरी ही राम है जो इस बात की पुष्टि करता है की हम आस्था को भक्ति से और भक्ति को आस्था से अलग कर कदापि नहीं देख सकते ।
:- आदित्य ठाकुर
आदित्य कुमार ठाकुर वर्तमान में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में पीएचडी कर रहे हैं। उनका शोध क्षेत्र सिविल और माइनिंग इंजीनियरिंग से संबंधित है। उन्हें गणित में शोध कार्य के लिए GUJCOST विशेष मान्यता पुरस्कार और IRIS रजत पदक से भी सम्मानित किया गया है। नए प्रकार के जल मीटर का आविष्कार करने के लिए उन्होंने S.I.H ग्रैंड पुरस्कार जीता। मुजफ्फरपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मुजफ्फरपुर से बी.टेक और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स) धनबाद से एम.टेक की अपनी मजबूत शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ, उन्हें हिंदी साहित्य और अन्य सामाजिक विज्ञान विषयों में गहरी रुचि है। उनकी नवीनतम पुस्तक "गेटवे ऑफ सोशियोलॉजिकल थॉट" है। उन्होंने अपनी पहली किताब 'अस्मिता' लिखी है, जो उनकी कविताओं का संकलन है। उन्होंने कई प्रसिद्ध संस्थानों और कवि सम्मेलनों में अपनी कविता का पाठ किया है। उनका लेखन अक्सर मानव व्यवहार, भावनाओं और प्रकृति के साथ व्यक्तियों के संबंध की जटिलताओं पर प्रकाश डालता है।