जैसा कि हम सब जानते हैं, कि वाराणसी दुनिया की सबसे पूरानी नगरी मानी जाती है, जिसका सनातन धर्म से जुड़े पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख भी मिलता है.
हाँ पर ‘वाराणसी’ यह नाम इसे कालांतर में इसके भौगोलिक स्वरूप के कारण मिला. इसका पुराणोक्त नाम काशी है.
वाराणसी के घाटों के विषय में बात करने से पहले वाराणसी का इतना परिचय देना जरूरी लगा इसलिए दे दिया.
आइए अब हम अपने मूल विषय पर चलते हैं.
हम सब जानते हैं कि वाराणसी माँ गंगा के तट पर बसी नगरी है.
माँ गंगा के हर तट/घाट का अपना पौराणिक/ऐतिहासिक महत्व है.
वैसे तो वाराणसी ८४ घाटों से घिरी हुई है, पर आज हमें बात उनमें से एक हरिश्चंद्र घाट की करनी है. वाराणसी में अंतिम संस्कार के लिए मुख्यतः दो घाट हैं.
१) मणिकर्णिका घाट (महाशमशान)
२) हरिश्चंद्र घाट
कहा जाता है कि हरिश्चंद्र घाट मणिकर्णिका घाट से भी प्राचीन घाट है.अब आते हैं हरिश्चंद्र घाट से जुड़े पौराणिक महत्व की ओर तो आपने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का नाम तो सुना ही होगा, उन्हीं के सम्मान में इस घाट का नामकरण किया गया है.
हरिश्चंद्र जी क्षत्रिय कुलों सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले रघुकुल के राजा थे, जो अपनी सत्यनिष्ठा के लिए अपनी राजधानी अयोध्या में विख्यात हुए. धीरे धीरे उनकी सत्यनिष्ठा पूरे पृथ्वीलोक में चर्चा का विषय बन गई, जो महर्षि नारद के माध्यम से देवलोक तक पहुंची. वहाँ देवों की सभा में उनकी सत्यनिष्ठा को परखने का निर्णय लिया गया और यह कार्य भगवान विष्णु को सौंपा गया पर भगवान विष्णु स्वयं यह कार्य करना नहीं चाहते थे, इसलिए उनके आदेश पर महर्षि दुर्वासा राजा के स्वप्न में आए और उनसे उनका राज पाट दान में मांग लिया, राजा ने स्वप्न में भी बिना एक क्षण विचार किए अपना सर्वस्व दान कर दिया क्योंकि वे सत्यवादी होने के साथ साथ धर्म परायण भी थे और वे नहीं चाहते थे कि कोई तपस्वी उनके द्वार से निराश होकर वापस जाए.
सुबह राज दरबार में एक गरीब ब्रम्हण आया जिसने राजा से मदद मांगी तब राजा ने राज भंडार से कुछ अन्न एवं धन उसको देने के लिए मंगाया पर वे ये वस्तुएं उसे दे पाते उससे पहले महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे और बोले राजन आप दान की हुई वस्तुएँ पुनः कैसे दान कर सकते हैं? इस पर राजा हरिश्चंद्र चौंक उठे और पुछा मैंने दान किया? कब और किसे? इस पर महर्षि दुर्वासा ने स्वप्न वाली बात बताई तब राजा हरिश्चंद्र बिना कुछ बोले अपनी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिताश्व के साथ राजमहल छोड़ कर चल दिए.
भगवान विष्णु की लीला के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि राजा हरिश्चंद्र को परिवार समेत बिकना पड़ा, तब राजा हरिश्चंद्र को काशी के डोम राज कालू डोम ने तो रानी और राजकुमार को एक ब्राह्मण ने खरीदा था. राजा हरिश्चंद्र इसी घाट पर अंतिम संस्कार के लिए आने वाले शवों के दाह संस्कार के लिए कर वसूल करने का काम करते थे, तो रानी उस ब्राह्मण के घर नौकरानी का, और राजकुमार अपनी माँ की यथाशक्ति मदद किया करते थे.
इसी क्रम में एक दिन राजकुमार अपनी मालकिन के लिए पूजा के लिए फूल लाने के लिए बगीचे में गए जहाँ उन्हें जहरीले सांप ने डस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई. तब रानी तारामती उनके शव को गोद में लेकर अंतिम संस्कार के लिए इसी घाट पर आईं जहाँ राजा हरिश्चंद्र ने उन्हें रोक कर उनसे कर मांगा तो रानी ने असमर्थता दर्शाते हुए कहा कि मृतक आपका अपना पुत्र था, इसके अंतिम संस्कार के लिए भी कर मांग रहे हैं? तब राजा हरिश्चंद्र ने कहा यह मेरा कर्तव्य है कि यहाँ आने वाले किसी भी शव का अंतिम संस्कार बिना कर लिए न होने दूं, और मैं अपना कर्तव्य नहीं भूल सकता. चाहे मृतक मेरा अपना पुत्र ही क्यों न हो.तब रानी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा कर स्वरूप देने के उद्देश्य से फाड़ा, तब आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी और देवताओं ने राजा हरिश्चंद्र के नाम के जयघोष के साथ उन्हें यह बताया कि राजन यह आपकी सत्यनिष्ठा की परीक्षा थी, जिसमें आप पूर्णरूपेण सफल रहे.
और उन्हें उनका राज पाट व उनके मृत पुत्र के प्राण ससम्मान लौटा दिए गए.
इसलिए इस घाट पर आज भी राजा हरिश्चंद्र, रानी तारामती व राजकुमार रोहिताश्व का एक मंदिर स्थित है.
इसके साथ ही यहाँ एक शिव मंदिर भी स्थित है, जो तंत्र सिद्धि के लिए विख्यात है.
हरिश्चंद्र घाट तक कैसे पहुंचे?
हरिश्चंद्र घाट विश्वनाथ मंदिर से 2 किमी और बीएचयू से 3 किमी दूर स्थित है। यह सभी रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डे और बस स्टैंड से सड़क मार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। आप साझा ऑटो-रिक्शा द्वारा घाट तक पहुँच सकते हैं या किसी भी घाट से तुलसी घाट तक नाव की सवारी कर सकते हैं या बस चल सकते हैं।