क़िस्मत अपनी अपनी { कहानी + दूसरी क़िस्त ]
[ अब तक -- मेरा कहा मानो और ये नौकरी छोड़ो व अपने बड़े भाई के व्यापार में सहयोगी बनो।सोने चांदी की दुकान पर आपका भी तो कुछ अधिकार बनता है]
जवाब में मोतीलाल जी कहते कि मैंने शादी से पहले ही तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को बता दिया था कि मेरी रुचि अद्ध्यापन के ही दायरे में है । मेरे पिताजी के व्यापार में मुझे ज़रा भी रुचि नहीं है , न ही मुझे उनकी दौलत चाहिए । इसके बावजूद तुमने हामी भरी थी । अब क्यूं मुझे रस्ता बदलने के लिए कह रहे हो ? आखिर तुम्हें किस बात की कमी है ? घर है , गहने हैं , यथोचित बैंक बैलेन्स है । इससे ज्यादा क्या चाहिए हमें ? वैसे भी धन कमाने और संपत्ति संग्रह करने की कोई सीमा तो होती नहीं । मुंबई , दिल्ली में इतने बड़े बड़े रईस हैं कि उनके सामने हमारे भाइयों की आर्थिक हैसियत कुछ भी नहीं । किसी भी दृष्टिकोण से कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता । तुलना करना छोड़ो। अपने आपको किसी दुसरे से तुलना करने में निराशा ही हाथ मिलती है । ज़रा अपने से नीचे वालों को भी देखा करो । करोड़ों लोग सिर्फ़ दो समय की रोटी के लिए ही जद्दो जहद करते नज़र आएंगे । हमारे सामने वैसी समस्या तो नहीं है । सुहागा अपने पति की बातों को सुनकर भुनभुनाते हुए खामोश हो जाती पर चेहरे से संतुष्ट नज़र नहीं आती थी ।
इस बीच मोतीलाल जी एक खासियत उभरने लगी । वे सामाजिक विषयों पर लेख लिखने लगे और उनके लेख पाठकों को बहुत पसंद आने लगे । धीरे धीरे उनके लेख को पढने वालों की संख्या बढने लगी । उन्हें अपने पाठक गणों से रोज़ 15 से 20 चिट्ठियां प्राप्त होने लगीं। जिनमें उनके लेखों की दिल से तारीफ़ लिखी गई होती थीं । लेखों के अलावा वे कहानियां और उपन्यास भी लिखने लगे । उनकी एक किताब *हम सब अनाथ हैं * बहुत ज्यादा पापुलर हुई । वैसे तो उनकी कई किताबें अच्छी संख्या में बिक रही थीं पर उससे उन्हें कोई खास आर्थिक लाभ नहीं मिल रहा था । बिक्री का सारा लाभ प्रकाशक के ही खाते में जाता जा रहा था । वैसे भी मोतीलाल जी संतोषी व्यक्ति थे । उन्हें पैसों के ज्यादा चाहत नहीं थी । उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था कि अपने विद्ध्यार्थियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देना व दिलवाना । बाक़ी चीज़ें उनके लिए गौण थी । वे अपने शिक्षकीय कार्य बहुत ही अच्छे से निभाते आ रहे थे । जिसके कारण ही उनके द्वारा पढाए गए सैकड़ों बच्चे अच्छे से अच्छे मुकाम हासिल कर चुके थे । उनके द्वारा पढाए गए बहुत से बच्चे डक्टर , इंजिनयर के अलावा बड़े बड़े सरकारी पदों पर आसीन थे । ये सब जानकर और देखकर मोतीलाल जी को बहुत खुशी मिलती थी ।
अब मोतीलाल जि का पुत्र बड़ा होकर कालेज में पहुंच चुका था । वह ग्रेजुएशन के बाद किसी अच्छे जाब के लिए परीक्षा दिलाने की तैयारी में जुटा था । अगले चार महीनों में मोतीलाल जी रिटायर हो गए। अब वे साहित्यिक लेखन और गतिविधियों में ज्यादा समय देने लगे थे । उन्होंने एक प्रिन्टिग प्रेस भी अपना स्थापित कर लिया था । जिसमें वे सिर्फ़ साहित्यिक किताबें व पत्रिकाएं छापने का काम करवाते थे । प्रिन्टिम्ग प्रेस से भी उन्हें ठीक ठाक आमदनी होने लगी। साथ ही उन्हें पेन्शन भी मिलता ही था । अत: उनकी आर्थिक व्यवस्था थोड़ी बेहतर हो गई । उनके घर में अब चीज़ों की कमी नहीं दिखती थी । मोतोलाल जी को बस चिन्ता रहती थी या तो अपने छात्रों की या फिर यह चिन्ता रहती थी कि मुझपर बेईमानी का कोई आरोप न लगे ।
अब रतन चंद जी स्वर्ग सिधार चुके थे और रतन चंद जी के दोनों बड़े पुत्र नीलम व पुखराज अपने व्यापार में सफ़लता के नए झंडे गाड़ रहे थे। वे दोनों करोड़ों में खेल रहे थे । उनके पास अकूत संपत्ति थी । उनके घर की औरतें सोने , चांदी,हीरों के गहनों से लदी रहती थीं । हवेली नुमा घर , बड़ी बड़ी गाड़ियां , और हर वक़्त उनके घर में चार चार नौकरों की उपस्थिति । उन दोनों भाइयों की आर्थिक सफ़लता के तराने गाते नज़र आने लगे थे । समाज के सारे लोग नीलम और पुखराज जी को पहचानते थे और उनका समाज में बड़ा नाम था । जबकि मोतीलाल जी समाज और अपने भाइयों से ज़रा दूर ही रहते थे । उनकी अपने भाइयों से मुलाक़ात किसी खास अवसर पर ही होती थी ।
मोतीलाल जी के प्रिन्टिंग का काम ठीक ठाक चलने लगा था । जिससे यथोचित आमदनी होने लगी थी । पर आमदनी का पैमाना इतना बड़ा नहीं था कि मोतीलाल जी को रईसों की पंक्ति में खड़ा किया जा सके । वे तो एक समाज सुधारक के ही रूप में ही अपनी पत्रिका का प्रकाशन कर रहे थे। वैसे मोतीलाल जी की ख्वाहिश भी नहीं थी कि रईस के रुप में उन्हें लोग जाने पहचाने। मोतीलाल जी रिटायर होने के बाद वे अपने घर में ही कम से कम 20 बच्चों को निशुल्क ट्यूशन पढाते थे । जिसके बारे में आस पास के अधिकान्श लोग जानते थे और मोतीलाल जी के इस काम की मन ही मन तारीफ़ भी किया करते थे । मुहल्ले वाले अपने बच्चों को भी मोतीलाल जी के पास ट्यूशन हेतु भेजने की चाहत रखते थे । वैसे मोतीलाल जी का मुख्य विषय हिन्दी साहित्य था पर वे 12 वीं तक के सारे विषयों का ट्यूशन बच्चों को पढाते थे ।
उधर उनकी पत्नी रोज़ ही उन्हें कोसती थी कि देखो तुम्हारे दोनों भाई कहां से कहां पहुंच गए और एक तुम हो जो सिर्फ़ दाल रोटी का दायित्व पूरा करने हेतु जद्दो जहद कर रहे हो । न ठीक से कपड़े लत्ते हैं , न ही घोड़ा गाड़ी , न ही श्रींगार के साधन हैं । घर भी इतना छोटा है कि अगर एक साथ 10 आदमी घर आ जाएं तो उन्हें ठीक से बैठाना भी दुभर हो जाए । मेरी जगह कोई और आपकी पत्नी होती तो कब का आपको छोड़कर चली गई होती ।
[ क्रमश; ]