[ क़िस्मत अपनी अपनी } [ कहानी तीसरी क़ीश्त ]
[ अब तक ;;;;;; मोतीलाल जी की पत्नी उन्हें रोज़ ही कोसती थी कि मेरी जगह कोई और आपकी पत्नी होती तो कब का आपको छोड़ कर चली गई होती }
इन बातों से पर मोतीलाल को कोई फ़र्क पड़ता दिख नहीं रहा था । वे तो एक साधू की तरह किसी तपस्या में तल्लीन हैं , ऐसा लगता था ।
इस बीच उनका अकेला पुत्र ग्रेजुएट होकर प्रान्तीय पीएससी भी दिला चुका था । उसे उम्मीद थी कि उसका चयन डिप्टी कलेक्टर या आरटीओ के पद पर हो जाएगा । बस 2/3 महीनों की बात है । उसके बाद घर में किसी बात की कोई कमी नहीं रहेगी । मां की जितनी भी इच्छाएं होंगी , मैं चुटकी में पूरी कर दूंगा । मां भी खुश हो जाएंगी और समाज में भी हमारी पहचान हो जाएंगी ।
इस बात को कुछ महीने गुज़रे होंगे कि एक दिन मोतीलाल जी के बड़े भाई की हृदय घात से मृत्यु हो गई । मोतीलाल जी का सारा परिवार और कुनबा शोक ग्रस्त हो गया । नीलम जी की अंतिम यात्रा में जैन समाज के लगभग हर घर से एक न एक सदस्य उपस्थित रहे । उनकी अंतिम यात्रा में कुल मिलाकर लगभग 1000 व्यक्ति शामिल हुए । देखने वालों का कहना था जैन समाज के किसी व्यक्ति की अंतिम यात्रा में इतनी भीड़ पहले उन्होंने कभी भी न देखी थी । आखिर नीलम जी एक बड़े कारोबारी थे साथ ही वे समाज के अधिकान्श कार्यक्रमों में यथोचित आर्थिक योगदान भी देते थे । समाज के लोग उन्हें मानते थे और उनकी इज़्ज़त भी करते थे । मुखाग्नि के बाद उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों की लाइन लग गईं । कम से कम 20 लोगों ने उनके सम्मान में कसीदे पढेऔर उन्हें शब्दान्जलि प्रदान किए। इन सारी बातों को जब मोतीलाल के पुत्र कृषणा ने अपनी माता को बताया तो उनकी माता के उद्गार थे कि वे समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे साथ ही धन संपदा की भी उन्हें कोई कमी नहीं थी । उन्होंने जैन समाज के लिए भी बहुत कुछ किया है। ऐसे ही लोगों को समाज मरणोपरान्त याद रखता है और उन्हें पूजता भी है ।
जबकि कुछ कम नामी लोगों की अंतिम यात्रा में लोगों को बेमन भी जाना पड़ता है । कुछ लोगों की अंतिम यात्राओं में लोगों को सामाजिक डर के कारण भी अपनी भागीदारी दर्ज करानी पड़ती है ।
मोतीलाल जी बेटे और मां की वार्तालाप सुनते रहे और मन ही मन सोचते रहे कि यह तो अपना अपना भाग्य होता है । जो भगवान के घर से लिखकर आता है । जिसे थोड़ा बहुत व्यक्ति अपने कर्मों से प्रभावित कर सकता है ।
देखते ही देखते कुछ महीने और बीत गए। अभी तक पीएससी परीक्षा का परिणाम नहीं घोषित नहीं हो सका था । कृष्ण अभी तक बेरोजगार था । अचानक ही एक दिन दोपहर के समय मोतीलाल जी के सीने में दर्द उठा । उन्हें तुरंत ही हास्पिटल ले जाया गया । जहां हार्ट अटेक डायगनोस किया गया और उन्हें भर्ती करके आईसीयू में शिफ़्ट कर दिया गया । लगभग 2 घंटों के उपचार के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया गया । कृष्ण अपने साथियों के साथ अपने पिता के शव को घर लेकर आ गए। घर में उनकी माताजी ने कहा कि बेटा कल उनकी अंत्येष्टी की तैयारी करनी है । घर में अभी केवल 5/7हज़ार रुपिए ही हैं । आज तो शाम के 5 बज गए हैं , अत: बैंक से पैसा निकाल नहीं सकते । फिर कल त्योहार के कारण बैंक बंद रहेगा । एक काम करो पड़ोस के गुप्ता जी के पास जाओ और सारी बातें बताते हुए कहो कि माता जी ने 10 हज़ार रुपिए बतौर उधार मांगे हैं । कल पिताजी की अंत्येष्टी है जिसे सार्थक रुप से संपन्न करने बाबत हमारे पास अभी नगद पैसे नहीं हैं । परसों बैंक के खुलते ही आपके पैसे लौटा देंगे ।
कृष्ण ने जब गुप्ता जी को मां के द्वारा किये गए आग्रह को बताया तो जवाब में गुप्ता जी ने कहा कि पैसों की फ़िक्र आप लोग न करें । मुझे बताओ कि क्या क्या व्यवस्था करनी है ? मैं सब कुछ अपने लोगों के माद्ध्यम से करवा दूंगा । जहां तक पैसों की बात है जितनी भी ज़रूरत है ले जाओ और लौटाने के बारे में ज्यादा दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं है । जब सहूलियत होगी लौटा देना कोई जल्दी नहीं है ।
कृष्ण ने जब वापस आकर अपनी माता को गुप्ता जी के द्वारा कहे मदद की बातों को बताया तो उसकी माता आश्वस्त हुई । उन्होंने अपने बेटे से कहा कि तुम्हारे पिताजी वैसे तो शिक्ष्क और साहित्यकार थे पर स्वभाव से अन्तर्मुखी थे । उनकी ज्यादा लोगों से दोस्ती नहीं थी । वे तो अपने पड़ोसियों से भी ज्यादा बात नहीं करते थे । साथ ही वे जैन समाज के कार्यक्रम में भी कम ही जाते थे । अत: मुझे डर है कि उनकी अंतिम यात्रा में ज्यादा लोग सहयोग करने आएंगे या नहीं ।
[ क्रमश; ]