”क़िस्मत अपनी अपनी “[ कहानी _ पहली क़िश्त ]
सेठ रतन चन्द रायपुर का एक बड़ा नाम है । वे पिछले 20 बरसों से अपनी मेहनत और व्यापारिक बुद्धि से अकूत संपत्ति के मालिक बन गए हैं । उनके वैसे तो बहुत सारे व्यापारिक प्रतिष्ठान थे पर उनका मुख्य धंधा सोने चांदी का धंधा और ब्याज का ही था । उनका बड़ा पुत्र नीलम चंद जब 20 बरस का हुआ तो बी.काम. करने के बाद सोने चांदी की दुकान संभालने लगा। वहीं मंझला बेटा पुखराज अपने मामा के सानिद्ध्य में रियल स्टेट का काम सीखने मुंबई चला गया । पुखराज की चाहत थी कि वह रियल स्टेट के कामों को समझ कर रायपुर में अपना काम प्रारंभ करे और कुछ वर्षों में रायपुर का एक बड़ा और नामी बिल्डर बन जाए। रतन चंद जी का तीसरा पुत्र मोतीलाल का रुझान कापी किताबें पढने में ज्यादा रहता था । उसे साहित्य की किताबें बेहद रुचिकर लगती थीं । इसके साथ वह धर्म कर्म के कामों में भी भागीदारी दर्ज़ कराता था ।
मोतीलाल ने 24 वर्ष होते होते हिन्दी साहित्य में एम.ए. कर लिया । वह अपने पिता की दुकान में एक घंटा भी चैन से बैठ नहीं पाता था । दुकानदारी में उसका मन लगता ही नहीं था । सेठ रतन चंद जी अपने तीसरे पुत्र के प्रति बहुत चिन्तित रहते थे कि पता नहीं आगे जाकर वह क्या करेगा ? न तो उसे व्यापार में रुचि है न ही उसे खर्च करने का शौक है । वह तो दिन भर किताबों में ही उलझे रहता है । उसे तो बस दो वक़्त का भोजन दे दो और ढेर सारी किताबें दे दो तो बहुत खुश नज़र आएगा । वह अक्सर सोचते थे कि क्या कोई किताबें ही पढकर अपना जीवन यापन कर सकता है ? अपने परिवार को पाल सकता है ? समाज में अपना नाम स्थापित कर सकता है ? रतन चंद अक्सर मोतीलाल को कहते रहते थे कि दुकान में जम कर अपने भाई के साथ बैठो और धंधे का गुर सीखो। यही भविष्य में काम आएगा । कापी किताबें कुछ समय बाद पुराने पड़ जाती हैं ,और फिर या तो रद्दी के मोल बेचने के काम आते हैं या फिर जलाने के काम आते हैं । जबकि धंधा जितना पुराना होते जाता है उसकी साख और पुख्ता होते जाती है । लेकिन मोतीलाल हर बार हंस कर अपने पिता की बातों को टाल देता था ।
मोतीलाल को जब 6 महीने एम.ए. किये हो गए तो उसने कई जगहों पर टीचरशिप के लिए आवेदन दिया था । एक दिन मोतीलाल ने डरते डरते अपने पिता से कहा कि बाबू जी मुझे गवर्नमेंट हाई स्कूल रायपुर में नौकरी मिल गई है । मैं वहां 10 दिनों के अंदर ज्वाइन कर लूंगा । ये सुनकर रतन चद जी को अच्छा नहीं लगा फिर उनके दिमाग में यह आया कि इस लड़के को सलाह देने से या मना करने से कोई फ़ायदा नहीं । वह मेरी सलाह तो मानने वाला है नहीं । उसे तो अपने सुन्दर भविष्य की भी चिन्ता नहीं है । शिक्षक बन कर वह ज़िन्दगी भर अभाव में रहेगा और अपने परिवार को भी अभाव में रखेगा । आखिर शिक्षकों को आजकल कौन पूछता है ? उन्हें अपने द्वारा पढाए बच्चों के अलावा कौन इज़्ज़त देता है । उनके घर कौन आता जाता है । शहर या मुहल्ले के बड़े फ़ैसलों में उन्हें कहां शामिल किया जाता है । उसे उसकी आने वाली पीढी उम्र भर कोसेगी । साथ ही मोतीलाल मेरा भी नाम डुबाएगा । पर मोतीलाल का मन तो शिक्षा के ही क्षेत्र में लगा था । अत: उसने शिक्षक की नौकरी ज्वाइन कर ली और बच्चों को पढाने का काम करने लगा ।
देखते ही देखते 10 वर्ष गुज़र गए। सेठ रतन चंद जी का बड़ा पुत्र नीलम अपने पिता की दुकान को अच्छे से संभालने लगा था । इसके साथ ही नीलम ने शहर के अलग अलग हिस्से में अपनी दो दुकानें और खोल लिया था । उनका मंझला बेटा पुखराज रायपुर के एक बड़े बिल्डर के रुप में स्थापित हो चुका था । पुखराज के द्वारा बनाए सारे प्रोजेक्ट्स हाथों हाथ बिक जाते थे । रतन जी के दोनों बेटों का अपने अपने व्यापारिक क्षेत्र में अच्छा नाम स्थापित हो चुका था । शहर के अधिकान्श बड़े आयोजनों में उनको याद किया जाता था । वे आर्थिक रुप से बहुत सक्षम हो चुके थे और वे अलग अलग आयोजनों में यथोचित चंदा भी देते थे । वहीं तीसरे पुत्र मोतीलाल को बच्चों को पढाने में ही आनंद आता था । स्कूल और अपने विद्ध्यार्थियों के अलावा उन्हें किसी और चीज़ से ज्यादा मतलब नहीं रहता था । वे सामाजिक कार्यक्रमों से खुद को ज़रा दूर ही रखते थे । पढना और पढाना ही उनकी ज़िन्दगी थी । एक साल पूर्व वे अपने स्कूल के प्रधानाचार्य भी बन चुके थे । प्रिन्सिपल बनने के बाद भी वे बच्चों की क्लास लिया करते थे । प्रशासनिक कामों को वे कभी अपने और अपने बच्चों के बीच आड़े आने नहीं देते थे ।
अब तीनों भाइयों का अपना अपना परिवार था । तीनों भाई अब अपने अपने परिवार के साथ अलग अलग घरों में रहते थे और तीनों की घरेलू व्यवस्था भी पूरी तरह से अलग थी । मोतीलाल की पत्नी सुहागा देवी एक मद्ध्यमवर्गीय परिवार की बेटी थी । उन्हें मालूम था कि अभाव क्या होता है ? अभाव एक सीमा तक तो बर्दास्त किया जा सकता है । वहीं अभाव का रंग गाढा हो तो उसे बर्दास्त करना मुश्क़िल होता है । वह कभी अपने पति से कहती कि किस काम में फ़ंस गए हो । न पैसा है न ही इज़्ज़त । देखो आपके दोनों भाई कितनी शान से रहते हैं । उनके पास घोड़ा गाड़ी क्या क्या नहीं है ? शहर में उनका अच्छा खासा नाम है । हमें आपकी छोटी सी तन्ख्वाह में ज़िन्दगी जैसे तैसे गुज़ारनी पड़ रही है । मेरा कहा मानों और ये नौकरी छोड़ो और अपने किसी भाई के व्यापार में सहभागी बनो । सोने चांदी की मूल दुकान तो आपके पिताजी ने स्थापित किया है । उस पर आपका भी तो कुछ अधिकार बनता ही है ।
[ क्रमश; ]