दुख गए हैं कंधे मेरे, अपनों का बोझ उठाते,
फिर सपनों का बोझ उठाऊं, अब इतना दम कहाँ !
कण कण जोड़कर घरोंदा ये बनाया मैंने,
तन-मन मरोड़कर इसको सजाया मैंने।
रुक गया, मैं झुक गया, बहनों का बोझ उठाते,
गहनों का बोझ उठाऊँ, अब इतना दम कहाँ!
परिवार की आशाओं में खुद को पिराया मैंने,
बनकर छत उनकी सदा, खुद को भिगाया मैंने।
अकड़न हुई, जकड़न हुई, जाड़े से उनको बचाते,
भाड़े पर खुद को उठाऊँ, अब इतना दम कहाँ!
अधेड़ हूँ, उधेड़-बुन का शिकार, ना! मैं कोई शिकारी नहीं,
साधनों का आभाव है तो माँगता, मैं भिखारी नहीं।
एक खेल है जो खेलता ऊपर खड़ा परवरदिगार,
मैं खेल का बंदर जनाब! जो नाचता, मदारी नहीं।।
मजदूर हूँ - मजबूर हूँ, मजदूरी ही कर पाउँगा,
जो बनता है तन से मेरे, मैं उतना ही कर पाउँगा,
मैं थक गया, मैं बिक गया, न चैन अब कुछ पाउँगा
पत्नी, बहन, परिवार वहन, सुत बोझ तले दब जाऊँगा।
बिखर गया, मैं मर गया, इस धरती का बोझ उठाते,
अपनी अर्थी का बोझ उठाऊँ, अब इतना दम कहाँ!
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