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दास्तान-ए-कलम (मेरी कलम आज रोई थी)

28 अप्रैल 2017

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मेरी कलम आज फिर रोई थी,

तकदीर को कोसती हुई, मंजर-ए-मज़ार सोचती हुई,

दफ़न किये दिल में राज़, ख़यालों को नोंचती हुई।

जगा दिया उस रूह को जो एक अरसे से सोई थी,

मेरे अल्फाज़ मेरी जुबां हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।


पलकों की इस दवात में अश्कों की स्याही लेकर,

वीरान दिल में कैद मेरी यादों की दुहाई देकर।

लिखती गई, दुखती गई, हर आह! पर रूकती गई,

खुदा की न कभी कदर की, पर तेरे नाम पर झुकती गई।

फिर लिख दिया मैंने वही, तू भी कभी मेरी ‘कोई’ थी,

वह ‘कोई’ मेरा गवाह है, मेरी कलम आज रोई थी।।


अब कलम मेरी आगे बढ़ी, कुछ और लिखने को चली,

लव के कवाद, फिर शाम-ए-याद, जो तेरी बाँहों में ढली।

तनहाइयां, न अंजुमन, खामोशियाँ, न बाकपन,

फुरकत-ए-तलब, चाहत-ए-अदब, वो तेरे लबों की कली।

तितिली जो इक मुझको मिली, जहाँ को भूल बैठे थे हम,

कुछ याद है गर मुझको अभी, वो तेरे शहर की गली।

बस दर-ब-दर फिरता रहा, नज़रों से मैं गिरता रहा,

महफ़ूज रखा जिनको कभी, वो तेरी यादें थीं भली।

जिस याद में मेरी कलम, कुछ देर तलक खोई थी,

फरियाद करूँ उस याद की, मेरी कलम आज रोई थी।।


दीदार-ए-दरख्त वादा किया, उस चौदवी की रात को,

रुख़सत हुए, ये कुरबत मेरी, न समझे तुम हालात को।

‘कुछ और भी कह न मुझे!’ थी इल्तेज़ा ये उस रात को,

कहता, ‘न जाओ छोड़कर’, गर सुनता वो मेरी बात को।

मुढ़ के इक दफा देखा भी न, उफ! कैसे थे जज़्बात वो,

रो रही थी मेरे साथ जो, बस थी सिर्फ इक कायनात वो।

ख़ाब-ए-मोती वो बिखर गए, जो माला मैंने पिरोई थी,

बिखरे ख़ाब ये कहते हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।


फिर सवाल इक मुझको मिला, मेरी इसी किताब में,

क्यूँ अक्स अपना छोड़ गयी, वो मेरे हर इक खुआब में?

मिलता है रोज़ चाँद अब, लग के गले रुसवाई के,

सितारे भी अब जलने लगे, मेरे दिल के इस निसाब में।

मेरी वफ़ा का मुझे, ऐ-खुदा क्या सबब मिला,

लिखा न एक हर्फ़ भी, उसने मेरे जवाब में।

न अब कहीं वो मेरी है, न तब वह मेरी होई थी,

जो न हुई उसे याद कर, मेरी कलम आज रोई थी।।

एस. कमलवंशी की अन्य किताबें

ऋषभ खंडेलवाल

ऋषभ खंडेलवाल

बहुत ही बेहतरीन रचना एवं कमाल का लेखन है आपका। मुझे आपकी कविता की हर एक पंक्ति विशिष्ट लगी लेकिन कुछ पंक्तियाँ मेरी अंतरात्मा के इतना बेध गईं कि मैं इन्हें जितनी बार पढ़ता हूँ बरबस मेरी आँखों से आँसू छलक आते हैं। 'लिखती गई, दुखती गई, हर आह! पर रूकती गई, खुदा की न कभी कदर की, पर तेरे नाम पर झुकती गई।' एवं 'न अब कहीं वो मेरी है, न तब वह मेरी होई थी, जो न हुई उसे याद कर, मेरी कलम आज रोई थी।।'

13 मई 2017

ध्रुव सिंह  -एकलव्य-

ध्रुव सिंह -एकलव्य-

फिर सवाल इक मुझको मिला, मेरी इसी किताब में, क्यूँ अक्स अपना छोड़ गयी, वो मेरे हर इक खुआब में? मिलता है रोज़ चाँद अब, लग के गले रुसवाई के, सितारे भी अब जलने लगे, मेरे दिल के इस निसाब में। लाजवाब पंक्तियाँ ,आदरणीय आभार "एकलव्य"

13 मई 2017

नृपेंद्र कुमार शर्मा

नृपेंद्र कुमार शर्मा

सुन्दर ग़ज़ल दिल छू गई, तारीफ करें क्या आपकी। कमाल का हुनर ह,ै उपमा नहीं जनाब की।

12 मई 2017

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

अच्छी रचना है | शुभ कामनाएं |

4 मई 2017

मिलन ठाकुर

मिलन ठाकुर

बेहतरीन रचना।

2 मई 2017

सपना अवस्थी

सपना अवस्थी

लेखनी के माध्यम से अपने हृदय के भाव व्यक्त करना कोई आपसे सीखे। आप अच्छा लिखते हैं।

1 मई 2017

प्रवेश मौर्य

प्रवेश मौर्य

आपका शब्द चयन और लेखन शैली विशिष्ट है। लिखती गई, दुखती गई, हर आह! पर रूकती गई, खुदा की न कभी कदर की, पर तेरे नाम पर झुकती गई। पंकितयों ने हृदय जीत लिया। धन्यवाद

1 मई 2017

एस. कमलवंशी

एस. कमलवंशी

आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद रेणु जी!

28 अप्रैल 2017

रेणु

रेणु

पर्म पगी बहुत बेहतरीन रचना -- बहुत शुभकामना

28 अप्रैल 2017

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रचनाएँ
मेरी कलम - मेरा कलाम
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"मेरी कलम - मेरा कलाम" एस. कमलवंशी द्वारा रचित कविताओं का संग्रह है।
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अम्मा! दादू बूढ़ा है - एस. कमलवंशी

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अम्मा! दादू बूढ़ा है,कचरा, करकट कूड़ा है,क्यों न इसे फेंक दें, तपती धूप में सेंक दें!तुम ही तो कहती हो ये खाँसता है,चलते चलते हाँफता है,कितना भी खिलाओ अच्छा इसको,फिर भी हमेशा माँगता है…न कहीं जाता है, न कुछ करता है,खटिया पर पड़े पड़े सड़ता है,अंधा है, बहरा है, चाल तो देखो लंगड़ा है,ज़ोर नहीं रत्ती भर फिर भ

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ऐ बसंती हवा - एस. कमलवंशी

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काश, मेरी भी माँ होती!

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काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।प्रेम जताता, प्यार लुटाता,चरण दबाता, हृदय लगाता,जब कहती मुझे बेटा अपना, जीवन शायद सफल हो जाता, काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।मैं अनाथ बिन माँ के भटका, किसको अपनी मात् बताता,जब डर लगता इस दुनियाँ का, किस

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मैं मटमैला माटी सा

4 जून 2017
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मैं मटमैला माटी सा , माटी की मेरी काया,माटी से माटी बना, माटी में ही समाया।समय आया, आकाश समेटे घाटी-माटी पिघलाया,अगन, पवन, पानी में घोलकर, तन यह मेरा बनाया।।जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहा

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मोरे पिया बड़े हरजाई रे!

8 जुलाई 2017
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ओ री सखी तोहे कैसे बताऊँ, मोरे पिया बड़े हरजाई रे,रात लगी मोहे सर्दी, बेदर्दी सो गए ओढ़ रजाई रे।झटकी रजाई, चुटकी बजाई, सुध-बुध तक न आई रे!पकड़ी कलाई, हृदय लगाई, पर खड़ी-खड़ी तरसाई रे!अंगुली दबाई, अंगुली घुमाई, हलचल फिरहुँ न आई रे!टस से मस

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अब इतना दम कहाँ!

2 मई 2017
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दुख गए हैं कंधे मेरे, अपनों का बोझ उठाते, फिर सपनों का बोझ उठाऊं, अब इतना दम कहाँ ! कण कण जोड़कर घरोंदा ये बनाया मैंने, तन-मन मरोड़कर इसको सजाया मैंने। रुक गया, मैं झुक गया, बहनों का बोझ उठाते,

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दर्पण

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बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण, बेरंगों में रंग बिखेरा, जीवन अपना किया समर्पण। देखा जैसा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया, रूप-कुरूप हैं छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया, घर आया, दीवा

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मोरे पिया की चिट्ठी आई है

11 अगस्त 2022
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हट री सखी, न कुछ बोल अभी, सुन तो सही वह टेर भली, कर जोड़ तोसे विनती करूँ, तोहे तनिक देर की मनाही है, तू ठहर यहीं, कहीं जा नहीं, झटपट मैं फिर आ रही यहीं, न चली जाए वह डाक कहीं, मोरे पिया की चिट्ठी आ

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पथिक - एस. कमलवंशी

18 दिसम्बर 2016
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पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे,टेढ़े-मेढ़े जग-जाल में, फिरता कहाँ है सांवरे,कहाँ रही सुबहा तेरी, कहाँ है तेरी साँझ रे!पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।टिमटिम चादर ओढ़कर, सोया तू पैर पसार रे,जिस स्वप्न में रैना तेरी, क्या होगा वह साकार रे,साकार का आकार भर, तू उठ गया पौ फटने पर,

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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये?- एस. कमलवंशी

20 अगस्त 2016
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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये? कर कर सबहिं जतन मैं हारी, अँखियन दीप जलाये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... अब की कह कें बीतीं अरसें, केहिं कों जे लागी बरसें, मो सों कहते संग न छुरियो, आप ही भये पराये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... गाँव की

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यादों का पागलखाना

19 जनवरी 2019
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जब भी तेरी वफाओं का वह ज़माना याद आता है,सच कहूं तो तेरी यादों का पागलखाना याद आता है।कसमों की जंजीर जहां पर, वादों से बनी दीवारें हैंझूठ किया है खंज़र से तेरे नाम की उन पर दरारें है।टूट चुका सपनों का बिस्तर, अफ़सोसों की चादर हैतकियों को गीला करती अश्क़ों की जहां फुहारें हैं।जलती शमा में कैद वहां, परवान

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आज बहुत रोई पिया जी! - एस. कमलवंशी

13 सितम्बर 2016
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आज बहुत ही रोई पिया जी, आज बहुत ही रोई,जिस्म-फ़रोसी की दुनियाँ में, दूर तलक मैं खोयी।कोई भी हाल न मेरा पूँछे, कोई न पूँछे ठिकाना,जिधर भी जावे मोरी नजरिया, चाहवे सब अज़माना।घूँट घूँट कर ज़हर मैं निगली, देह पथरीली होई,आज बहुत ही रोई पिया मैं, आज बहुत ही रोई।लाख मुसाफ़िर, लाख प्यासे, लाख ठिखाने लाये,लाख त

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भिखारी - एस. कमलवंशी

17 सितम्बर 2016
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मेरी गली में इक भिखारी भीख मांगता है,नंगे पाँव, तपती धूप में,सर्दी-गर्मी, हर रूप में,चंद मुट्ठी पैसों से, घर का पेट पालता है,मेरी गली में इक भिखारी, रोज भीख मांगता है।।टूटे घर में बिखरा जीवन,खाली पेट, और गीला दामन,नींद खुले जब, देखें आखें,मरती त्रिया, भूखा बचपन।बेबसी में, बेकसी में हर बाधा वह लांघता

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दास्तान-ए-कलम (मेरी कलम आज रोई थी)

28 अप्रैल 2017
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मेरी कलम आज फिर रोई थी,तकदीर को कोसती हुई, मंजर-ए-मज़ार सोचती हुई,दफ़न किये दिल में राज़, ख़यालों को नोंचती हुई।जगा दिया उस रूह को जो एक अरसे से सोई थी,मेरे अल्फाज़ मेरी जुबां हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।पलकों की इस दवात में अश्कों की स्याही लेकर,वीरान दिल में कैद मेरी यादों

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मित्र का चित्र

20 मई 2017
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सुरमई आँखों को सजाएँ, काज़ल की दो लकीरें,मैंने इनमें बनती देखी कितनी ही तसवीरें,तसवीरों के रंग अनेकों, भांति-भांति मुस्काएं,कुछ सजने लगी दीवारों पर, कुछ बनने लगी तक़दीरें।कुछ में फैला रंग केसरिया, कुछ में उढ़ती चटक चुनरिया,कुछ के रंग सफ़ेद सुहाने, कुछ में नागिन लचक कमरिया

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बचपन - बुढ़ापा (एस. कमलवंशी)

2 अक्टूबर 2016
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बचपन-कचपन, बुढ़ा-पकपन,सरल-सहज, व्यथाएं पचपन,नागर निडर, हियाय खनखनचापर चपल, पिराय तनमन।डग-भर डगर, थकाये आँगन,नटवर नज़र, दुखाए दामन,अल्लड़ मस्त, संभाले जरा-धन,काफिर-कहर, सहारे अनबन।रंग बिरंग, मन फीके सावन,अंग मलंग, लाठी के आवन,ढंग-बेढंग, विराने दरपन,संग-तरंग, विचारे पलछिन।कल-कल किलक, कराहे कण-कण,मादक मदन

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ऐ मेरे दिल की दीवारों

1 मई 2017
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ऐ मेरे दिल की दीवारों, रूप अनूप तुम्हारा करूँ!सजनी के हैं रूप अनेकों, कौन सा रूप तुम्हारा करूँ?क्या श्वेत करूँ, करे शीतल मनवा, उथल पुथल चितचोर बड़ा है,करूँ चाँदनी रजत लेपकर, पूनम का जैसे चाँद खड़ा है।करूँ

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