दुःख सीहसीन तोकोई दिलरुबा हीनहीं,हर लम्हा रहे जोजेहन मेंअसल महबूबा भीवही,लाख चाहूं किनिकल जाएजिंदगी सेमेरी,बेशर्म लिपटी हैकलेजे सेकि जाती हीनहीं,कहती है, कमबख्तबिफर केअजब नाज से,दुःख हूं, रिश्ता नहीं,मौत तकपीछा छोड़ूंगी नहीं,मै हीलोरी, गज़ल भी मैं,फातिहा पढ़ूंगी मैं ही.
सब कुछ एक पल के लिए।मरना जीना सब हरि विधाता के हाथ मे।यस अपयश कर्म सब मानव के हाथ मे।हवा पानी मिट्टी आँग आसमान सब बिधाता ने अपने मन से बनाया।रेल बस जहाज ट्रक मोटर साइकिल कार मानव अपने कर से बनाया।इन सब की अधिकता विनाश का कारण है पर जननी सबकी घरती है।बीमारी महामारी ज्वाला भूकम्प जलजला तूफ़ान सब से साम
वर्ष भले ही बीत गया, एकस्मरण उस दिवस का, लेष मात्र भी कम ना हुआ, विषैली यादें, उस कड़वे दिन कीहैं आज भी जीवित मन मश्तिष्क पर, सजल हैं नेत्र, व्यथित हृदय है आजभी। हृदय व मन में, भावनाओं का वेग है, परअभिव्यक्ति के लिए शब्दों का अभाव है। किस से, एवं किस प्रकार, बताएँइसी उहापोह में, दुख के इस सागर
तेरा मिलना बहुत अच्च्छा लगे है, कि तू मुझको मेरे दुख जैसा लगे है...ये चर्चा, किसी के हुस्न की नही है। ना ये बयान है किसी के संग आसनाई के लुत्फ की। सीधे-सहज-सरल लफ्जों में यह तरजुमा है एक सत्य का। सच्चाई यह कि अपनापन और सोहबत की हदे-तकमील क्या है।अपना क्या है? कौन है?... वही जो अपने दुख जैसा है! मतलब
दुख गए हैं कंधे मेरे, अपनों का बोझ उठाते, फिर सपनों का बोझ उठाऊं, अब इतना दम कहाँ ! कण कण जोड़कर घरोंदा ये बनाया मैंने, तन-मन मरोड़कर इसको सजाया मैंने। रुक गया, मैं झुक गया, बहनों का बोझ उठाते,
सखी री मोरे पिया कौन विरमाये? कर कर सबहिं जतन मैं हारी, अँखियन दीप जलाये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... अब की कह कें बीतीं अरसें, केहिं कों जे लागी बरसें, मो सों कहते संग न छुरियो, आप ही भये पराये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... गाँव की
दुखों की पोटलीएक बार एक गांव के सभी लोग अपने अपने दुखों के कारण भगवान से बहुत नाराज हो गए वह भगवान से प्रार्थना करने लगे कि उनके दुखों को दुर करें वरना वो भगवान काहे का ?लोगें की फरियाद सुन आकाश से भविष्यवाणी हुई हे गांव वासियों ऐसा करें आज रात के तीसरे पहर में सब लोग अपने अपने दुखो को एक कागज में