बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण,
बेरंगों में रंग बिखेरा, जीवन अपना किया समर्पण।
देखा जैसा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया,
रूप-कुरूप हैं छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया,
घर आया, दीवार सजाया, पर ईश्वर की माया,
पड़ूँ फर्श पर टुकड़े होकर, किस्मत में ये लिखाया।
चलती है सबकी मनमानी, जिद करने की सबने ठानी,
न चलता जब ज़ोर किसी पर, बाद मेरी है बारी आनी।
किसी की ठोकर, किसी के पत्थर, किसी के हाथ चलें तूफानी,
टुकड़ा टुकड़ा कहे निरंतर, मेरा हाल बस मेरी जुबानी।
कितने दर तू भटका दर्पण, कितने रूप सँवारे?
दानी हों या रंक-फकीरे, सबके ही, मेरे प्यारे!
कैसे तू बनके है आया, कौन है तुझे तराशा?
आग तपिश और रजत कशिश का करता जो भी तमाशा!
कैसी है तेरी बोली भाषा, कैसे हैं तेरे नैना?
तेरी बोली मेरी भाषा, नजर तेरी मेरे नैना।
कौन कौन से रूप हैं तेरे, कैसी तेरी काया?
जिस मानव की मुझमें छाया, उसका रूप समाया!
कैसे तू हँसता है दर्पण, कैसे तू भी रोता है?
रोना तेरा, हँसना तेरा, जैसा तू भी होता है!
कौन से रंग हैं तूने देखे, कौन सा है मन भाया?
सुर्ख लाल और श्वेत, सांवरे, जो भी जैसा लाया!
इतने रंग हैं इस दुनिया में, क्यों तू है बेरंगा?
मेरा कोई न रंग है अपना, सबके रंग मैं रंगा!
है टूटना तुझको आखिर, क्यों फिर बनता बार बार तू?
गर जवाब दूँ हँसके इसका, हो जाएगा कर्जदार तू!