ऐ मेरे दिल की दीवारों, रूप अनूप तुम्हारा करूँ!
सजनी के हैं रूप अनेकों, कौन सा रूप तुम्हारा करूँ?
क्या श्वेत करूँ, करे शीतल मनवा, उथल पुथल चितचोर बड़ा है,
करूँ चाँदनी रजत लेपकर, पूनम का जैसे चाँद खड़ा है।
करूँ पीताम्बर नील नगर में, जैसे चढ़ता सूर्य गगन पर,
या फेरूं मैं कालिख़ तुझ पर, तू बेपीर सा पीर बड़ा है।
श्याम करूँ कोई शाम सोचकर, या सिंदूरी सुबह ओढ़कर?
धरा धरातल पर करूँ धानी, या रानी कोई सुमन तोड़कर?
करूँ मैं नीला कोई नीलमणि, सागर के गहरे तलहट में।
या दे दूँ सतरंगा चोला, इंद्रधनुष के रंग पोतकर।।
करूँ गुलाबी जैसे नैन शराबी, होंठों के दो जाम पिलाकर,
रूप बादामी तुम पर फेरूं, सजनी को मैं पास बुलाकर,
करूँ सुनहरा केश छटा से, गजरे के कुछ रंग सजाकर,
या बचा लूँ तुझे नज़र से, कजरे की एक धार लगाकर।
करूँ हिना सा कुछ चटकीला, मेंहदी हाथों पर बिखराकर,
या करूँ तुझे ढलता सूरज, लाली होंठों से मैं चुराकर।
क्या करूँ तेरा रंग बता दे, उलझन मेरी तू सुलझाकर,
क्या भर दूँ हर रंग उसी का, बाहों में उसे अपनी सुलाकर।
ऐ मेरे दिल की दीवारों, कौन सा रूप तुम्हारा करूँ?
सजनी के हैं रूप अनेकों, रूप अनूप तुम्हारा करूँ!