अनहद ध्वनि सी गूंजी है
फिर आज खोह भंवर में,
बज उठा है नाद फिर से
अपने ही स्तोत्र में,
चित है जागा आज फिर
गहन उस चिर निद्रा से,
चेतना स्वचेतना का बोध है...
खोजता फिरता रहा है
देख मृग अपनी कस्तूरी को,
दौड़ता ढूंढता रहा अपने ही सुगंध को
भान नहीं है उसको ये तो,
उसकी ख़ुद से ख़ुद की दूरी है।।