मिलती नही हमेशा, यहां चम्मच चांदी की;
ये जिंदगी भी, हर किसी के बस की बात नहीं ।
यहां की सारी जुड़ी हुई चीजें, कई जगह से पड़ी टूटी फुटी हुई ।
घने घने दरख्तो की छाया में, धूप बिलकुल मालूम भी न पड़ी;
राह गुजर गई तब जाना ये कि हासिल कुछ भी नही ।
नज़रिया सबका अपना अपना ही बना रहा हमेशा,
तुम्हारा मुझको समझ पाना, मेरा तुमको समझा पाना कभी बना ही नहीं।
जब चले थे तो कलि,फूल,फल सब सज गए थें;
अब रूके है तो साथ कुछ भी नहीं।
सितारों का जहां, आसमां होता दिखाई देता है;
लेकिन ये आसमां धुवे के सिवा कुछ भी नही ।
खूब मनाईं दीवालीयां, ईद और होलियां, लेकिन महज़ त्योहार के ये बस और कुछ भी नही ।
धीरे धीरे लगता है कि सब कुछ दिख रहा है, और
सब कुछ देख कर लगता है कि देखा कुछ भी नही।
पढ़कर गीता और वेद पुराण, रह गया फिर भी आधा अधूरा ज्ञान,
यह तो सिर्फ एक कविता है, पूरा यहां कुछ भी नही।
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नरेंद्र चंद्रवंशी