मैं किसी के दर्द की क्या कहूं
मैं अपने ही दर्द से बेहाल हूँ.
मैं गुलाम था हुक्मे ईमान का,
मुहब्बत से तेरी मैं मफ़्क़ूद था.
जब जाना मैंने तेरी ख़ुदाई को,
मैं खुद से भी शर्मसार हूँ.
ईमान मज़हब ने यूँ बहका दिया,
मैं इंसानियत का गुनहगार हूँ.
गर इश्क करना कोई गुनाह नहीं,
तो नफ़रत-ए- इश्क को क्या कहूँ.
गर लेना जिंदगी यहाँ इन्साफ है,
तो तेरी ज़िंदगी देने को क्या कहूं.
मैं किसी के दर्द की क्या कहूं,
मैं अपने ही दर्द से बेहाल हूँ. (आलिम)