जन्नत की आग
बढ़ चला है ताप अब,
बर्फ को पिघलने दो !
रोको विष, न रुको, कदम को बढ़ा चलो,
आक्रोश में शिखर को थोड़ा पिघलने दो,
बन चला है जंगल, अब न रहा जन्नत,
काँटों के झुर्मुठों को थोड़ा तो सुलगने दो,
रहो सजग, मन में न विष कोई घुल पाये,
थाम लो फूलों को, न काँटों संग पलने दो ।
बढ़ चला है ताप अब,
बर्फ को पिघलने दो !
सह पर पाक के, न पाक दामन अब रहा,
आस्तीन के सांप को आस्तीन से निकलने दो,
षडयंत्र की जमात में कौटिल्य को याद कर,
विष को विष से काट, जीवन को संभलने दो,
न रहेगा राज्य तो राजनीति का क्या होगा,
जन-मन से न खेलो, उनके मन को खिलने दो ।
बढ़ चला है ताप अब,
बर्फ को पिघलने दो !
धर्म के ठेकेदार, न दिशा गलत दिखलायें,
उनके नापाक इरादों को जन में न फैलने दो,
हटा दो आडम्बर लबादा, हो सीमा में आजादी,
देशद्रोह की राजनीति की हवा निकलने दो,
धन का खेल, खेल रहे सब, धर्म के दुराचारी,
स्वर्ण सिंघासन से हटा, पिंजर में धकेल दो ।
बढ़ चला है ताप अब,
बर्फ को पिघलने दो !
विजय कुमार सिंह
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