जीव तुझमें और जगत में, है फरक किस बात की,
ज्यों थोड़ा सा फर्क शामिल,मेघ और बरसात की।
वाटिका विस्तार सारा , फूल में बिखरा हुआ,
त्यों वीणा का सार सारा, राग में निखरा हुआ।
चाँदनी है क्या असल में , चाँद का प्रतिबिंब है,
जीव की वैसी प्रतीति , गर्भ धारित डिम्ब है।
या रहो तुम धुल बन कर ,कालिमा कढ़ते रहो,
या जलो तुम मोम बनकर , धवलिमा गढ़ते रहो।
पर परिक्षण में लगो या, स्वयम के उत्थान में,
या निरिक्षण निज का हो चित ,रत रहे निज त्राण में।
माँग तेरी क्या परम से , या कि दिन की ,रात की,
जीव तुझमें और जगत में,बस फरक इस बात की।
अजय अमिताभ सुमन