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कब तक सहमे रहोगे ललकारों से?

26 मार्च 2019

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कब तक सहमे रहोगे ललकारों से?

यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

बिटिया के पीले हाथ कौन करेगा
शहनाइयों का काम अब मौन करेगा
दायित्वों का निर्वहन कौन करेगा
जान पर खेलकर गुजर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

अंधेरा कितना कर दिया इक फायर ने
बुढ़ापे की लाठी छीनी उस कायर ने
मरा नहीं, अमरत्व पाया है इक नाहर ने
देश का कर्ज यूं अदा कर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

करुण क्रंदन बनी घर की किलकारी
कोई दहाड़े, कोई चूड़ी तोड़े बेचारी
पापा अब न आएंगे चीखे राज दुलारी
ज़िंदगी के कर्ज अदा कर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

बिंदिया-चूनर रोएंगे और सिंदूर रोएगा
हर खुशी रोएगी, हर शुभ दस्तूर रोएगा
बूढ़ी आंखें चुप हैं, दिल भरपूर रोएगा
हर आंख को आंसुओं से भर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

दुश्मन का दुस्साहस कितना तगड़ा है
कितनी ही मांगों का सिंदूर उजड़ा है
मातम ही मातम हर ओर उमड़ा है
यूं भी हम पर उपकार कर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

गर्व है भारत को ऐसे परिवारों पर
देश के सपूतों और वीर संतानों पर
नमन करो मिलकर इन बलिदानों पर
बलिदान ऐसा अनूठा कर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

कब तक सहमे रहोगे ललकारों से
कब बदला लोगे तुम इन गद्दारों से
बदले में सौ सिर बिछा दो तलवारों से
अफसोस कायर का न सर गया कोई
यह हरगिज़ न कहो कि मर गया कोई
देश का हक़ था अदा कर गया कोई

- अरशद रसूल

आचार्य अर्जुन तिवारी

आचार्य अर्जुन तिवारी

बहुत सुंदर काव्यभाव

26 मार्च 2019

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रचनाएँ
bulandbayan
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अज़्म हर बार चुटकुले निकले, ख़्वाब पानी के बुलबुले निकले।भले ही ख़्वाब पानी के बुलबुले निकले हों, पर ख़्वाब देखने का सिलसिला तो बंद नहीं किया जा सकता। यही तो जिंदगी और उसको जीने का फ़लसफ़ा है। यही सब सोचकर अपनी बात कहने के मक़सद से यह ब्लाॅग बनाया गया है। मैं अच्छी तरह जानता हूं और मानता भी हूं कि सामाजिक बुराइयों और अंधेरों के खि़लाफ़ मेरा यह अदबी (साहित्यिक) चराग़ एक अदना सी कोशिश है, लेकिन मैं हार नहीं मान सकता। हो सकता है कि साहित्यिक गाथाओं में बुराई रूपी अंधेरों से लड़ने वालों में मेरा नाम भी शामिल हो जाए। इसके उलट यह भी हो सकता है कि मेरी कोशिशों का कोई दस्तावेजी प्रमाण न रहे, फिर भी यह मेरे दिल को सुकून पहुंचाने के लिए काफ़ी है। आखि़र में वसीम बरेलवी साहब का शेर और बात ख़त्म... हादसों की जद पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दें
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मेरे रस-छंद तुम, अलंकार तुम्हीं होजीवन नय्या के खेवनहार तुम्हीं हो,तुम्हीं गहना हो मेरा श्रृंगार तुम्हीं हो।मेरी तो पायल की झनकार तुम्ही हो,बिंदिया, चूड़ी, कंगना, हार तुम्हीं हो।प्रकृति का अनुपम उपहार तुम्ही हो,जीवन का सार, मेरा संसार तुम्ही हो।पिया तुम्हीं तो हो पावन बसंत मेरे,सावन का गीत और

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लहू के आंसू...कौन रुख़सत हुआ है हिन्दुस्तान सेलहू के आंसू गिरने लगे आसमान सेदेखे थे जो सपने सब चकनाचूर हुएतार-तार सब उनके शुभ दस्तूर हुएनहीं मिलेंगे वो हमको इतने दूर हुएभेजा था सीमा पर किस अरमान से कौन रुख़सत हुआ है हिन्दुस्तान से लहू के आंसू गिरने लगे आसमान सेआंधियों से तूफां बनकर टकरा गयाफर्ज

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26 मार्च 2019
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28 मार्च 2019
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रूबरू जब कोई हुआ ही नहींताक़े दिल पर दिया जला ही नहींज़ुल्मतें यूं न मिट सकीं अब तककोई बस्ती में घर जला ही नहींबेजमीरों के अज़्म पुख़्ता हैंज़र्फ़दारों में हौसला ही नहींनक़्श चेहरे के पढ़ लिये उसनेदिल की तहरीर को पढ़ा ही नहींउम्र भर वह रहा तसव्वुर मेंदिल की ज़ीनत मगर बना ही नहींहमने अश्कों पर कर लिया क़ाबूग़

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बारिश आई, बारिश आईमौसम में ठंडक लाईकागज की इक नाव बनायेंचीटे को फिर सैर करायेंझड़ी जब खूब लग जायेगीबगिया मेरी खिल जायेगीभीगी सड़कें...भीगी पटरीवह निकली दादा की छतरीभीगो मिलकर आहिल-इमादबुखार को ज़रा रखना यादनिकले मेंढ़क औे" मजीरेफिसल न जाना चलना धीर

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