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किसानों को खेती बंद कर देनी चाहिए

29 मार्च 2018

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किसानों को अब खेती करना बंद ही कर देना चाहिए। सिर्फ अपने परिवार की जरूरत के लायक फसल उपजा कर बाकी जमीन को खाली छोड़ देना चाहिए। तमाम लोग ऐसे हैं जो अपने बच्चों को 2 लाख रुपये तक की मोटर साइकिल और इसी तरह का महंगा मोबाइल लेकर देने में एक बार भी नहीं कहते कि महंगा है। वह लोग किसान हितों की बातों पर बहस करते नजर आते हैं। माॅल्स में अंधाधुंध रकम खर्च करने वाले गेंहूूं की कीमत बढ़ने से डर रहे हैं। तीन सौ रुपये प्रति किलो के भाव से मल्टीप्लेक्स के इंटरवल में पॉपकॉर्न खरीदने वाले मक्का के भाव किसान को तीन रुपये प्रति किलो से अधिक न मिलने की वकालत कर रहे है। एक बार भी कोई नहीं कह रहा कि मैगी, पास्ता, कॉर्नफ्लैक्स के दाम बहुत ज्यादा हैं। सबको किसान का कर्ज दिख रहा है। माना जा रहा है कि कर्ज माफी की मांग करके किसान बहुत नाजायज बात कर रहा है।
यह जानना जरूरी है कि आप और हमारे कारण किसान कर्ज में डूबा है। उसकी फसल का उसको वाजिब दाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि उससे खाद्यान्न महंगे हो जाएंगे। सन 1975 में सोने का दाम 500 रुपये प्रति 10 ग्राम और गेहूं का समर्थन मूल्य 100 रुपये था। अब 40 साल बाद गेहूं लगभग 1500 रुपये प्रति क्विंटल है। यानी सिर्फ 15 गुना बढ़ा और उसकी तुलना में सोना आज 30 हजार रुपये प्रति दस ग्राम है। मतलब 60 गुना की दर से महंगाई बढ़ी। इसके बावजूद किसान के लिए उसे 15 गुना ही रखा गया। जबरदस्ती, ताकि खाद्यान्न महंगे न हो जाएं।
सन 1975 में एक सरकारी कर्मचारी को 400 रुपये वेतन मिलता था जो आज 60 हजार मिल रहा है। यानी 150 गुना की वृद्धि हुई है। इसके बाद भी सबको किसान से ही परेशानी है। किसानों को आंदोलन करने के बजाय खेती करना छोड़ देना चाहिए। बस अपने परिवार के लायक उपज करें और कुछ न करे। उसे एहसास ही नहीं कि उसे असल में आजादी के बाद से ही ठगा जा रहा है।
जनता और सरकार को यह समझना होगा कि किसान हिंसक क्यों हो गया है ? किसान अब मूर्ख बनने को तैयार नहीं है। बरसों तक किया जा रहा शोषण आखिरकार बगावत और हिंसा को ही जन्म देता है। आदिवासियों पर हुए अत्याचार ने नक्सल आंदोलन को जन्म दिया। अब किसान भी उसी रास्ते पर हैं। आप क्या चाहते हैं कि समर्थन मूल्य के झांसे में फंसे किसान के खून में सनी रोटियां अपनी इटालियन मार्बल की टॉप वाली डाइनिंग टेबल पर खाते रहें। बाद में जब सारा खेल किसान की समझ में आए तो वह विरोध भी नहीं करे।
हमें मालूम होना चाहिए कि हमारे एक सांसद को साल भर में चार लाख रुपये की बिजली मुफ्त फूंकने का अधिकार है। फिर भी किसान का 4000 रुपये का बिजली का बिल माफ करने के नाम पर आप टीवी चैनल देखते हुए बहस करते हैं। यह चेत जाने का समय है। आप भी कहिए कि 60-80 रुपये प्रति लीटर दूध और कम से कम 60 रुपये प्रति किलो गेहूं खरीदने के लिए तैयार हैं। कुछ कटौती अपने ऐशो आराम में कर लीजिए, वरना कल जब अन्न ही नहीं उपजेगा तो फिर आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उस कीमत पर खरीदेंगे जिस दाम पर वे बेचना चाहेंगी।

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रचनाएँ
bulandbayan
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अज़्म हर बार चुटकुले निकले, ख़्वाब पानी के बुलबुले निकले।भले ही ख़्वाब पानी के बुलबुले निकले हों, पर ख़्वाब देखने का सिलसिला तो बंद नहीं किया जा सकता। यही तो जिंदगी और उसको जीने का फ़लसफ़ा है। यही सब सोचकर अपनी बात कहने के मक़सद से यह ब्लाॅग बनाया गया है। मैं अच्छी तरह जानता हूं और मानता भी हूं कि सामाजिक बुराइयों और अंधेरों के खि़लाफ़ मेरा यह अदबी (साहित्यिक) चराग़ एक अदना सी कोशिश है, लेकिन मैं हार नहीं मान सकता। हो सकता है कि साहित्यिक गाथाओं में बुराई रूपी अंधेरों से लड़ने वालों में मेरा नाम भी शामिल हो जाए। इसके उलट यह भी हो सकता है कि मेरी कोशिशों का कोई दस्तावेजी प्रमाण न रहे, फिर भी यह मेरे दिल को सुकून पहुंचाने के लिए काफ़ी है। आखि़र में वसीम बरेलवी साहब का शेर और बात ख़त्म... हादसों की जद पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दें
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