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कहानी : अंधेर / प्रेमचंद

15 फरवरी 2016

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नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जांघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं। साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियाँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे: साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार और साठे के धोबी गाते: साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार| गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में माँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा और ऐतिहासिक मौका यही नागपंचमी का दिन था। इस दिन के लिए साल भर तैयारियाँ होती रहती थीं। आज उनमें मार्के की कुश्ती होने वाली थी। साठे को गोपाल पर नाज था, पाठे को बलदेव का गर्रा। दोनों सूरमा अपने-अपने फरीक की दुआएँ और आरजुएँ लिए हुए अखाड़े में उतरे। तमाशाइयों पर चुम्बक का-सा असर हुआ। मौजें के चौकीदारों ने लट्ठ और डण्डों का यह जमघट देखा और मर्दों की अंगारे की तरह लाल आँखें तो पिछले अनुभव के आधार पर बेपता हो गये। इधर अखाड़े में दांव-पेंच होते रहे। बलदेव उलझता था, गोपाल पैंतरे बदलता था। उसे अपनी ताकत का जोम था, इसे अपने करतब का भरोसा। कुछ देर तक अखाड़े से ताल ठोंकने की आवाजें आती रहीं, तब यकायक बहुत-से आदमी खुशी के नारे मार-मार उछलने लगे, कपड़े और बर्तन और पैसे और बताशे लुटाये जाने लगे। किसी ने अपना पुराना साफा फेंका, किसी ने अपनी बोसीदा टोपी हवा में उड़ा दी साठे के मनचले जवान अखाड़े में पिल पड़े। और गोपाल को गोद में उठा लाये। बलदेव और उसके साथियों ने गोपाल को लहू की आँखों से देखा और दाँत पीसकर रह गये।

दस बजे रात का वक्त और सावन का महीना। आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं। अंधेरे का यह हाल था कि जैसे रोशनी का अस्तित्व ही नहीं रहा। कभी-कभी बिजली चमकती थी मगर अँधेरे को और ज्यादा अंधेरा करने के लिए। मेंढकों की आवाजें जिन्दगी का पता देती थीं वर्ना और चारों तरफ मौत थी। खामोश, डरावने और गम्भीर साठे के झोंपड़े और मकान इस अंधेरे में बहुत गौर से देखने पर काली-काली भेड़ों की तरह नजर आते थे। न बच्चे रोते थे, न औरतें गाती थीं। पावित्रात्मा बुड्ढे राम नाम न जपते थे। मगर आबादी से बहुत दूर कई पुरशोर नालों और ढाक के जंगलों से गुजरकर ज्वार और बाजरे के खेत थे और उनकी मेंड़ों पर साठे के किसान जगह-जगह मड़ैया ड़ाले खेतों की रखवाली कर रहे थे। तले जमीन, ऊपर अंधेरा, मीलों तक सन्नाटा छाया हुआ। कहीं जंगली सुअरों के गोल, कहीं नीलगायों के रेवड़, चिलम के सिवा कोई साथी नहीं, आग के सिवा कोई मददगार नहीं। जरा खटका हुआ और चौंके पड़े। अंधेरा भय का दूसरा नाम है, जब मिट्टी का एक ढेर, एक ठूँठा पेड़ और घास का ढेर भी जानदार चीजें बन जाती हैं। अंधेरा उनमें जान ड़ाल देता है। लेकिन यह मजबूत हाथोंवाले, मजबूत जिगरवाले, मजबूत इरादे वाले किसान हैं कि यह सब सख्तियाँ झेलते हैं ताकि अपने ज्यादा भाग्यशाली भाइयों के लिए भोग-विलास के सामान तैयार करें। इन्हीं रखवालों में आज का हीरो, साठे का गौरव गोपाल भी है जो अपनी मड़ैया में बैठा हुआ है और नींद को भगाने के लिए धीमें सुरों में यह गीत गा रहा है: मैं तो तोसे नैना लगाय पछतायी रे| अचानक उसे किसी के पाँव की आहट मालूम हुई। जैसे हिरन कुत्तों की आवाजों को कान लगाकर सुनता है उसी तरह गोपाल ने भी कान लगाकर सुना। नींद की अंघाई दूर हो गई। लट्ठ कंधे पर रक्खा और मड़ैया से बाहर निकल आया। चारों तरफ कालिमा छाई हुई थी और हलकी-हलकी बूंदें पड़ रही थीं। वह बाहर निकला ही था कि उसके सर पर लाठी का भरपूर हाथ पड़ा। वह त्योराकर गिरा और रात भर वहीं बेसुध पड़ा रहा। मालूम नहीं उस पर कितनी चोटें पड़ीं। हमला करनेवालों ने तो अपनी समझ में उसका काम तमाम कर ड़ाला। लेकिन जिन्दगी बाकी थी। यह पाठे के गैरतमन्द लोग थे जिन्होंने अंधेरे की आड़ में अपनी हार का बदला लिया था।

गोपाल जाति का अहीर था, न पढ़ा न लिखा, बिलकुल अक्खड़। दिमाग रौशन ही नहीं हुआ तो शरीर का दीपक क्यों घुलता। पूरे छ: फुट का कद, गठा हुआ बदन, ललकान कर गाता तो सुननेवाले मील भर पर बैठे हुए उसकी तानों का मजा लेते। गाने-बजाने का आशिक, होली के दिनों में महीने भर तक गाता, सावन में मल्हार और भजन तो रोज का शगल था। निड़र ऐसा कि भूत और पिशाच के अस्तित्व पर उसे विद्वानों जैसे संदेह थे। लेकिन जिस तरह शेर और चीते भी लाल लपटों से डरते हैं उसी तरह लाल पगड़ी से उसकी रूह असाधारण बात थी लेकिन उसका कुछ बस न था। सिपाही की वह डरावनी तस्वीर जो बचपन में उसके दिल पर खींची गई थी, पत्थर की लकीर बन गई थी। शरारतें गयीं, बचपन गया, मिठाई की भूख गई लेकिन सिपाही की तस्वीर अभी तक कायम थी। आज उसके दरवाजे पर लाल पगड़ीवालों की एक फौज जमा थी लेकिन गोपाल जख्मों से चूर, दर्द से बेचैन होने पर भी अपने मकान के अंधेरे कोने में छिपा हुआ बैठा था। नम्बरदार और मुखिया, पटवारी और चौकीदार रोब खाये हुए ढंग से खड़े दारोगा की खुशामद कर रहे थे। कहीं अहीर की फरियाद सुनाई देती थी, कहीं मोदी रोना-धोना, कहीं तेली की चीख-पुकार, कहीं कमाई की आँखों से लहू जारी। कलवार खड़ा अपनी किस्मत को रो रहा था। फोहश और गन्दी बातों की गर्मबाजारी थी। दारोगा जी निहायत कारगुजार अफसर थे, गालियों में बात करते थे। सुबह को चारपाई से उठते ही गालियों का वजीफा पढ़ते थे। मेहतर ने आकर फरियाद की-हुजूर, अण्डे नहीं हैं, दारोगाजी हण्टर लेकर दौड़े और उस गरीब का भुरकुस निकाल दिया। सारे गाँव में हलचल पड़ी हुई थी। कांसिटेबल और चौकीदार रास्तों पर यों अकड़ते चलते थे गोया अपनी ससुराल में आये हैं। जब गाँव के सारे आदमी आ गये तो वारदात हुई और इस कम्बख्त गोपाल ने रपट तक न की। मुखिया साहब बेंत की तरह कांपते हुए बोले--हुजूर, अब माफी दी जाय। दारोगाजी ने गजबनाक निगाहों से उसकी तरफ देखकर कहा--यह इसकी शरारत है। दुनिया जानती है कि जुर्म को छुपाना जुर्म करने के बराबर है। मैं इस बदकाश को इसका मजा चखा दूँगा। वह अपनी ताकत के जोम में भूला हुआ है, और कोई बात नहीं। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मुखिया साहब ने सिर झुकाकर कहा--हुजूर, अब माफी दी जाय। दारोगाजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं और झुंझलाकर बोले--अरे हजूर के बच्चे, कुछ सठिया तो नहीं गया है। अगर इसी तरह माफी देनी होती तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा था कि यहाँ तक दौड़ा आता। न कोई मामला, न ममाले की बात, बस माफी की रट लगा रक्खी है। मुझे ज्यादा फुरसत नहीं है। नमाज पढ़ता हूँ, तब तक तुम अपना सलाह मशविरा कर लो और मुझे हँसी-खुशी रुखसत करो वर्ना गौसखाँ को जानते हो, उसका मारा पानी भी नही मांगता! दारोगा तकवे व तहारत के बड़े पाबन्द थे पाँचों वक्त की नमाज पढ़ते और तीसों रोजे रखते, ईदों में धूमधाम से कुर्बानियाँ होतीं। इससे अच्छा आचरण किसी आदमी में और क्या हो सकता है!

मुखिया साहब दबे पाँव गुपचुप ढंग से गौरा के पास और बोले--यह दारोगा बड़ा काफिर है, पचास से नीचे तो बात ही नहीं करता। अब्बल दर्जे का थानेदार है। मैंने बहुत कहा, हुजूर, गरीब आदमी है, घर में कुछ सुभीता नहीं, मगर वह एक नहीं सुनता। गौरा ने घूँघट में मुँह छिपाकर कहा--दादा, उनकी जान बच जाए, कोई तरह की आंच न आने पाए, रूपये-पैसे की कौन बात है, इसी दिन के लिए तो कमाया जाता है। गोपाल खाट पर पड़ा सब बातें सुन रहा था। अब उससे न रहा गया। लकड़ी गांठ ही पर टूटती है। जो गुनाह किया नहीं गया वह दबता है मगर कुचला नहीं जा सकता। वह जोश से उठ बैठा और बोला--पचास रुपये की कौन कहे, मैं पचास कौड़ियाँ भी न दूँगा। कोई गदर है, मैंने कसूर क्या किया है? मुखिया का चेहरा फक हो गया। बड़प्पन के स्वर में बोले-धीरे बोलो, कहीं सुन ले तो गजब हो जाए। लेकिन गोपाल बिफरा हुआ था, अकड़कर बोला--मैं एक कौड़ी भी न दूँगा। देखें कौन मेरे फांसी लगा देता है। गौरा ने बहलाने के स्वर में कहा--अच्छा, जब मैं तुमसे रूपये मांगूँ तो मत देना। यह कहकर गौरा ने, जो इस वक्त लौड़ी के बजाय रानी बनी हुई थी, छप्पर के एक कोने में से रुपयों की एक पोटली निकाली और मुखिया के हाथ में रख दी। गोपाल दांत पीसकर उठा, लेकिन मुखिया साहब फौरन से पहले सरक गये। दारोगा जी ने गोपाल की बातें सुन ली थीं और दुआ कर रहे थे कि ऐ खुदा, इस मरदूद के दिल को पलट। इतने में मुखिया ने बाहर आकर पचीस रूपये की पोटली दिखाई। पचीस रास्ते ही में गायब हो गये थे। दारोगा जी ने खुदा का शुक्र किया। दुआ सुनी गयी। रुपया जेब में रक्खा और रसद पहुँचाने वालों की भीड़ को रोते और बिलबिलाते छोड़कर हवा हो गये। मोदी का गला घुंट गया। कसाई के गले पर छुरी फिर गयी। तेली पिस गया। मुखिया साहब ने गोपाल की गर्दन पर एहसान रक्खा गोया रसद के दाम गिरह से दिए। गाँव में सुर्खरू हो गया, प्रतिष्ठा बढ़ गई। इधर गोपाल ने गौरा की खूब खबर ली। गाँव में रात भर यही चर्चा रही। गोपाल बहुत बचा और इसका सेहरा मुखिया के सिर था। बड़ी विपत्ति आई थी। वह टल गयी। पितरों ने, दीवान हरदौल ने, नीम तलेवाली देवी ने, तालाब के किनारे वाली सती ने, गोपाल की रक्षा की। यह उन्हीं का प्रताप था। देवी की पूजा होनी जरूरी थी। सत्यनारायण की कथा भी लाजिमी हो गयी।

फिर सुबह हुई लेकिन गोपाल के दरवाजे पर आज लाल पगड़ियों के बजाय लाल साड़ियों का जमघट था। गौरा आज देवी की पूजा करने जाती थी और गाँव की औरतें उसका साथ देने आई थीं। उसका घर सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू से महक रहा था जो खस और गुलाब से कम मोहक न थी। औरतें सुहाने गीत गा रही थीं। बच्चे खुश हो-होकर दौड़ते थे। देवी के चबूतरे पर उसने मिटटी का हाथी चढ़ाया। सती की मांग में सेंदुर डाला। दीवान साहब को बताशे और हलुआ खिलाया। हनुमान जी को लड्डू से ज्यादा प्रेम है, उन्हें लड्डू चढ़ाये तब गाती बजाती घर को आयी और सत्यनारायण की कथा की तैयारियाँ होने लगीं । मालिन फूल के हार, केले की शाखें और बन्दनवारें लायीं। कुम्हार नये-नये दिये और हांडियाँ दे गया। बारी हरे ढाक के पत्तल और दोने रख गया। कहार ने आकर मटकों में पानी भरा। बढ़ई ने आकर गोपाल और गौरा के लिए दो नयी-नयी पीढ़ियाँ बनायीं। नाइन ने आंगन लीपा और चौक बनायी। दरवाजे पर बन्दनवारें बँध गयीं। आंगन में केले की शाखें गड़ गयीं। पण्डित जी के लिए सिंहासन सज गया। आपस के कामों की व्यवस्था खुद-ब-खुद अपने निश्चित दायरे पर चलने लगी । यही व्यवस्था संस्कृति है जिसने देहात की जिन्दगी को आडम्बर की ओर से उदासीन बना रक्खा है । लेकिन अफसोस है कि अब ऊँच-नीच की बेमतलब और बेहूदा कैदों ने इन आपसी कर्तव्यों को सौहार्द्र सहयोग के पद से हटा कर उन पर अपमान और नीचता का दाग लगा दिया है। शाम हुई। पण्डित मोटेरामजी ने कन्धे पर झोली डाली, हाथ में शंख लिया और खड़ाऊँ पर खटपट करते गोपाल के घर आ पहुँचे। आंगन में टाट बिछा हुआ था। गाँव के प्रतिष्ठित लोग कथा सुनने के लिए आ बैठे। घण्टी बजी, शंख फुंका गया और कथा शुरू हुईं। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में फूंका गया और कथा शुरू हुई। गोपाल भी गाढ़े की चादर ओढ़े एक कोने में दीवार के सहारे बैठा हुआ था। मुखिया, नम्बरदार और पटवारी ने मारे हमदर्दी के उससे कहासत्यनारायण क महिमा थी कि तुम पर कोई आंच न आई। गोपाल ने अँगड़ाई लेकर कहासत्यनारायण की महिमा नहीं, यह अंधेर है।

 
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रचनाएँ
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महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की कुछ मशहूर कहानियों का संकलन...
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कहानी : ईदगाह / प्रेमचंद

15 फरवरी 2016
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रमजानके पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षोंपर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछअजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आजका सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहाहै। गॉंव में कितनी हलचल है। ई

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जीवन परिचय / प्रेमचंद

15 फरवरी 2016
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महानसाहित्यकार प्रेमचन्द जी का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमहीगाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर केतौर पर काम करते थे। प्रेमचन्द जी के बचपन का नाम धनपतराय था| धनपतराय की उम्र जबकेवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अप

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कहानी : अंधेर / प्रेमचंद

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कहानी : अनाथ लड़की / प्रेमचंद

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सेठपुरुषोत्तमदास पूना की सरस्वती पाठशाला का मुआयना करने के बाद बाहर निकले तो एकलड़की ने दौड़कर उनका दामन पकड़ लिया। सेठ जी रुक गये और मुहब्बत से उसकीतरफ देखकर पूछा—क्या नाम है? लड़की ने जवाब दिया—रोहिणी। सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोले—तुम्हें कुछ इनाम मिला? लड़की ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गंभी

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कहानी : पूस की रात / प्रेमचंद

15 फरवरी 2016
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हल्कूने आकर स्त्री से कहा-- सहना आया है । लाओं, जो रुपये रखे हैं,उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे । मुन्नी झाड़ू लगा रही थी।पीछे फिरकर बोली-तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगें। अभी नहीं । हल्कूएक क्षण अनिशिचत दशा में खड़ा

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कहानी : दो बैलों की कथा / प्रेमचंद

17 फरवरी 2016
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जानवरोंमें गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दरजे काबेवकूफ कहना चाहता है तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ हैं, या उसके सीधेपन,उसकी मिरापद सहिष्णुता ने उसे यहपदवी दे दी हैं, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता ।गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास हीसिंहनी का र

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कहानी : ठाकुर का कुआँ / प्रेमचंद

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जोखूने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला-यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सडापानी पिलाए देती है ! गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआं दूरथा, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वहपानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी

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कहानी : शतरंज के खिलाड़ी / प्रेमचंद

17 फरवरी 2016
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वाजिदअलीशाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोईनृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की पीनक ही के मजेलेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था। शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में

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कहानी : वरदान / प्रेमचंद

17 फरवरी 2016
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विंध्याचलपर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुएछोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएँ है और अष्टभुजा देवी का मन्दिर, जिसके कलश पर श्वेत पताकाएँ वायु की मन्द-मन्द तरंगों मेंलहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है। मंदिर में एकझिलमिलाता हुआ दीप

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कहानी : पंच परमेश्वर / प्रेमचंद

20 फरवरी 2016
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जुम्मनशेख अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भीसाझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खाना-पाना काव्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचा

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वर्तमान राजनीति का क्या कोई ईमान धर्म नहीं ?

21 मार्च 2016
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कहते हैं मोहब्बत और जंग में सब जायज है | वर्तमान राजनीति भी अब इसमें शामिल हो गई है | उत्तराखंड में ताजा राजनीतिक उठापटक हो या फिर कोई राज्य हर जगह बस सत्ता ही सर्वोपरि है जिसके कारण आज किसी भी पार्टी में कोई नीति धर्म ईमान नहीं दिखता | आपको क्या लगता है ???

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विराट का कहना कि हर बात में अनुष्का को घसीट कर मजाक किया जाना अत्यंत शर्म की बात है, पर आपका क्या कहना है ?

29 मार्च 2016
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भारत के विस्फोटक बल्लेबाज और इन दिनों क्रिकेट के भगवान के तौर पर देखे जाने वाले विराट कोहली ने उनकी जीत हार और जीवन को लेकर उनकी कथित प्रेमिका अनुष्का शर्मा को लेकर सोशल मीडिया में बने मजाक लतीफों को शर्म की बात कहा है | साथ ही ऐसा करने वालों के लिए यह भी कहा  कि अगर यही उनके जीवन से जुड़ी किसी भी मह

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बालिका वधू की आनंदी फेम प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या और न्यूज़ चैनल्स !

6 अप्रैल 2016
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बालिका वधू की आनंदी फेम प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या को लेकर इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया विशेष कर न्यूज़  चैनल्स पर जरुरत से ज्यादा हाइप क्रिएट करने या इस पर राष्ट्रीय बहस को क्या आप उनकी टीआरपी बढ़ाने की कोशिश मानते हैं या समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ??? यही न्यूज़ चैनल्स बुंदेलखंड विदर्भ में पान

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आइपीएल मैच या पानी ???

7 अप्रैल 2016
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जिस तरह से सूखा प्रदेशों की संख्या १० तक हो चुकी है उस पर माननीय कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार को जनता को पीने का पानी मुहैया कराने के लिए फटकार लगाने से क्या सरकार चेत जायेगी ? जिस मराठवाड़ा  में लाखों लोगों को पानी के लिए अपने घरों से पलायन करना पड़ रहा है | वहां आइपीएल मैच  के लिए स्टेडियम तैयार करने म

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