शिखर
शिखा का हंसता खेलता संसार जहां उसके परिवारजनों के लिए गौरव का विषय था वहीं पास-पड़ोस के लिए चर्चा एवं जलन का कारण था। आज के इस युग में भी भला कोई तनाव रहित रह सकता है यही सोच-सोच कर पड़ोसी परिवारों की महिलाएं परेशान रहा करती थीं। ईश्वर ने जितना सुंदरता प्रदान की थी उससे भी अच्छा था उसका स्वभाव और व्यवहार। प्रथम दृष्टि में ही रूपवती होने के कारण लोगों के आकर्षण का केंद्र बन जाती वहीं मधुर और अपनत्वपूर्ण व्यवहार के कारण वह प्रथम भेंट में ही लोगों के ह्रदय में घर कर जाती। उच्च शिक्षित एवं सम्पन्न होने के बावजूद उसमें अहंकार नाम मात्र को भी नहीं था।
पति शेखर भी उच्च शिक्षित राज्य सरकार का प्रथम श्रेणी अधिकारी एवं एक बहुत ही आकर्षक व्यक्तिव का स्वामी था। उत्तम श्रेणी की कार्य क्षमता तथा सद्व्यवहार के वह भी अपने विभाग में चर्चा का केंद्र बना रहता था। कोई कहता-‘लगता नहीं है रिजर्व क्लास वाला है। तो कोई कहता एस.सी.भी बदल रहे हैं, किसी भी दृष्टि से लगता नहीं है कि यह एस.सी. हो सकता है। ऑफिस तो ऑफिस घर परिवार से भी किसी उच्च वर्ग से कम नहीं लगता बल्कि पत्नि, बच्चों तथा रहन सहन को देखकर भी नहीं अंदाजा लगा सकता कि ये लोग भी इस तरह की जीवन शैली वाले हो सकते हैं। इसी प्रकार के न जाने कितने वाक्य शेखर के बारे में सहकर्मियों, अधिकारियों तथा व्यवहृतजनों द्वारा कहे जाते।
बहुत सुचारू एवं सुव्यवस्थित जीवन चल रहा था। दोनों को लोग क्या कहते हैं इससे कोई सरोकार था ही नहीं। वस्तुत: चूंकि दोनों शिक्षित परिवार से थे और दोनों को लालन-पालन तथा पठन-पाठन कॉस्मोपोलेटन सोसायटी में हुआ था इसलिए जातिवाद, ऊंच-नीच आदि का वातावरण दोनों ने ही कभी देखा नहीं था। उन्होंने तो बस अपने काम से काम तथा गुणवत्तापूर्ण जीवन जीना अपने-अपने परिवारों से सीखा था और उसी के अनुरूप जी रहे थे। केंद्र सरकार के कार्यालयों और राज्य सरकार के कार्यालयों की न सिर्फ कार्यशैली में अंतर होता है बल्कि साथी कर्मियों की सोच में भी पर्याप्त अंतर होता है। जहां अलग-अलग जगहों, समुदायों से एकत्र हुए केंद्र सरकार के अधिकारी एवं कर्मचारी आपस में मिलते-मिलाते हुए अपने-अपने कार्य निष्पादन पर ध्यान केंद्रित रखते हैं वहीं अधिकांश राज्य सरकारों के अधिकारियों तथा कर्मियों की कार्यशैली के प्रांरभ में ही जातिवाद दिखाई देता है। यहां तो सब कुछ जाति से शुरू होता है और जाति पर ही खत्म होता है। कारण बहुत से होते हैं परंतु सत्य यही है कि जातिवाद हाबी रहता है। शेखर इस बात को कई बार महसूस करता था परंतु यह सोच कर नज़रअंदाज कर जाता कि उससे क्या करना है इन लोगों से उसे तो अपना काम करना है और वह उसे अच्छी तरह से कर रहा है। समग्र रूप से ये कहिए कि शिखा और शेखर का जीवन बहुत अच्छा चल रहा था।
पुरानी कहावत है कि वक्त और हालात कब बदल जाएं कोई नहीं जानता। शिखा पर भी बज्रपात ही हुआ जब एक दिन अचानक जब उसे शेखर की कार से दुर्घटना का समाचार मोबाइल पर किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा प्राप्त हुआ। यह सुन उसके तो पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। वह बदहवास अवस्था में जब नर्सिंग होम पहुंची तो डॉक्टर ने उससे माफी मांगते हुए कहा कि अधिक रक्तस्राव हो जाने के कारण वे बहुत प्रयत्न के बावजूद उसके पति शेखर को नहीं बचा सके ।
ये दिन था, जहां से शिखा और उसके दोनों बच्चों सौम्या एवं शंतनु के हंसते खेलते जीवन में दुखों का अनवतर सिलसिला शुरू हुआ, जिसका अंत शिखा की जीवन लीला समाप्त होने के दिन ही खत्म हुआ। लेकिन शिखा अपनी इज्ज़त आबरू बचाने में अंतत: सफल हुई भले ही उसे अपने दोनों मासूम बच्चों को इस संसार में अपने परिवारजनों के पास छोड़कर इस संसार को अलविदा कहना पड़ा। अपने इस अदम्य साहस और बलिदान के कारण न सिर्फ सम्पूर्ण नारी जाति बल्कि अनुसूचित जाति की महिलाओं की दृष्टि में सचमुच अपने नाम ‘शिखा’ को चरितार्थ करते हुए चोटि पर जा बैठी। उसे अत्याचारी का अंतकर महिलाओं में साहस की अदम्य ज्योति प्रज्जवलित की, जिससे प्रेरणा ले नारी चाहे किसी भी वर्ग की हो, अपनी रक्षा करने की दिशा में स्वयं ही पहले कर सके, वह किसी पुरूष विशेष पर आश्रित न रहे।
हुआ कुछ यों कि शेखर के दिवंगत होने के बाद परिवारजनों के परामर्श एवं बच्चों का ख्याल रखते हुए शिखा ने अपने पति के विभाग में अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन पत्र दिया। आवेदन पत्र दिए जाने के दिन से सिलसिला शुरू हुआ अनवरत चक्करों का। जीवन में पहली बार उसने जाना कि पति के जाने के बाद किस तरह उसके अधीनस्थों का व्यवहार आश्रितों के प्रति बदल जाता है। हर तरफ यौवन को हबस का शिकार बनाने के लिए घूरती नजरें। जिसे देखो वही अपनी रोटी सेकने के फेर में दिखाई दिया। झूठी सांत्वना के पीछे यौवन प्राप्त करने की ललक शिखा भली भांति समझती थी परंतु सिर्फ मन मसोस कर रह जाती। अंदर ही अंदर घुटन महसूस करती और सब कुछ छोड़ कहीं और जिंदगी शुरू करने की सोचती परंतु बच्चों का ख्याल आते ही पुन: जुट जाती नौकरी प्राप्त करने की कोशिश में। छोटे-छोटे कामों के लिए सिर्फ इसलिए दौड़ाया जाता ताकि वह आकर लोगों के पास मिले और उन्हें उसके रूप सौंदर्य का बखान एवं चक्षुआश्वादन का अवसर प्राप्त हो सके। जिसका उसकी नौकरी से कोई संबंध भी नहीं होता, वह भी झूठी सांत्वना दिखाकर उसके आस-पास मंडराने का अवसर ढूंढ ही लेता। कार्यालयीन दस्तावेजों की खानापूर्ति में महीनों गुजर गए। फिर किसी तरह नियुक्ति हेतु परीक्षा का दिन आया। शिक्षित और होशियार तो वह थी ही, अत: उससे विश्वास था कि उसे कम से कम तृतीय श्रेणी में तो नियुक्ति मिल ही जाएगी। परंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा पर भारी पड़ा उसका यौवन एवं सुंदरता। परीक्षा परिणाम आया । सूचना पट पर उसे परीक्षा में अनुत्तीर्ण घोषित किया जाना देखकर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। क्योंकि प्रश्न पत्र के अधिकांश प्रश्न उसने सही हल किए थे और उसके फेल होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। वह हताश भाव से वहीं बरामदे में पड़ी बैंच पर बैठी हुई थी तभी उसकी हालत देख कर एक बूढ़ा चपरासी उसके पास आया और सलाह दी कि वह एक बार साहब से मिल ले । उसने कहा –‘नए – नए आए हैं और अच्छे इंसान लगते हैं । आपकी समस्या का कोई न कोई हल अवश्य निकालेंगे।’ शिखा ने चैम्बर में प्रवेश करने से पहले नाम पट्ट पढ़ा । हर्षवर्धन, निदेशक (कार्मिक)। कक्ष में आने की अनुमति मांगी तो निदेशक महोदय ने फाइल पर नज़र गडाए हुए ही कहा – ‘कम इन’। शिखा द्वारा ये कहते ही कि ‘सर मेरा नाम शिखा शेखर है। हर्षवर्धन की नज़र उठी और वह अपलक शिखा को निहारता रह गया।
शिखा को याद आया ये तो वही हर्षवर्धन है जो मुंबई विश्वविद्यालय में उसका सहपाठी था। दोनों एक ही राज्य के थे, इस नाते कभी-कभार हाय हैलो हो जाया करती थी । शिखा ने कभी भी हर्ष की ओर ध्यान नहीं दिया परंतु हर्ष तो शिखा से मित्रता की ही नहीं उससे भी ज्यादा उम्मीदें रखता था। शिखा को उसकी सहेलियों से हर्ष के बारे में कुछ बातें पता चली, जिनमें से सबसे ज्यादा खराब बात उसे लगी वह थी, उसकी लड़कियों के साथ खिलवाड़ कर छोड़ देने की आदत। शिखा कोई नाता रिश्ता न होने पर भी उससे अंदर ही अंदर नफ़रत करने लगी।
हर्ष शिखा के रूप सौंदर्य पर इतना ज्यादा आश्क्त था कि कोई भी अवसर नहीं छोड़ता उसके पास आने का। शिखा का दूर-दूर रहना और हर्ष का उसके पास आने का प्रयास करते रहने की ‘चूहे बिल्ली की दौड़’ का अंत उस दिन हुआ जब हर्ष ने शिखा को प्रणय हेतु अपना निमंत्रण दिया। शिखा ने साफ तौर पर मना करते हुए कहा कि वह ऐसा कभी भी सोचने की गलती न करें कि वह हर्ष की कभी भी हो सकती है और उससे पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया कि उसकी शादी तय हो गई है अत: दुबारा वह ऐसी हरकत न करे, नहीं तो उसकी शिकायत करनी पड़ेगी। शिखा ने सोचा चलो पीछा छूटा।
शिखा का मन हर्ष के प्रति उस दिन और भी नफरत से भर गया, जब उसने हर्ष को अपने एक मित्र से यह कहते हुए सुना कि ‘साली चमरिया.....जाएगी कहां बच के......एक न दिन हो जरूर आएगी फंदे में। यार......है गजब की साली किसी चमार की लगती नहीं है ......किसी न किसी ऊंचे का ही बीज होगा। ......इतनी सुंदर लौंडियां चमारों से कब पैदा हुई हैं, हम जैसे किसी सवर्ण के दान का फल होगी। इसके बाद तो शिखा ने कभी भी उसकी ओर नज़र करके देखा ही नहीं। वह भूल चुकी थी यह सब परंतु हाय री, नीयति उसे कहां पता था कि जीवन में फिर से उस गंदे इंसान का सामना करना पड़ेगा और वह भी ऐसे हालातों में।
शिखा के विचारों की तंद्रा हर्ष की आवाज़ से भंग हुई । उसने उसे बैठने के लिए कहा और आने का कारण पूंछा । हालांकि वह सब पहले से ही जानता था क्योंकि कि परीक्षा परिणाम उसी के हस्ताक्षर से जारी हुआ था और वह पूरे मामले से अच्छी तरह अवगत था।
शिखा अनभिज्ञ थी कि हर्ष, उसके विरूद्ध पहले से ही की उसे फंसाने का चक्रव्यूह रच चुका है। उसने शिखा की सारी बात बहुत ही ध्यान से सुनी और कहा कि वह किसी तरह की चिंता न करे। वह सब ठीक कर देगा और आश्वासन दिया कि फाइल मंगाकर देखने के बाद स्थिति बताएगा क्योंकि वह तो अभी कुछ दिन पहले ही आया है। शिखा को दो दिन बाद आने के लिए कहा। शिखा का व्यवहार कुछ खिंचा-खिंचा सा लगा और जब शिखा चलने लगी तो उसने कहा-‘शिखा मैं इतना भी बुरा नहीं हूं जितना तुमने मुझे समझा था......तुम बिल्कुल चिंता मत करों आखिर हम क्लास फैलो रहे हैं और मैं यदि तुम्हारी मदद कर पाया तो मेरा सौभाग्य होगा।
शिखा दो दिन बाद जब हर्ष के पास पहुंची तो उसने बहुत ज्यादा सम्मान के साथ उसे बिठाया तथा कहा कि अरे शिखा तुम तो बहुत इंटलिजेंट हुआ करती थी पर तुम्हारी उत्तर पुस्तिका में तुमने बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर गलत दिए हैं । मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ कि तुम इतनी डल हो सकती हो। यही नीति सवर्ण दलितों को दबाने के लिए अपनाते हैं। किसी भी बु्द्धिमान व्यक्ति को अपने चंगुल में फंसाना हो तो सीधे उसके मस्तिष्क पर प्रहार करों ताकि वह हीन भावना से ग्रसित हो जाए और स्वयं को अपनी ही दृष्टि में हेय समझने लगे। यही किया हर्ष ने। शिखा इससे पहले कुछ कहती उससे एहसान जताते हुए कहा कि आखिर तुम मेरी मित्र हो और तुम्हें चतुर्थ श्रेणी में तो नहीं जाने दूंगा। मैं अपने विशेषाधिकार का प्रयोग सिर्फ तुम्हारे लिए करते हुए तुम्हें पर्सनल सेक्रेटरी के रिक्त पर नियुक्त करने की व्यवस्था करता हूं। करता क्या हूं कर दिया......आखिर तुम मेरी चाहत रही हो .....भले ही मेरी तरफ से ही सही .....चाहत तो रही है हमारे बीच।’ इतना कहते हुए उसके हाथ में नियुक्ति पत्र थमाते हुए बधाई देने के साथ-साथ वह शिखा के हाथ को छूना नहीं भूला। शिखा को उसका स्पर्श बिल्कुल अच्छा नहीं लगा परंतु कुछ सोच कर वह चुप रह गई।
अब तो हर्ष के पास शिखा के समक्ष अपनी चाहत के इजहार के लिए रोजाना 8-10 घंटे का समय था, इसलिए प्रारंभ में उसने शिखा को कामकाज करने दिया तथा दिन ब दिन काम का बोझ उसके कंधों पर डालता गया। अधिकारी द्वारा किसी भी कर्मचारियों को अपनी बात मनमाने का यह भी एक हथकंडा है । किसी भी कर्मचारी पर इतना ज्यादा वर्कलोड दे दो कि वह कह उठ कि बस । और बस कहते ही अधिकारी उसके ऊपर एहसान जताते-जताते अपनी मर्जी मनमाने के लिए मानसिक रूप से विवश कर सके। विशेषकर महिला कर्मचारियों के लिए तो अक्सर पुरूष अधिकारी इसी तुरप की चाल का प्रयोग करते हैं। महिला कर्मचारी के कार्यालय में देरी से पहुंचने पर बस एहसान जताकर छोड़ देना। शाम को जल्दी जाने की इजाजत दे देना आदि चिरपरिचित एहसान हैं जो स्त्रियों के दैहिक शोषण्ा का मार्ग खोलते हैं। और ऐसी स्त्रियां कार्यालयों में होती है जो अपने लाभ के लिए अपने बॉस को खुश रखने के लिए अपने आप को प्रस्तुत करने में कोई गुरेज नहीं करती हैं। पर शिखा के मामले में ऐसा कुछ नहीं हो पा रहा था, क्योंकि शिखा उसके नियंत्रक अधिकारी हर्ष के आने से पहले ही कार्यालय में उपलब्ध होती और अक्सर अपने दत्त कार्यों के निपटान में ही व्यस्त दिखाई देती। शाम को भी कभी उसने हर्ष से जल्दी जाने का आग्रह नहीं किया।
एक दिन हर्ष ने शिखा को शाम के समय बुलाया और कार्यालयीन दौरे के लिए साथ चलने की पेशकश करते हुए उसके हाथ में द्वितीय वातानुकूलित कोच की आरक्षित टिकट उसके हाथ में थमा दी। शिखा ने पूछा- ऑफिस से और कौन साथ जा रहा है। तो हर्ष ने कहा ऑफीसर के साथ उसका पी.ए. जाता उसका पूरा ऑफिस नहीं। ये कहते हुए हर्ष ने बहुत ही अर्थपूर्ण दृष्टि से शिखा की पूरी देहयष्टि को निहारा। शिखा को हर्ष के मंसूबे समझते देर न लगी परंतु कार्यालयीन मर्यादा के अनुकूल बोली – मैं अकेली तो आपके साथ जा नहीं सकती। मेरी बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। अत: आप किसी और को साथ ले जाइए। हर्ष के तेवर बदल गए और बोला- तुम्हें क्या लगता है तुम ही एकमात्र सुंदरी हो इस कार्याल्ाय में जो इतना भाव खा रही हो। ऐसी औरतें बहुत हैं इस ऑफिस में जो मेरे एक इशारे पर न सिर्फ साथ चलने के तैयार हैं और वो सब कुछ खुशी – खुशी करने को तैयार हैं जो मैं चाहता हूं। ये तो बस मेरा मन है कि कॉलेज के जमाने से ही तुम्हें पाने की चाहत है वरना अब तुम रह ही किस लायक गई हो। शिखा स्त्रीत्व पर सीधे प्रहार से बहुत आहत हुई ....और उसने दृढ़ता से पुन: उसके साथ दौरे पर जाने से मना कर दिया। हर्ष ने अपना एक और पत्ता फेंकते हुए कहा- तुम्हारी जैसी नई रिक्रूट पी.ए. जैसे महत्वपूर्ण पद पर मेरी मेहरवानी से ही पोस्टेड है नहीं तो सिर्फ क्लर्क से ज्यादा कुछ नहीं होती तुम। और अभी भी जब चाहूं तुम्हें जूनियर क्लर्क बनाकर सेक्शन में किसी छोटे कार्यालय में भेज सकता हूं तब तुम्हारे बच्चों का ख्याल कौन रखेगा। वहां न उन्हें पढ़ाने के लिए स्कूल होगा न जीने के अच्छे साधन ही.....क्या करोगी तुम।
शिखा ने हर्ष के सामने की सीट से उठते हुए अंमित बार कहा कि उसे जो अच्छा लगता है करे ....पर वह उसके साथ नहीं जाएगी। कार्यालय में सिवाय चपरासी के अतिरिक्त्ा कोई और रह नहीं गया था। हर्ष भी उसके साथ उठा और उसके नजदीक आकर शिखा को अपनी बाहों में दबोच लिया और सवर्णों के चिरपरिचित डायलॉग दोहराते हुए बोला….साली चमरिया …..अभी तक तेरे कॉल्ोज के जमाने के नखरे गए नहीं हैं…….आज तो मैं अपनी वर्षों की इच्छा पूरी करके ही रहूंगा। अपने आप को बचाने की कोशिश करती शिखा के हाथ में टेबल पर रखा हुआ पेपर वेट हाथ में आ गया, फिर तो उसने आव देखा न ताब । पेपरवेट को हर्ष के सिर पर दे मारा .....अप्रत्याशित प्रहार से हर्ष बोखला गया और फर्श पर गिर पड़ा। शिखा शेरनी की भांति उस पर सवार हो गई और उसी पेपरवेट से हर्ष पर न जाने कितनी देर तक प्रहार करती रही। जब चेतना में आई तो …… हर्ष पूरी तरह से लहूलुहान मृत पड़ा हुआ था।
पुलिस द्वारा शिखा को गिरफ्तार कर लिया गया। अदालती कार्रवाई हुई । सवर्ण लॉबी ने शिखा के विरूद्ध गवाही दी और कई वर्ष लंबी अदालती प्रक्रिया के बाद शिखा को गैरसरकारी आचरण करने एवं एक अधिकारी का खून करने के एवज में उमकैद की सजा हुई।
अंतिम बार जब उसके बड़े हो चुके बच्चे सौम्या एवं शंतनु जब उससे मिलने आए तो उसने सौम्या से इतना ही कहा- बेटा...हम नीच कुल में पैदा हुए…..नीच जाति के कहलाए.......पर इसमें हमारा तो कोई दोष नहीं था। फिर भी आज 21वीं सदी में हम सम्मान से नहीं जी पा रहे हैं.......हमें अपने सम्मान, इज्जत के लिए भले ही मिटाना पड़े......कभी किसी के सामने घुटने मत टेकना। तभी सम्पूर्ण नारी जाति को किसी न किसी दिन सम्मानित स्थान मिल पाएगा और दलित स्त्रियां भी सर उठा कर जी सकेगी। फिर कोई नहीं कह पाएगा कि साली चमरियां तो होती हैं ऊंची जाति के मनोरंजन के लिए। ये थी अपनी पुत्री को एक दलित स्त्री की सीख …जो सम्पूर्ण नारी जाति के लिए भी उतनी ही लागू होती है जितनी किसी दलित स्त्री के लिए।
दूसरे दिन जेल से समाचार आया कि शिखा की अचानक ही मौत हो गई है। शिखा चली गई दुनियां से, अनगिनत शिखाओं को अपनी रक्षा का संदेश देकर।
- विजेंद्र प्रताप सिंह
सहायक प्रोफेसर (हिंदी)
न्यू कालोनी दमदपुरा
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