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हिंदी तथा ओडि़या के वचनः व्यतिरेकी विश्लेषण

19 सितम्बर 2015

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featured image विजेन्द्र प्रताप सिंह सहायक प्रोफेसर (हिंदी) राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय जलेसर, एटा, उत्तर प्रदेश चलभाष- 7500573035 ईमेल- vickysingh4675@gmail.com ................................................................................................................................ -ः संक्षिप्ति:- भाषा-शिक्षण के अंतर्गत भाषा के नियमीकरण, परिमार्जन, परिष्करण व मानकीकरण की दृष्टि से व्याकरण का महत्व है। अतः व्याकरण की शिक्षा भाषा-शिक्षण की एक महत्वपूर्ण कड़ी मानी जाती है। प्रत्येक भाषा की अपनी व्यवस्थाएं होती है जो अपनी विशिष्टताओं के कारण दूसरी भाषा से पृथक अस्तित्व प्रदान करती हैं। समाज में अभिव्यक्त विचार शब्दों के माध्यम से प्रकट किए जाते हैं तथा शब्द में ही मूल वस्तु की संकल्पना निहित रहती है। भाषा के अंतर्गत ध्वनि, पद, वाक्य, प्रोक्ति आदि द्वारा विविध भावों एवं संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। वाक्य में प्रयुक्त शब्द कभी ध्वनि के संयोग से बनते हैं तो कभी संधि, समास आदि की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए अन्य शब्दों के योग से बनते हैं। ऐसे में शब्दों में प्रयोग के अनुरूप विविध अर्थ समाहित होते रहते हैं। इसी प्रकार वाक्य भी संदर्भानुकूल अपने क्रम में परिवर्तन लाकर विविध अर्थों को व्यक्त करते हैं। ऐसे में भाषा-अर्जन करने वालों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे भाषा में इस अस्थिरता एवं असमानता के कारण गलत प्रयोग की ओर अग्रसर होते हैं। भाषा-शिक्षण एवं अध्ययन के इसी संदर्भ में व्याकरण की अवधारणा को प्रमुख माना गया है। और जो अध्ययन या विश्लेषण दो भिन्न भाषाओं का शिक्षण की दृष्टि से विश्लेषण कर अध्ययन को सुगम बनाता है वह व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है। प्रस्तुत आलेख में इसी दृष्टि से हिंदी तथा ओडि़या की नामिक व्याकरणिक कोटियों के अंतर्गत वचन व्यवस्था का व्यतिरेकी दृष्टि से विवेचन किया जा रहा है ताकि दोनों भाषा भाषियों में से कोई भी किसी भी भाषा को सीखना चाहे तो उसे वचन संबंधी प्रयोग में सहायता प्राप्त हो सके और वह प्रयोगत त्रुटियों से बच सके। प्रमुख शब्दः- बहुभाषिकता, वैश्वीकरण, भाषा अधिगम, व्यतिरेक, शैलीय व्यतिरेक, लेखीय व्यतिरेक, ध्वनिय व्यतिरेक, वाक्यीय व्यतिरेक, रूपीय व्यतिरेक, व्याकरणिक कोटियां, नामिक कोटियां, भाषा शिक्षण, स्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा, प्रयत्नलाघव । ......................................................................................................................................................................................... भाषा मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है, जो बाल्यावस्था से अंतिम क्षण तक साथ अपनी भूमिका का निर्वहन करता है। किसी भी प्रकार का विमर्श केवल भाषा में ही संभव है। इसलिए भाषा एक शक्ति का काम भी करती है जो न केवल मनुष्य के संसार को विस्तृत करती है अपितु साथ ही साथ उसके जानने, सोचने, समझने की सीमा को का निर्धारण भी करती है। भारत बहुभाषी देश है। बहुभाषिकता से तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें दैनिक व्यवहार में एक से अधिक भाषाओं से जुड़े शब्दों को व्यवहार में लाया जाये। सामान्य संप्रेषण की दृष्टि से यह आवश्यक नहीं है कि प्रयोगकर्ता जिन भाषाओं के शब्दों का मिला-जुला प्रयोग करता है वह उन सभी भाषाओं में दक्ष भी हो। एक व्यक्ति एक से अधिक भाषाओं से जुड़े शब्दों का मिला जुला प्रयोग करके अपनी बात को भली भाँति संप्रेषित कर देता है तो यह बहुभाषिकता की स्थिति है। वर्तमान समय वैश्वीकरण का समय है ऐसे समय के लोग रोजगार की तलाश में केवल अपने देश में ही एक से दूसरे स्थान पर नहीं जाते अपितु अब विदेशों में रोजगार की तलाश में जाते हैं और यह संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ ही जा रही है। ऐसे में स्थानीयता के भाव में कमी एवं वैश्विकता की स्थितियों में वृद्धि होती जा रही है। संस्कृति, खान-पान, रहन सहन के तौर तरीके सभी में एक से अधिक संस्कृतियों सम्मिश्रण हो रहा है, इसे ही हम वैश्विक संस्कृति कहते हैं और इसकी झलक स्पष्ट देखी जा सकती है ऐसे में भाषा कैसे अछूती रह सकती है। वैश्विीकरण के कारण अन्य भाषा शिक्षण का और व्यापक बना दिया है। भाषा एक अर्जित सामाजिक संपत्ति है जिसका अर्जन परंपरा द्वारा अनुकरण से किया जाता है। व्यक्ति समाज में ही रहकर आपस में विचारों के आदान-प्रदान ़द्वारा भाषा का प्रयोग कर अपनी सामाजिकता का निर्वाह करता है। समाज में व्यवहृत भाषा का मूल स्वरूप परिवर्तनशील एवं विकासशील है जिसमें निरंतर परिष्करण की प्रक्रिया गतिमान रहती है। यही परिष्करण की प्रक्रिया एक व्यवस्था को जन्म देती है तथा भाषा की अपनी व्यवस्था द्वारा ही उसकी आंतरिक संरचना भी निर्मित की जाती है। यही आंतरिकता उसे पूर्णता प्रदान करती है जिससे भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित होता है। संसार में लगभग तीन हजार भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से कुल बोलियाँ भाषा व्यवस्था की दृष्टि से आपस में कुछ अधिक निकट का संबंध रखती हैं। ऐसी अतिनिकट की भाषाओं और बोलियों के अपने-अपने कुछ भाषा समुदाय हैं। संसार के लगभग 12 भाषा समुदायों में सबसे बड़ा भाषा समुदाय भारत-यूरोपीय भाषा समुदाय है। इस समुदाय के 10 उप-समुदायों में एक उप-समुदाय भारतीय आर्य भाषा उपसमुदाय है। हिंदी तथा ओडि़या इसी परिवार की प्रमुख भाषाएं हैं। एक ही परिवार की भाषाएं होने के कारण दोनों भाषाओं में कई स्तरों पर समानताएं हैं परंतु प्रयोग क्षेत्र की दृष्टि से दोनों में बहुत सी विविधताएं भी हैं, जो भाषा शिक्षण के समय कठिनाईयां उत्पन्न करती हैं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से प्रस्तुत आलेख का सीधा संबंध भाषा विज्ञान की अनुप्रयुक्त शाखा व्यतिरेकी भाषा विज्ञान से है। दोनों भाषाओं में सांस्कृतिक, भौगोलिक आदि कई धरातलों पर व्यतिरेक हैं। इन्हीं व्यतिरेकों में से कुछ व्यतिरेक दोनों भाषाओं की वचन प्रयोग व्यवस्था में पाए जाते हैं। यह विवेचन दोनों भाषाओं के मानक रूपों पर आधारित है न कि क्षेत्रीय रूपों पर। हिंदी का उदभव शौरसेनी अपभ्रंश से तथा ओडि़या मागधी अपभ्रंश से उदभूत हुई है। डाॅ.ग्रियर्सन ने हिंदी को भीतरी उपशाखा तथा ओडि़या को पूर्वी समुदाय की भाषा के रूप में वर्गीकृत किया है। (जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सनःडाॅ.उदयनारायण तिवारी, 1967 पृष्ठ सं.235 एवं 236) डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी ने हिंदी को मध्य देशीय तथा ओडि़या को प्राच्य समूहों में रखा । (डाॅ.सुनीति कुमार चटर्जीः1926, पृष्ठ सं.6) डाॅ. हरदेव बाहरी ने भारत की सम्पूर्ण भाषाओं को हिंदी वर्ग तथा हिंदीत्तर वर्ग में विभाजित कर हिंदी के पश्चिमी हिंदी तथा ओडि़या को पूर्वी हिंदीत्तर वर्ग में रखा। व्याकरण भाषा का ऐसा शास्त्रीय रूप है जो भाषा-प्रयोग संबंधी विविध नियमों का निरूपण कर भाषा के शुद्ध रूप एवं प्रयोग के विधान का बोध कराता है। जब कोई भाषा पूर्ण रूप से विकसित होकर साहित्य सृजन का माध्यम बनती है तब उसके अंग-प्रत्यंगों का विश्लेषण कर कुछ नियमों का विधान प्रस्तुत किया जाता है। नियमों का ऐसा विधान ही सामान्यतः व्याकरण के रूप में जाना जाता है। व्याकरण भाषा का मूलाधार है वहीं भाषा के आधार पर ही व्याकरण का निर्माण होता है। व्याकरण भाषा के आधीन हो उसके अनुसार परिवर्तित होती रहती है। ‘व्याकरण’ शब्द की व्युत्पत्ति वि (उपसर्ग) $ आ (उपसर्ग) $ कृ (धातु) के संयोग से हुई है जिसका अर्थ है - टुकड़े-टुकड़े करना, विश्लेषित करना अथवा भली भांति समझाना। व्याकरण भाषा की संरचना को आत्मसात कर विविध नियमों द्वारा भाषा को भली-भांति समझाने का माध्यम बनती है। इसी कारण भाषाविदों ने व्याकरण को शास्त्र की संज्ञा दी तथा उसे भाषा-प्रयोग में स्थिरता लाने का साधन भी माना। वहीं दूसरी ओर विद्वानों का यह भी मानना है कि केवल व्याकरण का ज्ञान श्रेष्ठ वक्ता या लेखक की कसौटी नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि व्याकरण जानने वाला भाषा प्रयोगकर्ता शब्दो, पदों, वाक्यों की बनावट को समझकर भाषा के शुद्ध प्रयोग को सीख जाता है तथापि व्याकरण के व्यावहारिक ज्ञान के बिना व्याकरण भी सहायता नहीं कर सकता। कई श्रेष्ठ लेखक भाषा का शास्त्रीय या व्याकरणिक रूप नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर भाषा का अर्जन कर समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की। तात्पर्य यही है कि व्याकरण श्रेष्ठ वक्ता या लेखक नहीं बनाता बल्कि उसकी सहायता से शब्दों का शुद्ध प्रयोग जानकर विचारों को स्पष्ट रूप से प्रकट किया जा सकता है। व्याकरण का मुख्य उद्देश्य शब्दों का विश्लेषण कर अशुद्ध प्रयोगों को शुद्ध प्रयोग से पृथक करना है। इस प्रकार व्याकरण भाषा को विकृत होने से बचाकर उसके अर्जन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। व्याकरण के अनुसार लिंग, वचन, पुरुष और कारक को नामिक कोटियां माना जाता है। व्याकरणिक संवर्गों पर भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने अपने ग्रंथों में विस्तार से चर्चा की है। व्याकरणिक संवर्ग के लिए अंग्रेजी में ळतंउंजपबंस ब्ंजमहवतपमे शब्द प्रचलित है। अरस्तू ने अपने व्याकरण में ब्ंजमहवमे शब्द का प्रयोग किया है। ब्ंजमहवमे का अर्थ वर्ग या संवर्ग, जिसका संबंध व्याकरणिक तत्वों से संबंधित तत्वों से है। ‘कोटि‘ शब्द भी संवर्ग से संबंधित है। अतः व्याकरण के संवर्ग ही ‘व्याकरणिक कोटिया‘ँ हैं। (रामलाल वर्माः1986,पृष्ठ सं.3) भाषा में व्याकरणिक संवर्गों का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा में कुल सात व्याकरणिक कोटियों की सत्ता मानी जाती है, जिनमें से तीन का संबंध मूलरुप से संज्ञा से है और चार का क्रियाओं से।(सूरजभान सिंहः2006, पृष्ठ सं. 110) व्यतिरेकी विश्लेषण:- व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का संबंध समाज भाषाविज्ञान एवं मनोभाषाविज्ञान दोनों से है। भाषा का सीखना या सिखाया जाना मनोविज्ञान एवं समाजविज्ञान दोनों से संबंधित है। अतः व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का भाषा अधिगम एवं भाषा-शिक्षण में महत्व सर्वाधिक है। विद्वानों ने भी भाषा - शिक्षण से व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का संबंध एकमत से स्वीकार किया है। व्यतिरेकी विश्लेषण अन्य भाषा, द्वितीय भाषा तथा विदेशी भाषा-शिक्षण, तीनों के लिए उपयोगी है। सामान्य रूप में देखा जाए तो, कोई भी व्यक्ति जब नई भाषा सीखता है, तो वह उसे अपनी मातृभाषा या वह भाषा जिसे वह पहले से जानता है, के संदर्भ में रखकर सीखता है, इसलिए वह गलतियाँ करता है, इसका सबसे प्रमुख कारण यह कि प्रत्येक भाषा की अपनी संरचना होती है, विशेषताएँ होती है, जो उसे अन्य भाषाओं से एक अलग अस्तित्व प्रदान करती है। इसी कारण जब एक भाषा जानने वाला, किसी अन्य भाषा को सीखता है तो, चूंकि उसके मस्तिष्क पर पहले से सीखी हुई भाषा का प्रभाव व्याप्त रहता है, वह उसी के फलीभूत हो नई सीखी गई भाषा के प्रयोग में गलतियाँ करता है। स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा दोनों का व्यतिरेकी विश्लेषण से यदि ऐसे बिंदुओं का पता लगा लिया जाता है, कि दोनों भाषाओं में कहाँ - कहाँ असमानताएंँ हैं, तो सिखाते समय उनका अभ्यास ध्यानपूर्वक कराने से भाषा सीखने वाला व्यक्ति गलतियाँ नहीं करेगा और उससे गलतियाँ होंगी भी तो बहुत कम। ऐसा नहीं है कि अन्य भाषा शिक्षण ही यही एकमात्र और कारगर प्रणाली है पंरतु यह अन्य प्रणालियों से कम सफल प्रणाली नहीं है जो भाषा शिक्षण के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं। व्यतिरेकी विश्लेषण का पता 19वीं सदी में किए गए शोधों से भी पता चलता है। बोआज़ ने 1889 में ही नई भाषा की ध्वनियों के अवबोधन पर भाषा सीखनेवालों की कठिनाईयों एवं विविधता पर प्रकाश डाला था। उनका अनुमान था कि भाषा सीखने वाला व्यक्ति नई भाषा की घ्वनियों को अपनी मातृभाषा, देशीय भाषा या उस भाषा के संदर्भ में ग्रहण करता है, जिसका उसे पहले से ज्ञान होता है। बेाआज़ के दस वर्ष बाद सन् 1898 में स्वीट ने अपनी पुस्तक ’द प्रैक्टीकल स्टडी आॅफ लैंग्वेज’़ (ज्ीम च्तंबजपबंस ैजनकल व िस्ंदहनंहम) में इस बात की ओर संकेत किया है कि दूसरी भाषा, पहली भाषा के संदर्भ में सीखी जाती है। 19 वीं शदी में प्राग संप्रदाय के अधिष्ठाता मैथेसियस (टण्डंजीमतेपने) का ध्यान व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की ओर गया। इस संबंध में सर्वप्रथम उन्होंने 1930 के आस - पास यह विचार व्यक्त किया कि किसी भाषा की व्यवस्था को वास्तव में गहराई से जानने के लिए, अन्य भाषाओं के साथ उसकी तुलना कर समानताओं एवं असमानताओं का ज्ञान प्राप्त करना उपयोगी सिद्ध होता है। इस प्रकार उन्होंने अपने विचारों के माध्यम से वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के लिए तुलनात्मक एवं व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की आवश्यकता को और बल उस समय मिला और शाब्दिक रूप से अनुपस्थित होने पर भी पाठ्य - सामग्री बनाने वाले विद्वानों का ध्यान इस ओर गया, जब सन् 1940 के आस - पास अमेरिका में मिशिगन विश्वविद्यालयों के ’’इंग्लिश लैग्वेज इंस्टीट्यूट’’ मंे अन्य भाषा - भाषियों को अँग्रेजी पढ़ाने के लिए पाठ्य - सामग्री बनाना प्रारंभ किया गया। इस संबंध में विद्वानों के अलग - अलग मत हैं। डाॅ. विजय राघव रेड्डी के अनुसार ’’संरचनात्मक भाषाविज्ञान एवं साँचा पर अभ्यास की जिन दिनों चर्चा चल रही थी, उन दिनों यह आशा सी बंध गयी थी कि, अन्य भाषा शिक्षण की प्रक्रिया में ये बड़े सहायक होंगे। लेकिन इनसे भाषा - शिक्षकों को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंँचा। इस मोहभंग की स्थिति में सहायक के रूप में व्यतिरेकी भाषाविज्ञान प्रकट हुआ।’’ (डाॅ. विजय राघव रेड्डीः1986, पृष्ठ सं.15) वे अपनी इसी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं कि ’’ द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौज के लोगों को उन देशों की भाशाएँँ, जहाँ वे लड़ने जा रहे थे, सिखानेे के उद्देश्य से भाषा विज्ञानियों से कहा गया, कि वे वहाँ की भाषाओं को कम से कम सीखने सिखाने के लिए शिक्षण - सामग्री तैयार कर दें। इसी अवधि में अमेरिका में कई जातियों के और कई भाषाओं को बोलने वाले लोग आकर बसने लगे थे। उन सब लोगों को अँग्रेजी सीखने और सिखाने की माँग आ गयी थी। इन दोनों माँगों की पूर्ति में भाषा विज्ञानियों को कई भिन्न - भिन्न भाषाओं के अध्ययन और विश्लेषण के साथ - साथ उनकी शिक्षण - सामग्री का निर्माण करना पड़ा। इसके परिणाम स्वरूप स्कूलों के पाठ्यक्रमों की शिक्षण - सामग्री को भी नए सिरे से निर्मित करने का विचार उठा।’’(डाॅ. विजय राघव रेड्डीः1986, पृष्ठ सं.16) डाॅ. भोलानाथ तिवारी के मतानुसार ’’18वी-19वीं सदी के ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान में प्रत्यक्षतः या परोक्षतः व्यतिरेकी भाषाविज्ञान भी हमें पनपता दीखता है। ’’(भोलानाथ तिवारी एवं षषि बाला: व्यतिरेकी भाषा विज्ञान: 1983: पृष्ठ सं. 13) फ्ऱाइज ने सन्् 1945 में ’टीचिंग एंड लर्निंग इंग्लिश एज ए फाॅरिन लैंग्वज’ नामक पुस्तिक प्रकाशित की, जिसका उद्देश्य था, उस भाषा वैज्ञानिक दृष्टि को स्पष्ट करना, जिसके अनुसार भाषा - शिक्षण से संबंधित सामग्री बनाई गई थी तथा निर्मित सामग्री के आधार पर शिक्षण पद्धति एवं उसके विकास की ओर दिशा निदेश करना। वे अपनी इसी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं, कि ’’ऐसा वयस्क जो अपनी भाषा जानता है, वह कोई दूसरी भाषा अल्प समय में ही सीख सकता है, यदि उसमें इस बात की लगन हो एवं उसे अच्छी सामग्री के आधार पर अच्छे शिक्षक द्वारा पढ़ाया जाए।’’( फ्राइज: टीचिंग एंड लर्निंग इंग्लिश एज ए फाॅरिन लैंग्वज: 1945: पृश्ठ सं. 29) इन दोनों विद्वानों सन् 1949 में फ्रीज एवं पाइक द्वारा, व्यतिरेकी विश्लेषण के मूलमंत्र के रूप में बताया कि दो भाषाओं की व्यवस्थाओं का सानिध्य एक नई अधिव्यवस्था को जन्म देता है, जिसमें दोनों भाषाओं - स्रोत एवं लक्ष्य की सम्मिलित व्यवस्थाओं को देखा जा सकता है। बानराइख ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’लैंग्विजिज इन कंटैक्ट’ ( स्ंदहनंहम पद ब्वदजंबज ), में फ्रीज एवं पाइक की बात का समर्थन करते हुए व्यतिरेकी अध्ययन की ओर संकेत किया है। इस प्रकार हम यह देखते हैं, कि व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की दिशा में चिंतन तो काफी लंबे समय से चलता रहा, परंतु वास्तब में इस दिशा में पहला कोई ठोस काम सामने आता है, तो वह है, ’लिंग्विस्टिकस अक्राॅस द कल्चर’ (स्पदहनपेजपबे ।बतवेे जीम ब्नसजनतम), जिसकी रचना रावर्ट लाड़ो ने सन् 1957 में की थी। लाड़ो ने अपनी इस पुस्तक में व्यतिरेकी भाषाविज्ञान को सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक, दोनों ही दृष्टियों से घरातलीय रूप प्रदान किया। इस ग्रंथ में पहली बार ध्वनि-व्यवस्था, व्याकरणिक संरचना, शब्द भंडार, तथा लेखन व्यवस्था आदि की दृष्टि से व्यतिरेकी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसलिए भोलानाथ प्रभृति विद्वानों ने लाड़ो की इस पुस्तक को व्यतिरेकी भाषाविज्ञान का बाइबल की संज्ञा दी है। रोबर्ट लाड़ो ने अपनी दूसरी पुस्तक ’’लैंग्वेज टेस्टिंग: द कंस्ट्रक्शन एवं यूज आॅफ फाॅरेन लैंग्वेज टेस्ट (स्ंदहनंहम ज्मेजपदह रूज्ीम ब्वदेजतनबजपवद ंदक नेम व िथ्वतमपहद स्ंदहनंहम ज्मेजद्ध सन् 1961 में प्रकाशित की। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि लाड़ो ही वे पहले विद्वान थे, जिन्होंने व्यतिरेकी अध्ययन को भाषाविज्ञान की एक शाखा के रूप में फलने-फूलने के लिए सर्वप्रथम खाध प्रदान किया। सी. ए. फ़र्गुसन् के संपादन में वाशिंगटन के अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के कंेद्र ;ब्मदजमत वित ।चचसपमक स्पदहनपेजपबे व िजीम डवकमतद स्ंदहनंहम ।ेेवबपंजपवद व ि।उमतपबंद्ध की ओर से सन् 1959 में व्यतिरेकी संरचना माला ( ब्वदजतंेजपअम ैजतनबजनतम ैमतपमे ) का प्रारंभ किया गया। जिसका उद्देश्य, अँग्रेज़ी - फ्रांसीसी, अँग्रेज़ी-जर्मन, अँग्रेज़ी - इटैलियन, अँग्रेज़ी - रूसी , तथा अँग्रेज़ी - स्पैनिश आदि भाषाआंे में समानताओं एवं असमानताओं को प्रस्तुत करना था। इसी संस्था द्वारा सन् 1962 से 1966 तक अँग्रेज़ी - जर्मन ध्वनियों, अँग्रेज़ी - जर्मन व्याकरणिक संरचना, अँग्रेज़ी - स्पैनिश व्याकरणिक संरचना, अँग्रेज़ी - इटैलियन घ्वनियों , अँग्रेज़ी - इटैलियन व्याकरणिक संरचना, पर पुस्तकें प्रकाषित की गई। इस दिशा में काम, भारत में भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है और हो रहा है। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जहाँं भाषाविज्ञान विभाग की व्यवस्था है, तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, आगरा विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदरावाद एवं भाषा संस्थान हैदराबाद, हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद,मद्रास विष्वविद्यालय, बैंगलूर विष्वविद्यालय, केरल विश्वविद्यालय, तिरूवनंतपुरम, विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन, नागपुर, सी. आई. आई. एल., मैसूर, रांची विश्वविद्यालय, कोलकाता विश्वविद्यालय, कोलकाता एवं अन्य विश्वविद्यालयों में भी कार्य हुआ है और हो रहा है। भारत सरकार की ओर से भाषा - शिक्षण सामग्री के निर्माण पर विशेष रूप से ध्यान कंेद्रित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की स्थापना भी गई है, जिसका एक कंेद्र लखनऊ में भी है। दिल्ली विश्वविद्यालय में डाॅ. भोलानाथ तिवारी के मार्गदर्शन में बहुत से शेाध हुए है, जिनमंे हिंदी के साथ, सिंधी, गुजराती, मराठी, बंगला, हरियाणी, सिंहली आदि भाषाओं पर व्याकरणिक तुलना, कारकीय रूपों का अध्ययन, क्रिया रूपों, घ्वनियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए व्यतिरेकी विश्लेषण पर बल दिया गया है। व्यतिरेकी भाषाविज्ञान की दिशा में केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा द्वारा भी पर्याप्त मात्रा में कार्य हुआ है, वहाँ से प्रकाशित पत्रिका ’’गवेषणा’’ इस दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पत्रिका मानी जाती है। इस संस्थान से हिंदी और कन्नड़, हिंदी और तमिल, हिंदी और तेलुगु, हिंदी और गुजराती, हिंदी और डोगरी, हिंदी और पंजाबी, हिंदी और बंग्ला, हिंदी और मणिपुरी, हिंदी और मराठी, हिंदी और मलयालयम, हिंदी और रूसी, हिंदी और अँग्रेज़ी, हिंदी और नेपाली आदि भाषाओं का एक दूसरे से विभिन्न पक्षांें अर्थात् व्याकरणिक संरचना, पद रचना, वाक्य रचना, ध्वनि विश्लेषण, क्रिया, शब्दाबली, कहावतों, मुहावरों, अव्यय, परसर्गेा, सर्वनामों, कारकों, संज्ञाओं, लिंग- व्यवस्था, आदि के दृष्टि में रखते हुए तुलनात्मक अध्ययन के साथ-साथ व्यतिरेकी विश्लेषण भी किया गया है। व्यतिरेकी अध्ययन की दृष्टि से सबसे ज्यादा कार्य शायद, अन्य भाषाओं के साथ अँग्रेज़ी भाषा पर ही हुआ है, और उसके बाद हिंदी का नंबर आता है। चूंकि भारत बहुभाषी देश है, और हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा दोनों है, इस कारण, भारत में इस दिशा में अच्छा कार्य हुआ है, और हो रहा है तथा भविश्य के लिए प्रबल संभावनाएँ भी हैं। व्यतिरेकी अध्ययन की कई शाखाएं एवं प्रशाखाएं हैं, जैसे - सैद्धांतिक व्यतिरेकी भाषाविज्ञान तथा अनुप्रयुक्त व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, ध्वनिय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, शब्दीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, रूपीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान,वाक्यीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, अर्थीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, प्रोक्तिय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, शैलीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, लेखीय व्यतिरेकी भाषा विज्ञान इत्यादि। प्रस्तुत आलेख में हिंदी तथा ओडि़या की वचन प्रणाली को अध्ययन का आधार बनाया गया ताकि भाषा प्रशिक्षु हिंदी से ओडि़या या ओडि़या से हिंदी सीखते समय लाभान्वित हो सकें। हिंदी तथा ओडि़या की वचन व्यवस्था में व्यतिरेक:- हिंदी तथा ओडि़या दोनों भाषाओं में संज्ञा तथा क्रिया से संबंधित व्याकरिणक कोटियों का विधान है। 1. संज्ञा से संबंधित कोटियां हैं -लिंग, वचन, पुरुष तथा कारक 2. क्रिया से संबंधित कोटियां हैं- वाच्य, पक्ष,वृत्ति तथा काल वचन एक व्याकरणिक संवर्ग है। संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के जिस रूप से संख्या का बोध होता है, उसे ‘वचन‘ कहते हैं। भाषा में वचन का अभिप्राय है भाषा में व्यवह्मत वस्तु या पदार्थ द्योतक शब्द की संख्या का बोध। यहाँ हिंदी के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं- गणनीय अगणनीय एकल अनेक एकल अनेक सूर्य,चन्द्र, मनुष्य, कुत्ता पानी, दूध चीनी, गेहूँ इस प्रकार गणना के आधार पर वस्तु या पदार्थ के द्योतक शब्दों में वचन का प्रादुर्भाव हुआ होगा। किन्तु इतना निश्चित है कि वस्तुगत संख्या की अपेक्षा वचन की सीमा अत्यधिक संकुचित है, क्योंकि विश्व के अनन्त पदार्थों को भाषागत वचन अपने दो या तिन रुपों में समाहित कर लेता है। इसमें बहुवचन रूप की क्षमता असीमित है, जो दो से लेकर अनन्त पदार्थों को अपनी सीमा में बांध सकता है। भारतीय आर्यभाषा का इतिहास बड़ा मनोरंजक है। यद्यपि संस्कृत में द्वि-वचन था, पर उसका प्रयोग अधिक नहीं था। संभवतः इसीलिए पालि में द्वि-वचन का लोप होगया और मध्यकालीन भाषा में द्वि-वचन का अस्तित्व केवल अपवादों में सिमटकर रह गया। (सुकुमार सेनः1969,पृष्ठ सं.11) जैसे- संस्कृत एकवचन द्वि-वचन बहुवचन अश्व अश्वौ अश्वाः नदी नद्यौ नद्यः कमलम् कमलै कमलानि इस प्रकार संस्कृत में तीन वचन का प्रचलन था। मध्यकालीन आर्यभाषा में दो ही वचन थे-एकवचन और बहुवचन। आधुनिक आर्यभाषाओं में यही प्रवृत्ति दिखती है। मानक हिंदी एवं ओडि़या में भी दो वचन व्यवस्था ही प्रचलित है। वचन एवं संज्ञाओं का वर्गीकरणः- संज्ञाओं का वर्गीकरण गणना तथा प्रयत्न की दृष्टि से किया जा सकता है- 1. गणना की दृष्टि से:- गणनीयता की दृष्टि से संज्ञाओं को एकवचन एवं बहुवचन के रूप में दो भागो में विभाजित किया जाता है। व्यक्ति या पदार्थ एक है तो एकवचन तथा दो या अधिक है तो बहुवचन होता है। किंतु यह संभव ही नहीं हे कि सभी संज्ञाओं की गणना की जा सके। कुछ संज्ञाओं में वचन भाव गौण होता है और वे अगणनीय होती हैं। इसी आधार पर संज्ञाओं को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है- क. समूहवाचकः- कुछ संज्ञाएँ समूहवाचक होती हैं। जैसे-सभा, भीड़, परिवार आदि। अभिव्यंजना की दृष्टि से ऐसे नामिक शब्द बहुत्व सूचक हैं। किन्तु समूह की एकता अथवा अनेकता की दृष्टि से गिना जा सकता है। ख. पिंडवाचकः- कुछ नाम पिंडवाचक (उंेे) होते हैं, जिनका वचन की दृष्टि से विभेद करना संभव नहीं है। जैसे- व्यवाचक - सोना, चाँदी, पत्थर इत्यादि। द्रववाचक - पानी, तेल, दूध,घी आदि। ख. अमूर्तवाचकः- अमूर्तवाचक संज्ञाओं में वचन भाव गौण होता है। जैसे- भाववाचक संज्ञाएँ - भय, बल, साहस, शौर्य इत्यादि। क्रियावाचक संज्ञाएँ - आना, जाना, पीना, खाना,सोना इत्यादि। पिण्डवाचक संज्ञाओं की तरह भाववाचक संज्ञाओं का भी स्वल्पता या बहुलता की अभिव्यक्ति परिणामवाचक शब्दों द्वारा की जा सकती है। लेकिन गणनीयता की दृष्टि से इनके वचन का द्योतन नहीं होता। इस प्रकार वचन की दृष्टि से संज्ञाओं को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है- संज्ञा.- अ. गणनीय - एकवचन, बहुवचन आ. अगणनीय - पिण्डवाचक, भाववाचक 2. प्रयत्न की दृष्टि सेः- मानक ओडि़या में वचन व्यवस्था व्याकरण के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि भाषेतर भावनाओं से जुड़ी हैं।(दुर्योधन महाराणाःहिंदी ओडि़या व्याकरण कोटियां,पृष्ठ सं.14) दोनों भाषाओं में संज्ञाओं का वर्गीकरण प्राणीत्व, मूर्तता आदि भौतिक गुणों तथा आदर, अनादर जैसे सामाजिक मूल्यों के आधार पर किया जा सकता है। 1. प्राणीवाचक 2. अप्राणीवाचक प्राणीवाचक संज्ञाः- प्राणीवाचक संज्ञाओं को मानवत्व के आधार पर दो वर्गों में रखा जाता है- 1. मानववाचक 2. मानवेतर मानववाचकः- मानववाचक संज्ञाओं को कई वर्गों में बाँटा जा सकता है - हिंदी ओडि़आ सामान्य मानववाचक पुत्री, पुत्र झिअ,पूअ व्यक्तिवाचक सारथी सारथी उपाधिवाचक शर्मा, पंडितजी, शूल जी शर्मा, पुजारी, शूळ महाशय मित्रवाचक सखा, सखी, मित्र सखा, सखी, सांग अप्राणीवाचकः- अप्राणीवाचक संज्ञाओं के अन्तर्गत ऐसी संज्ञाएँ आती हैं, जिनकी गणना एकल या सामूहिक रूप से की जा सकती है। इसी वर्ग के अन्तर्गत वे संज्ञाएँ भी आ सकती हैं, जो एक निश्चित परिमाण सूचक हैं और जिन्हें परिमाण की दृष्टि से गिना जा सकता है।यथा- हिंदी ओडि़आ सामान्य परिमाणवाचक किलो किले समयवाचक दिन दिने म्ुाद्रावाचक पैसा पोइसा परिमाणवाचक संज्ञाओं के अन्तर्गत उन आधार या पात्रवाचक संज्ञाओं को रखा जा सकता है, जिसमें द्रव या द्रव्य पदार्थों को रखा जा सकता है और उन पात्र या आधार के अनुसार उन्हें भी गिना जा सकता है। जैसे- लात, घूंसा, थप्पड़, गाली आदि भी गणनीय होते हैं। वचन का द्योतनः- आधुनिक मानक हिंदी एवं मानक ओडि़आ में दो ही वचन मिलते हैं-एकवचन और बहुवचन। इन दोनों भाषाओं में सामान्यतः वचन सूचक प्रत्यय के प्रयोग बिना ही संज्ञाओं का प्रयोग एकवचन की सूचना देते हैं। बहुवचन सूचक प्रत्ययों द्वारा एकवचन सूचक प्रातिपादिकों का रूपांतरण किया जाता है। कभी-कभी मानक ओडि़आ और पश्चिमी ओडि़आ में कुछ एकक सूचक प्रत्ययों, शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है, जो एकवचन संज्ञा प्रातिपादिक के साथ प्रयुक्त होता है। बहुवचन सूचक प्रत्ययों के अतिरिक्त समूहवाचक शब्दों, संख्या एवं परिणामवाचक शब्दों तथा प्रातिपादिक एवं विशेषण की द्विरुक्ति द्वारा भी बहुवचन की सूचना भी दी जाती है। (दुर्योधन महाराणाः हिंदी तथा ओडि़आ की व्याकरणिक कोटियां, पृष्ठ सं.15) एकवचन का द्योतनः- व्यक्ति या पदार्थ एक है तो उसे एकवचन कहते हैं। मानक ओडि़आ में प्रत्यय रहित संज्ञा से एकवचन की सूचना प्राप्त होती है। कभी-कभी ‘पर‘ प्रत्यय का प्रयोग भी एकवचन की सूचना हेतु किया जाता है। डाॅ. दुर्योधन महारणा ने रूप, अर्थ एवं प्रयोग के आधार पर एकवचन सूचक प्रत्ययों को तीन वर्गों में विभाजित किया है।10 1. एकक चिन्ह 2. एकक परिणाम सूचक 3. पूर्वाश्रयी निर्देशक एकक चिन्हः- मानक ओड़िआ में /-ए/ का प्रयोग सामान्यतः अप्राणीवाचक एकवचन संज्ञाओं के लिए किया जाता है। मूल संज्ञा के पूर्व /-ए/ का प्रयोग होता है, यथा- मानक हिंदी - मानक ओडि़आ एक घंटा - घंटा-घंटा-एझघंटे एक दिन - दिन-दिन-एझदिने एक महीना - मास-मास-एझमासे मानक ओडि़आ के आकारांत एवं अकारांत प्रातिपादिकों का अंत्य स्वर लोप हो जाता है। हिंदी में में मूल संज्ञा के पूर्व /एक/ प्रयुक्त होता है, यथा - हिंदी - मैं एक घंटे बाद खाउंगा। ओडि़आ - घंटे परे खाइबि। मानक ओडि़आ में /-ए/ के समान /-क/ का प्रयोग एकक सूचना के लिए किया जाता है, यथा- मानक हिंदी - मानक ओडि़आ एक किलो - किलो-किलोऊक-किलोकझकिले मानक ओडि़आ में /-ए/का प्रयोग संज्ञा के साथ होने से एक निश्चित परिमाण का सूचना देता है-संज्ञा अपरिमाण। किन्तु हिंदी में इसका परिमाण वाचक के रूप में होता है। एकक परिमाण सूचक शब्द प्रत्ययः- ओडि़आ में एकवचन संज्ञा प्रातिपादिकों के साथ /जण, खंडे, गोटे/ आदि का प्रयोग किया जाता है वहीं हिंदी में /एक/का प्रयोग होता है। यथा- हिंदी - एक छात्र जाए। बेटी एक बिस्कुट मांग रही है। ओडि़आ - जणे छात्र जाउ। छात्र गोटे जाउ। झिअ खंडे बिस्कुम मागुछि। ओडि़आ में /गुटे/तथा हिंदी में /एक/आदि शब्द प्रत्ययों का प्रयोग होता है। यथा- हिंदी - मुझे एक कलम चाहिए। ओडि़आ - मोत्ते गोटे कलम दरकार। मोर गोटिए कलम दरकार। मोर गोटाक कलम दरकार। मोर गोटिक कलम दरकार। ओडि़आ में मानवेतर प्राणिवाचक, अप्राणीवाचक एककसूचक प्रातिपादिकों के साथ गोटे, गोटिए, गोटाक, गोटिक शब्दों का प्रयोग पाया जाता है। बहुवचन का द्योतनः- हिंदी तथा ओडि़आ दोनों में ही में संज्ञा प्रातिपादिकों के साथ /पर/प्रत्यय के योग से एकवचन संज्ञाएं बहुवचन में परिणत की जाती हैं। संज्ञा शब्द की वाचकता के अनुसार बहुवचन सूचक प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। मानक ओडि़आ में बहुवचन सूचक प्रत्ययों का प्रयोग प्रायः अर्थ पर आधारित रहता है। अर्थात् संज्ञा शब्द की वाचकता जैसे-प्राणी, अप्राणी में मानव और मानवेतर प्राणी आदि के साथ-साथ प्राणी या वस्तु के प्रति वक्ता के मनोभाव के अनुसार इनका प्रयोग किया जाता है। कुछ प्रत्ययों को ‘शब्द प्रत्यय‘ कहा जाता है। ये प्रत्यय चल प्रकृति के होते हैं, जो प्रातिपादिक के पूर्व एवं पश्चात् दोनों रूपों में प्रयोग में लाए जा सकते हैं। बहुवचन सूचक प्रत्ययों का प्रयोग:- /माने/ ओडि़आ का प्रमुख बहुवचन सूचक प्रत्यय हैं। किन्तु इनके अलावा और भी बहुवचन सूचक प्रत्ययों का प्रयोग होता है। प्रयोगगत भिन्नता के आधार पर महारणा ने मानक ओडि़आ के बहुवचन सूचक प्रत्ययों को चार भागों में वर्गीकृत किया है।(दुर्योधन महाराणाः हिंदी तथा ओडि़आ की व्याकरणिक कोटियां, पृष्ठ सं.50) प्रत्यय रहित प्रयोग से बहुवचनः- कभी-कभी प्राणीवाचक प्रातिपादिकों से किसी भी प्रकार के प्रत्यय के प्रयोग के भी बहुवचन की सूचना मिलती है, यथा- हिंदी - ये लोग खाना नहीं खाते हैं। ओडि़आ - एई लोक खाइबा खाउ नाहान्ति। प्रत्यय सहित बहुवचन:- ओडि़आ में बहुवचन के अर्थ में मानववाचक प्रातिपादिकों के साथ /ए, माने/का प्रयोग किया जाता है। इसकी यौगिक प्रक्रिया में आकारांत प्रातिपादिक के अंत्य /अ/ और /आ/का लोप हो जाता है। परंतु हिंदी में ऐसा प्रयोग किया जाता है। इसकी जगह /लोग,गण/का प्रयोग होता है।,यथा- हिंदी - ओडि़आ लोग, गण - लोक-एझलोके, माने ये लोग, वे लोग, तारागण, ये लोके, तारामाने बच्चे लोग पिलामाने /ङक/, /से/ प्रत्यय:- /ङक/का प्रयोग ओडि़आ में जिस अर्थ में किया जाता है उसी के समकक्ष हिंदी में /से/ प्रत्तय का प्रयोग किया जाता है। इससे प्राणीवाचक प्रातिपादिकों के सविभक्तिक बहुवचन रुप बनते हैं। हिंदी - ओडि़आ गुरू से - गुरूङकठारु ओडि़आ में /माने/बहुप्रचलित बहुवचन प्रत्यय है। इसके समतुल्य हिंदी में /ए/ प्रत्यके धातु में जुड़ता है। परंतु यहां व्यतिकरेक परिलक्षित होता है क्योंकि हिंदी में बहुत से प्राणीवाचक शब्दों में प्रत्यय शामिल ही होता है तथा ये अलग-अलग शब्दों के साथ पृथक होता है यथा - हिंदी - ओडि़आ लड़केे, लड़कियां, वे लोग, गायें, पेड़ों - पिलामाने, झिअमाने, सेमाने, गाइमाने, गछोमाने ओडि़या में शब्दों के साथ अविभक्तिक स्थिति में बहुवचन सूचक प्रत्यय /ए/एवं /ङक/,/मानङक/ प्रत्यय का प्रयोग कर सामान्यतः प्राणीवाचक विशेषतः मानववाचक प्रातिपादिकों के साथ प्रयोग किया जाता है। /गुड़ा/प्रत्ययः- ओडि़या में /गुड़ा/बहुवचन सूचक शब्द प्रत्यय का मूल रुप है। यह अनिर्दिष्टता सूचक /ए/, निर्दिष्टता सूचक /क/एवं शिष्टता सूचक /इ/ के साथ जुड़कर प्रयुक्त होता है- हिंदी - ओडि़आ गायझगायंे - गाइ गुड़े, गाइ गुड़ाए, गाइ गुड़ाक, गाइ गुडि़ए समग्रतावाचक शब्दः- हिंदी के समतुल्य ओडि़आ में निम्नलिखित शब्द समग्रतासूचक माने जाते हंै- हिंदी - ओडि़आ माहभर, सालभर, गांवभर - मसजाक वर्षजाक, ग्रामजाक सामान्यतः ओडि़आ में गणनीय एवं सभी अगणनीय प्रातिपादिकों के साथ /जाक/का प्रयोग हो सकता है। हिंदी में /भर/का प्रयोग होता है। इसके अलावा ओडि़आ में तक /मन्दा/का प्रयोग भी पाया जाता है। समूहवाचक शब्दः- ओडि़आ तथा हिंदी में मानवेतर प्राणीवाचक प्रातिपादिकों के साथ निम्नलिखित समूहवाचक शब्द जोड़ा जाता है- हिंदी - ओडि़आ भेड़ों का झुंड, पंक्षियों का समूह, चीटियों की कताऱ - भेडि़ गोठ, पाखि पल, पिंपुडि मंदा परिमाणवाचक शब्दः- दोनों ही भाषाओं में बहुवचन सूचक प्रत्ययों से बहुलता की सूचना तो मिलती है, किन्तु कोई निश्चित संख्या या परिमाण की सूचना का द्योतन नहीं होता है। अतः प्रातिपादिकों के पूर्व एक से अधिक संख्या अथवा परिमाणवाचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिससे उस निश्चित संख्या या परिमाण के अनुसार बहुत्व की सूचना प्राप्त हो सके। हिंदी - ओडि़आ दो बच्चे, पचास आदमी, सभी घर,जितने मुंह - दुई पिला, पचास जण मनिस, सबु घर, जेते मुंह द्विरिक्तिः- दोनों ही भाषाओं में गणनीय वर्ग के प्रातिपादिक या विशेषण की द्विरुक्ति द्वारा बहुवचन का द्योतन कराया जाता है- हिंदी - ओडि़आ बड़ी-बड़ी बातें, बड़े-बड़े पेड़ छोटी-छोटी चीजें सुंदर-संुदर फूल - बड़-बड़ कथा बड़-बड़ गछ छोट-छोट वस्तु सुंदर-संुदर फूल इस प्रकार हिंदी तथा ओडि़या भाषाओं में वचन व्यवस्था की दृष्टि से सुछ समानता है तो कुछ व्यतिरेक भी हैं। हिंदी/ए,एँ,आ,ओं/ तथा ओडि़आ में /मान,माने,गड़ा/आदि प्रमुख बहुवचन सूचक प्रत्यय हैं। लेखक का अनुभव रहा है कि हिंदी भाषी व्यक्ति या ओडि़या भाषी जब इन दोनों भाषाओं में से किसी एक को स्रोत तथा दूसरी को लक्ष्य भाषा बना कर सीखते हैं तो प्रयोगत त्रुटियां होती हैं। इसका प्रमुख कारण है स्रोत भाषा का प्रभाव और व्यतिरेकी पक्षों की जानकारी का अभाव। व्यतिरेकी विश्लेषण बहुत हद तक त्रुटियों को कम करने में सहायक होता है। संदर्भिका:- क्र.सं. संदर्भ 1 जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सनःभारत का भाषा सर्वेक्षण-अनुवाद खंड-1, अनुवादक-डाॅ.उदयनारायण तिवारी,(1967) प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग,उत्तर प्रदेश लखनऊ 2 डाॅ.सुनीति कुमार चटर्जीःद ओरिजिन एंड डेवलपमेंट आॅफ बंगाली लैंग्वेज, (1926),यूनिवर्सिटी प्रेस, कलकत्ता 3 रामलाल वर्माःहिंदी असमियाःव्याकरणिक कोटियां, (1968) केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा 4 सूरजभान सिंहःहिंदी-अंग्रेजी व्याकरण,(2006) प्रभात प्रकाशन,दिल्ली 5 सुकुमार सेनःतुलनात्मक पालि प्राकृत व्याकरण, (1969) लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद 6 डाॅ. विजय राघव रेड्डीः व्यतिरेकी भाषा विज्ञान, 1986, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा 7 भोलानाथ तिवारी एवं शशि बाला: व्यतिरेकी भाषा विज्ञान: 1983 8 फ्राइज: टीचिंग एंड लर्निंग इंग्लिश एज ए फाॅरिन लैंग्वज: 1945 9 दुर्योधन महाराणाः हिंदी तथा ओडि़आ की व्याकरणिक कोटियां,(1984),हिंदी संस्थान आगरा
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