देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है। आज छात्रों को College और Collage या Principal और Principle में फर्क नहीं पता। अंग्रेजी को तो छोड़ें हिंदी तक में B. Ed. करने वाले भावी शिक्षक ढंग से एक प्रार्थना-पत्र तक नहीं लिख पाते।
शिक्षा व्यवस्था को लेकर हमारी सरकार काफी अव्यवस्थित रहती है। सरकारी कारिंदे सर से एड़ी का जोर लगा देते हैं कागजों में आंकड़ों को सुधारने में। पर यदि इसकी आधी ताकत भी सही ढंग से शिक्षा पद्यति को सुधारने में लगा दी जाए तो देश कागजों में नहीं, सही में साक्षर होना शुरू हो जाए। अभी तो अनपढ़ लोगों को सिर्फ अपना नाम लिखना सिखा उन्हें साक्षर घोषित कर दिया जाता है. देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है।
पर इससे सरकारी व्यवस्था को किसी से लेना-देना नहीं है वहाँ तो सिर्फ आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर अपनी पीठ थपथपाने का खेल होता है। बड़े शहरों और कुछ राज्यों को छोड़ दें तो बाक़ी जगह की एक भयानक तस्वीर सामने आती है। साक्षरता के आंकड़ों को बढ़ाने के लिए स्कूलों में आठवीं तक की पढ़ाई में से परीक्षा का प्रावधान ही नही होने से स्कूल-कालेजों में पढ़ाई का स्तर इतना गिर गया है कि स्नातक की पढ़ाई करने वाले छात्रों को College और Collage या Principal और Principle तक का फर्क नहीं पता।
अंग्रेजी को तो छोड़ें हिंदी तक में B. Ed. करने वाले भावी शिक्षक ढंग से एक प्रार्थना-पत्र तक नहीं लिख पाते। यही लोग जब येन-केन-प्रकारेण स्कूलों-कालेजों में नौकरी जुगाड़ कर पैसे की खातिर पढ़ाना शुरू करेंगे तो अंदाजा लग सकता है कि स्तर कहाँ पहुंचेगा।
संलग्न फ़ोटो में एक B. Comके छात्र का प्रार्थना पत्र देख आश्चर्य होना स्वाभाविक है. यह तो एक बानगी है। सोचने की तथा मंथन की बात यह है कि दोष किसका है , छात्र का, अध्यापक का या शिक्षा-प्रणाली का ?
अभी कुछ दिनों पहले अखबारों में खबर छपी थी कि पांचवीं के छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तक नहीं पढ़ पाते। तो स्कूलों में कैसी पढ़ाई होती है? क्या पढ़ाया जाता है ? कैसे पढ़ाया जाता है? इस पर कभी नियम-कानून बनाने वाले क्या ध्यान नहीं देते?
कहावत है कि नींव मजबूत होने पर ही इमारत बुलंद हो सकती है. पर जहां नींव ही हवा में हो वहाँ क्या आशा की जा सकती है। यही कारण है कि तरह-तरह के प्रलोभन दे बच्चों को हांक कर स्कूल तो ले आया जाता है पर जैसे-जैसे ऊंची कक्षाएं सामने आती हैं बच्चों की संख्या नीची होती जाती है। ऐसे में जरूरत है लोगों को जागरूक करने की. राजनीति से ऊपर उठ देश समाज की भलाई को प्राथमिकता देने की। अपनी कुर्सी को बचाने के लिए ऊल-जलूल नीतियों को लागू करने की बजाए लायक बच्चों को "कुर्सी" दिलवाने में मदद करने वाली शिक्षा-प्रणाली को लागू करने की। इसमें बुद्धिजीवियो और शिक्षाविदों की सलाह ली जाए और उसको अमल में लाया जाए ना कि ऐसे लोगो को इसकी बागडोर सौंपी जाए जिनका इस विधा से कोई नाता ही न हो।
ऐसा नहीं है कि इन परिस्थितियों से लोग अनजान हैं, कोशिशें हो रही हैं उनका सकारात्मक परिणाम भी नजर आता है. पर वे बहुत धीमी और नगण्य हैं, उन पर भी सियासत की काली छाया पड़ती रहती है। इसलिए जो समितियां गठित की जाएं उनमें ऐसे शिक्षाविदों को रखा जाए जिन पर राजनीति का कोई दवाब न हो नाहीं सियासत से कोई लेना-देना। विद्या सर्वांगीण विकास में सहायक हो ना कि लकीर की फकीर। शिक्षा ग्रहण करने वाले में कहीं भी कैसी भी परीक्षा में उभर आने का माद्दा हो, उसे किसी भी संस्थान में ससम्मान दाखिला मिल सके इतनी क्षमता हो। जिससे नामी शिक्षा संस्थानों को अपने द्वार पर यह लिख कर लगाने कि जरूरत न हो कि फलांने राज्य या संस्थान वाले यहाँ अपना प्रार्थना पत्र न भेजें