पेंट का ब्रश पकड़े हुए, वो कोई नामचीन कलाकार नहीं है। दीवार की खुरचन झाड़ते झाड़ते अनायास ही उसके मुंह से निकल गया "मेरी भी क्या जिंदगी है, 12 वर्ष की उम्र में घर से आ गया था सिर्फ 6 क्लास तक ही पढ़ पाया था । घर के हालातों ने मजबूर कर दिया मिट्टी ढोने,, भिगोने, खोदने और फेंकने के लिए । बिहार का रहने वाला हूँ।
ये अंसल माल है न इसकी गहरी खुदाई मै और मेरे दोस्तों ने की थी। 100 मजदूर लगे थे । इतनी गहरी खुदाई कि, जमीन से पानी भी निकल आया था । फिर उसकी भराई हुई तब सब बना। क्या क्या नहीं बना, दुकानें बनीं पिक्चर हाल बने फुड कोर्ट बना
बस वंही से तो ये ब्रश और पेंट पकड़ना सीखा । जब वह माल बनकर तैयार हो गया तो हम जैसे मजदूरों की तो
रोजीरोटी खत्म हो गई । मैंने पूछा कभी पिक्चर देखी माल में। अरे! कहाँ आंटी, इतने पैसे कहाँ हमारे पास, बहुत पैसा लगता है।
मेरा मन जरा बेचैन हुआ ।
अरे जिन्होंने इतना खून पसीना बहा कर इसे बनाया उन्हें एक पिक्चर तो दिखा देते । मेरे मन को तो बेचैन होने की आदत पड़ गई है। ऐसा कैसे हो सकता है । पिक्चर हाल बनाया तो पिक्चर दिखा दो, होटल बनाया तो खाना खिला दो ।
वो लोग ये ही सब करते रहे, तो चल गया उनका काम । हाँ तो वह कह रहा था, आंटी हम से तो गाने, बजाने वाले ही अच्छे हें । माता की चौकी में जाते हैं सुबह सुबह नहा धोकर। सबकी वाह वाही भी बटोरते हैं और लोग पैसे वारते हैं सो अलग ।
हमें तो बस ये ही सुनने को मिलता है यहु ठीक करो, वहां खुरचो । बस मुंह पर काले पीले, सफेद छींटे ही हमारी पहचान है । चार रोटी लाता हूँ एक थैली में,
कभी कभी सब्जी बन जाती है कभी नहीं तब नमक से खा लेता हूँ । कभी तो काम में फुर्सत ही नहीं मिलती, और रोटी वापस ही चली जातीं हैं।
इस बार मेरा मन दुखी नहीं हुआ । मुझे उसमें एक बेहतरीन कलाकार की छवि
दिखाई दी । कितने सधे हुए हाथ, कितना फटाफट चलता ब्रश । इन्हीं कलाकारों से तो आम आदमी का जीवन है
कितने लोग "मकबूल फिदा हुसैन " की पेंटिंग खरीद सकते हैं। मेरी निगाहों में तो ये ही महान कलाकार हैं । इनके जज़्बे को सलाम। 👍🏻👍🏻