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सुन सखी

4 सितम्बर 2022

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 सुन सखी के माध्यम से मैंने अपने मन में छिपी तड़प को 
पन्नों में उकेरने का प्रयास किया है। कितना बदल गया है समय पिछले 7 दशक में । धर्म, संस्कृति, समाज, देश, परदेश सब कुछ बदला है, कुछ उन्नति के लिए कुछ अवनति के लिए।  नंही बदला तो केवल आंसुओं का खारापन । पहले भी दुख मे निरंतर बहते थे और आज भी। खुशी में पहले भी आंखें छलक जाती थीं । 
खुशी में हंसना पहले भी स्वभाविक था और आज भी, लेकिन वो हा हा करके हंसना कहीं लुप्त सा हो गया है । एक अनजान अनहोनी से हर कोई क्षुब्ध सा नजर आता है। संवेदनशीलता, सहिष्णुता, संतोष और सहअस्तित्व कहीं गुम से हो गये लगते हैं। बात बात में उबाल, छोटी छोटी बात में उछाल आम बात हो गई है। 
धर्म, सम्प्रदाय उग्र रुप ले रहे हैं, और हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं। शायद मेरे इन पन्नों में कुछ समाधान निकले ।
सुन सखी सुन रही है न,
रोज की तरह आज भी खाने की प्लेट लेकर टी वी के सामने बैठी हूँ। पूरे 2 घंटे बैठूंगी , इस बीच तरह तरह के प्रोग्राम आयेगें 
कभी डांस तो कभी संगीत कभी पिक्चर तो कभी विज्ञापन कभी ड्रामा तो कभी खेल  । 
तुम भी तो देखती होंगी। 
मैं अपने मन की बात तुझे बता रही हूं क्या तुम्हे भी ऐसा लगता है। 
कल एक पिक्चर आ रही थी । (एक फूल दो माली) जब हंसी का सीन आ रहा था मैं मंद मंद मुस्कुरा रही थी। यदि तुम साथ होती तो ठहाके लगाकर हंस लेती। तुझे पता है ना अकेले में तो कोई विक्षिप्त ही हंस सकता है। 
जब कोई भावुक सीन आ रहा था मैं चुपचाप रो रही थी। कोई बैठा होता है तो मैं उठ खड़ी होती हूँ कोई मुझे पागल न समझ ले ।  लोग तो सचमुच के हादसों को ही नजर अंदाज कर देते हैं। और मैं पिक्चर में रो रही हूँ  । 
पर एक बात तो है एक्टर एक्ट्रेस से प्रभावित बहुत होती हूँ  , सोचती हूँ क्या हुनर है। चेहरे पर वो हावभाव लाना कोई आसान काम नहीं। 
वो ही मेरे आदर्श बन जाते हैं
लेकिन एक बात अच्छी है। पिक्चर जाते ही भाव भी चले जाते हैं । 

 फिर मैं खाना खजाना वाली चैनल लगाती हूँ। शैफ इतनी अच्छी अच्छी डिशेज सिखा रहा होता है। सफेद अप्रिन पहने सिर पर कैप लगाये फटाफट काटपीट क्या बनाता है। और जब सजाकर प्लेट में रखता है, तो खाना खाया होने के बावजूद मुंह में पानी आ जाता है। 
मैं सोचने लगती हूँ कि खाना तो मैं भी इतना बुरा नहीं बनाती ।  
तुझे तो याद होगा न हम लेडीज क्लब और नारी कल्याण परिषद में कितना खाना बनाते और बनवाते थे। 
जब साल में एक बार फेटे (मेला) लगाते तो कितनी स्टाल खाने की लगाते । 
यकीन नहीं होता वो हम ही थे क्या! 
कुछ उम्र ने ऊर्जा खत्म कर दी और कुछ खाने वालों ने ।  
हम जो बनाते थे अब बच्चे वो खाते ही नहीं  । पिज्जा बर्गर का जमाना है । खैर जो बीत गई वो बात गई । 
मैं भी सोचने लगती हू कोई रोज रोज ये डिश थोडे़ ही बनती हैं। रोज़ की रोटी दाल तो मैं अच्छी ही बनाती हूँ
अब कल बात करते हैं नींद सी भी आ रही है शायद आ जाये। बड़े नखरे से आती है।

आज कल की अधूरी बात फिर पूरी करुंगी । आजकल सोनी चैनल पर डांस का प्रोग्राम आ रहा है । सचमुच इतना आश्चर्य होता है, बड़े तो बडें बच्चे भी कमाल का डांस करते हैं, लगता है हड्डी तो है ही नहीं बदन में जैसा चाहो तोड़ मरोड़ लो। कहते हैं जितनी कम उम्र में काम सीखा जाता है उतनी जल्दी आ जाता है ।मुझे भी बड़ा शौक था डांस सीखने का पर हमारा जमाना कुछ और था । बहुऐं घूंघट निकालती और बेटियां सिर ढ़क कर रखतीं । 
कंही शादी ब्यानों मै ही बहू बेटियाँ नाचती  । मुझे तो बहुत शर्म आती। अड़ोस पड़ौस शादी में तो कभी मैं जाती ही नहीं पर क्लासिकल नृत्य सीखना चाहती थी । 
अपने घर की शादी में उल्टे सीधे पैर चला लेती। इमानदारी से बता रही हूँ बस हाथ पैर थोड़े चलते पर कमर तो जरा न हिलती । 
मुझे अपनी शादी का किस्सा याद है ।। जब मैं पहली बार ससुराल गई, अगले दिन  डांस और लंच वगैरह का प्रोग्राम था   । गाने वाली नाइन पुरानी दिल्ली से आई थीं। खूब ढ़ोलक की थाप पर गा रहीं थी। रिश्ते की देवरानी जेठानी डांस कर रही थी  । 
लड़कों की अंदर आने की मनाही थी । छुपके चुपके खिड़की दरवाजों से देख रहे थे। 
सबने मुझसे डांस करने को कहा  क्या बताऊँ तुझे मुझे तो ये याद भी नहीं रहा कि वो मेरी शादी का ही Function था । मैं उठी
जैसे ही ढोलक की थाप पड़ी और पैर साड़ी में फंस गया। 
मैं धड़ाम गिरी । तू हंसना मत 
लड़के तो सब हंस ही रहे थे। 
पर मैं भी ऐसी हूँ कि जल्दी से उठ गईं और उल्टा सीधा डांस कर ही दिया । मेरी सास की जान में जान आई न तो सारी उम्र का एक गीत हो जाता कि बहू को नाचना तो आ नहीं रहा था, लुढ़क गईं  । खैर मैं तो ये बता रही थी कि नृत्य करने वालों से मैं बहुत अचम्भित होती हूँ। 

कोई हास्य व्यंग्य का प्रोग्राम हो तो बहुत ज्यादा उत्सुकता होती है। वो इसलिए कि दुनिया में सबसे मुश्किल काम है हंसाना  किसी भी काम से हम किसी के जीवन में मुस्कान भरते हैं तो उस से बेहतर काम कुछ नहीं हो सकता, भगवान की पूजा भी नहीं मेरी समझ से तो । 
तुम भी जरुर ऐसा ही सोचती होंगी चूंकि तुम मेरी सहेली हो तो कंही न कंही हमारे विचार मेल खाते हैं तभी तो हम इतने सालों से साथ निभा रहे हैं। 

ड्रामेबाज़ तो बहुत मजेदार लगता है कहीं न कहीं, स्टेज पर न सही असल जीवन में तो सब को ड्रामा करना ही पड़ता है । भूखे होने पर पेट भरे होने की एक्टिंग तो आम बात है और अब बुढ़ापे में दर्द छुपाने में हम सब माहिर हो गये हैं।  अब कहाँ तक बतायें कभी कान दर्द कभी आंख 
कभी घुटने कभी दांत। 
सच दर्द तो साथी है , रहता है हरदम साथ ।
संगीत  तो सचमुच जीवन को लयबद्ध कर देता है . संगीत तो कानों में मिश्री सी घोल देता है। हर तरह का संगीत चाहे शास्त्रीय या सुगम लोकगीत या भजन मन को मंत्रमुग्ध कर देते हैं  । एक दिन टीवी पर माता की चौकी हो रही थीं। सब कुछ माता मय ही हो रहा था  । मैं भी भावविभोर आंख मूंद कर भजन गा रही थी। वो बात अलग ही है कि जरा देर में ही मुझे अपने बेसुरे होने का आभास हो गया था । 
मैं चाहे कैसा भी गाऊँ पर इसमें कोई दो राय नहीं की संगीत मन आत्मा को पावन कर देता है।

कवि और कविता की बात आने पर तो मन बल्लियों उछलने लगता है । कवि की कल्पना स्वप्न को साकार रूप में देखने का पर्याय है। कहीं न कहीं हमारी इच्छाऐं , हमारी अभिलाषाऐं ही सपनों के रूप में अवतरित होती है । हास्य सम्मेलन जब हसां हंसा कर लोटपोट कर देता है तब लगता है दुनियाँ में खुशी ही खुशी बिखरी है।सुख और दुख को देखने का अपना नजरिया है।
कवि और लेखक का लेखन तो हमारे भीतर को झकझोर कर रख देता है।मैं भी अपने विचारों को कुछ मूर्त रुप देने की कोशिश करतीं हूँ पर उस वृहद साहित्य के सामने खुद को बौना ही पाती हूँ।

क्रिकेट का मैच देखो चौके छक्के से ही मैच में दम है। हारने लगते हैं तो अंडे फूटने लगते हैं ठीक उसी तरह जैसे पद पदवी हो तब तक सब आवभगत करते हैं और बाद में मुंह फेर लेते हैं। ये ही तो जिंदगी है जिस रुप में आये उसे वैसे  स्वीकारना ही जीवन जीने की कला है। 
अब सवाल ये है कि सभी से मैं प्रभावित हूँ तो कौन ऐसा बचा जो गुणों के बगैर है । मुझे लगता है कोई भी नहीं। मुझे तो घर का काम करने वाली मेड, बगीचे मे काम करता माली प्रैस करता धोबी  मैं सभी के काम की कायल हूँ क्योंकि मैं उन किसी के जैसा काम नहीं कर सकती। 
हमें एक दिन काम करना पड़ जाता है तो भुनभुनाने लगते हैं और वो इतने घरों का काम करती है अब तू ही बता वो हुई न महान हमसे?
👍🏻👍🏻कभी हरियाणा जाने का मौका मिले और किसी गाँव में जाओ तो दृश्य अत्यंत मोहक होता है । सुबह सुबह अपने घर का काम निपटा कर, सिर पर छाछ की हांडी और उसके ऊपर कपड़े में बंधी रोटी, साथ में लालमिर्च और लहसुन की चटनी। हाथ में दरात लिए जाती महिलाऐं, किसी सेना में जाते जवान से कम थोड़े ही लगती है । ये वो महिलाऐं है जो सारे देश का भरणपोषण करतीं हैं और हम उन्हें अबला कहकर उनकी लग्न उनकी मेहनत और हिम्मत की अवहेलना करते हैं। 
सब काम बराबर की महत्ता रखते हैं बशर्ते इमानदारी से किये जायें औरत को दोयम दर्जे का ना समझा जाए। 
उन पर अत्याचार करने वालों को कड़ा दंड दिया जाए और वो भी अतिशीघ्र ।  मैं समझतीं हूँ तू भी मेरी बात से सहमत होगी 👍🏻👍🏻


मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बिल्कुल सही लिखा है आपने 👌 आप मुझे फालो करके मेरी कहानी पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

11 सितम्बर 2023

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रचनाएँ
सुन सखी
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सुन सखी, मेरा अपने प्रिय पाठकों से मिलने का नया बहाना है। आप सब की प्रेरणा और प्रशंसा दोनों ही मुझे जल्दी जल्दी आप से कुछ कहने और सुनने के लिए ललायित कर रहीं हैं। यदि आपका प्यार यूं ही बरसता रहा तो क़ोई आश्चर्य नही कि बाढ़ आ जाये। वो बाढ़ नहीं जो विध्वंस लाती है। ये वो बाढ़ है जो खुशियों का सैलाब लाती है। बने रहो मेरा दाहिना हाथ ताकि मैं सरपट लिख सकूँ। मैं वैसे तो कोई ऐसी बात नहीं लिखती जिस से किसी को ठेस पहुंचे फिर भी किसी को ऐसा लगे तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। बच्चे युवा और वृद्ध सब की सखी हूँ मैं। मेरी नजर जरा हट कर हैं सबसे, मुझे आम आदमी में बेहतरीन कलाकार, किसी मेहनत कश मजदूर में, साक्षात ईश्वर, और किसी भी शारीरिक रुप से अक्षम मनुष्य में संवेदनशीलता की असीम शक्ति दिखती है। चलो साथ साथ सब आनंद उठाते हैं सदैव आप सब की शुभचिंतक -------;---रश्मि
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सुन सखी

4 सितम्बर 2022
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माताराम

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मैंने एक लघु कहानी पढी । शीर्षक था, "संतोष" एक मार्मिक कथा पढकर मैं भावविभोर हो गई और उस पर अपनी प्रतिक्रिया लिखने बैठ गई । कहानी कुछ इस प्रकार है कि कड़कती सर्दी में, एक पत

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धर्म का इश्तिहारीकरण 

4 सितम्बर 2022
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4 सितम्बर 2022
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मुझे एक मैसेज मिला, संघर्ष को कुछ इस प्रकार देखो कि उसमें केवल हर्ष ही दिखाई दे कुछ और नहीं । मैं भी शत प्रतिशत इस बात से सहमत हूँ। संघर्ष ही तो एक मात्र शब्द है जिसमें जीवन की तमाम खुशियाँ झलकती

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