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कविता संख्या 1

18 मार्च 2022

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आंखों में थोड़ा जल है और चेहरे पे मुस्कान सी हो,
लगता है जानता हूँ तुमको पर फिर भी अंजान सी हो।
कितने किरदार निभाती हो,
क्या तुम भी कभी थक जाती हो?
घर जाते है आराम को हम, तुम घर पर भी कुछ काम सी हो,
लगता है जानता हूँ तुमको पर फिर भी अंजान सी हो।
राखी सी बंध जाती हो तुम,
फिर भी भाई को सताती हो तुम।
जब बात उठे कुछ लेने की,
कतार में आखिर में आती हो तुम।
अब बदल गया है थोड़ा वक्त, तुम बहन नही भाईजान सी हो।
आंखों में थोड़ा जल है और चेहरे पे मुस्कान सी हो।
बचपन मे गुड्डे गुड़ियों से ,
कितना खेले कितना उलझे।
जब बात चली शादी की तो,
तेरे जाने को हम क्या समझे?
घर की रौनक हो, रानी हो, फिर तुम क्यों मेहमान सी हो?
लगता है जानता हूँ तुमको पर फिर भी अंजान सी हो।
मेरे चेहरे पर आ जाती है,
हर मुश्किल हर एक शिकन।
तुम पता नही लगने देती,
क्या है मुश्किल, क्यों है अनबन।
काश कभी में जान सकूँ, पूंछू, क्यों परेशान सी हो।
आंखों में थोड़ा जल है और चेहरे पे मुस्कान सी हो।
कुछ कह कर तोतली ज़बान में
बच्चा तुम्हे रुला देता है।
जन्नत क़दमों में तुम्हारे ही है,
ये हक़ तुम्हे ख़ुदा देता है।
जब माँ के रूप में देखूं मैं, तुम मेरे लिए भगवान सी हो।
लगता है जानता हूँ तुमको पर फिर भी अंजान सी हो।











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रचनाएँ
एक लड़की रोई
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यह पहली पुत्री है। जैसे एक लड़की अपना घर छोड़कर दूसरे घर को रोशन करती है, वैसे ही उम्मीद करता हुं की ये कविताएं आपके मन को रोशन करें।

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